‘माँ !क्या मैं सचमुच भाग्यहीन हूँ? दादाजी, ताऊजी कोई भी मुझसे प्यार से बात नहीं करते। दादीजी, बुआ, ताई जी सब मुझे भाग्यहीन कहकर ही बुलाती है, जैसे यही मेरा नाम हो आपने कितना प्यारा नाम रखा है मेरा। मेरी भी इच्छा होती है ,कि सब मुझे मेरे नाम से बुलाए। मेरे पापा नहीं हैं, इस बात का दु:ख कम नहीं है मुझे,
ऊपर से सबका यह कहना कि मैं अपने बाप को खा गई, मुझे कितना तकलीफ देता है, मैं बता भी नहीं सकती। बोलो ना माँ! क्या मेरे पापा मुझे इसलिए छोड़कर चले गए कि मैं भाग्य हीन हूँ?’ उज्ज्वला ने रोते -रोते अपनी माँ से कहा। माँ ने उसके बालों को सहलाते हुए कहा- ‘बेटा -जