“ अनुजा मेरे कपड़े कहाँ रख दिए फिर नहीं मिल रहे… तुम भी ना जरा भी ध्यान नहीं देती हो पक्का मेरे कपड़े… सुहास के कपड़ों के साथ उसकी अलमारी में सज रहे होंगे ।” विभोर ने झल्लाते हुए कहा
वो कमरे से जैसे ही बाहर निकल कर आया… सुहास की पत्नी मनस्वी कुछ कपड़े हाथों में लेकर आ रही थी ।
“ देखो मैं कह रहा था ना …. मेरे कपड़े सुहास के पास ही होंगे… यार समझता क्यों नहीं है कहाँ उसके कपड़े और कहाँ मेरे… कैसे अपने कपड़ों के साथ रख लेता हैं ।” कटाक्ष करते हुए विभोर ने कहा
“भैया ये कपड़े अभी-अभी धोबी देकर गया है… मैं सारे कपड़े इधर ही लेकर आ रही थी आप अपने कपड़े ले लीजिए फिर सुहास के कपड़े ले जाकर रख दूँगी ।” बहुत ही शालीनता से मनस्वी ने कहा
“ हाँ हाँ ठीक है इधर दो ।” कहते हुए विभोर अपने कपड़े छाँट कर निकाल लिया
“ देखो उसके कपड़े और मेरे ब्रांडेड… फ़र्क़ तो समझ में आता होगा ना ।” विभोर के तीखे शब्दों से मनस्वी आहत हो उठी
बिना कुछ बोले वो वहाँ से चली गई और डाइनिंग टेबल पर विभोर की टिफ़िन पैक करती अनुजा की ओर कनखियों से देखने लगी… मनस्वी ने महसूस किया अनुजा ने इस बात को नज़रअंदाज़ कर दिया ।
अपने कमरे में जाकर मनस्वी अलमारी में कपड़े रखने के बाद रसोई में आ गई….सुहास तैयार हो कर आ रहा था और मनस्वी को भी जल्दी से दोनों की टिफ़िन पैक करके दुकान खोलने जाना था ।
विभोर ऑफिस के लिए निकल गया उसके बाद अनुजा अपने कमरे में चली गई ।
मनस्वी टिफ़िन पैक करके फैली रसोई को समेटने लगी तभी उसे किसी के कदमों के आहट सुनाई दी पलट कर देखी तो सास चंदा जी धीरे-धीरे उधर ही आ रही थी..
“ माँ मुझे बुला लिया होता आप यहाँ चल कर क्यों आ गई?” मनस्वी ने पूछा
“ बहू जरा दो मिनट को मेरे कमरे में आना तुमसे बात करनी है….मैं यहाँ नहीं आती तो तुम दोनों दुकान के लिए निकल जाते ।” चंदा जी ने कहा
मनस्वी चंदा जी के साथ उनके कमरे में गई तो चंदा जी ने कहा,” बहू वैभव की बात को दिल पर मत लेना… वो शुरू से ही ना जाने क्यों सुहास से ईर्ष्या करता है…हमने तो कभी बच्चों में कोई भेदभाव नहीं किया पर उसने पता नहीं क्यों सुहास को नीचा दिखाने की ही कोशिश की है भाई का प्यार सुहास के कभी दिया ही नहीं ।”
“ ये सब कहीं ना कहीं तुम्हारी ही ग़लतियों का नतीजा है…जो अब सुहास की शादी के बाद और बढ़ रहा है…कितनी बार कहा था तुमसे विभोर भी बच्चा है उसका बचपन उससे मत छीनो पर तुमने मेरी कभी न सुनी … जब से सुहास का जन्म हुआ कितना ही बड़ा था विभोर… तीन साल का और तुमने क्या किया… विभोर को सुहास का बड़ा भाई ही नहीं बनाया बल्कि उसका ध्यान रखने वाला बड़ा आदमी बना दिया… करने लगा वो अपने ही छोटे भाई से ईर्ष्या ।” बिस्तर पर पड़े पड़ें दीनानाथ जी बोले
“आप भी मुझे ही सुना रहे हैं… सुहास कितना कमजोर पैदा हुआ था…तब भी विभोर उसे कभी चिकोटी काट देता तो कभी मार कर रुला कर चल देता ऐसे में वैभव को बड़ा भाई होने की बात करती ताकि वो सुहास को समझे पर वो तो उसे अपना दुश्मन समझने लगा था….उसको लगता था सुहास के आ जाने से हम उसे ना पसंद करते ना प्यार करते … पर आप भी जानते है ऐसा कुछ भी नहीं था… वैभव कभी सुहास को अपना समझ ही नहीं पाया और आज भी वो सुहास को नीचा दिखाने में लगा रहता है… मुझे अब डर लग रहा है मनस्वी के आने से पहले तक तो अनुजा भी सुहास के लिए कभी कभी विभोर को डांट दिया करती थी पर अब…आज विभोर जब बोल रहा था अनुजा चुप रही यही बात मुझे खटक रही है तभी मैं मनस्वी को बुलाकर लाई।” चंदा जी ने कहा
“ माँ कोई अपने ही भाई से इतनी ईर्ष्या कैसे कर सकता है कि उसकी हर बात में मीनमेख निकाले… सुहास ये सब सुनकर बस मुस्कुरा देते हैं और मुझे कहते ये ही मेरे भाई का मेरे लिए प्यार है ।” मनस्वी ने कहा
“ बहू सुहास बहुत भोला है….या यूँ कहें कि वो हम सब से बहुत प्यार करता तो गलत नहीं होगा…ये चार साल पहले की बात है विभोर और सुहास दोनों नौकरी करते थे… तुम्हारे पापा जी अपनी दुकान बढ़ा कर घर आ रहे थे तभी एक कुत्ता रास्ते में आ गया उसको बचाने के चक्कर में वो स्कूटर सहित गिर पड़े कुल्हे की हड्डी टूट गई और ऑपरेशन के बाद भी वो पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाए… सबने सोच लिया अब दुकान बंद करना पड़ेगा… पापा जी ने विभोर और सुहास दोनों से पूछा क्या किया जाए… विभोर ने साफ कह दिया मुझे दुकान नहीं चलानी… तब सुहास ने कहा था पापा जी की उसी दुकान से हम सब इतना कुछ कर पाए हैं और इतनी अच्छी चलती दुकान को बंद करना समझदारी नहीं है अब से पापा जी के दिशानिर्देश में वो दुकान मैं सँभाल लूँगा तब से सुहास दुकान सँभालने लगा… बहू विभोर जिन कपड़ों के लिए सुहास को सुना रहा था तुम्हें पता है बचपन से सुहास विभोर के उतारे कपड़े चाव से पहनता रहा है बिना ना-नुकर किए अब सुहास अपने लिए कुछ भी खरीद लेता नहीं भी लेता उसे फर्क ही नहीं पड़ता कपड़े ब्रांडेड है या साधारण उसे तो बस पहनने से मतलब होता पर विभोर वो हमेशा से अपनी पसंद से सब कुछ किया है… बहू ये सब बस इसलिए बता रही हूँ ताकि तुम अपने जेठ जेठानी से इन सब बातों को लेकर मनमुटाव ना करो…समय आएगा तब शायद विभोर सुहास के लिए ईर्ष्या त्याग दे हम अपने बच्चों में कोई भेद नहीं करते बस विभोर के मन से ये बातें निकाल नहीं पा रहे।” चंदा जी ने डबडबाई आँखों से कहा
“ माँ मैं समझ रही हूँ… सुहास की बातों से इतना तो समझ आ ही गया है .. मैं भी उम्मीद करती हूँ दोनों भाई प्यार से रहे अच्छा अब मैं सुहास के साथ दुकान जाती हूँ… नहीं तो दुकान खोलने में देर हो जाएगी ।” कहकर मनस्वी चली गई
विभोर की आदत से कभी कभी मनस्वी को तकलीफ़ होती कि वो सुहास के साथ ऐसा व्यवहार क्यों ही करते पर वो भी वक़्त का इंतज़ार कर रही थी…
एक दिन विभोर जब ऑफिस से घर आया उसका चेहरा लटका हुआ था…. वो कारण किसी को नहीं बता रहा था… जब सुहास दुकान से आया तो भाई का उतरा चेहरा देखकर बोला,” क्या हुआ भैया… ऐसे मुह लटकाए क्यों बैठे हो?”
“ तू तो चुप ही रह… तू तो कभी मेरा भला चाहता भी नहीं था… जब से तू मेरी ज़िंदगी में आया है सब तुझे ही सिर माथे पर रखते…अब और खुश हो जा… मेरी नौकरी चली गई…तेरा क्या है तू तो दुकान की कमाई खा रहा मुझे तो सोचना होगा।” विभोर सुहास से चिढ़ते हुए बोला
“ ये कैसी बातें कर रहे हो भैया…मैं सबसे ज़्यादा आपसे प्यार करता हूँ… मुझे पता है आप मुझसे ईर्ष्या करते हो बस इस बात को लेकर कि मैं छोटा हूँ और सब मुझे प्यार करते पर जब आपका जन्म हुआ तब सबने आपको प्यार दिया और पहला बच्चा होने की खुशी ही अलग होती है… आपको पता है घर में बचपन की तस्वीरें सबसे ज़्यादा आपकी … मुझे तो कभी इस बात को लेकर ईर्ष्या नहीं हुई… आप बड़े हो आपका हक सब पर मुझसे ज़्यादा है जॉब फिर से मिल जाएगी.. जब तक नहीं मिलती दुकान है ना … वो तो पापा जी की ही है जिसपर हम दोनों का हक है आप से वो हक कोई नहीं छीन सकता… आप मुझसे भले ईर्ष्या करते रहे पर मैं अपने बड़े भाई का सम्मान करता हूँ और प्यार भी चलिए अब कपड़े बदल कर आइए खाने के लिए सब इंतजार कर रहें… कल आप दुकान चलिएगा और साथ ही साथ नई जॉब की तलाश भी करिएगा।”सुहास ने कहा
“ बेटा तू बेकार ही सुहास को लेकर मन में ईर्ष्या भाव रखे हुए है…तेरी जगह हमेशा तेरी ही रही है सुहास तो तेरे साथ मिलकर ज़िंदगी के मायने समझने आया तेरा हाथ बटाने पर तुने कभी उसे समझा ही नहीं अभी भी वक्त है मन से वो ईर्ष्या की परत हटा प्यार के आवरण से एक दूसरे को ढक कर साथ साथ चलो यही मैं और तेरे पापा चाहते हैं ।” चंदा जी विभोर के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली
“ सच में विभोर मुझे भी आपका सुहास के साथ ऐसा व्यवहार पसंद नहीं है…होती होगी घर की बहुएं और भाभी बुरी पर हमें बुरा बन कर नहीं रहना हम अपने घर में सबसे प्यार के सब रहना चाहते हैं ।” अनुजा ने भी अपनी बात कह दी
“ सब मुझे ऐसे मत बोलो…पता नहीं मुझे क्या हो जाता जब भी सुहास को देखता बचपन के घटनाक्रम से मुझे ग़ुस्सा आता और मुझे ऐसा लगता बस सबको सुहास की ही पड़ी हुई मेरी तो किसी को परवाह ही नहीं… और वही बात मेरे भीतर ईर्ष्या बन कर पनपती रही … अब से ऐसा नहीं होगा.. मुझे माफ कर दे मेरे भाई… तुने हँसते हुए मेरी ज़िल्लत बर्दाश्त की पर अब नहीं ।” कहते हुए विभोर ने सुहास को गले से लगा लिया
दूसरे दिन मनस्वी नहीं सुहास और विभोर दुकान के लिए साथ-साथ निकले जिसे देख पूरा परिवार उनकी बलैया लेने लगा कि अब दोनों भाई में प्यार सौहार्द बना रहे ईर्ष्या की जगह अब कभी पनपने ना पाए।
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रचना पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद ।
रश्मि प्रकाश
# ईर्ष्या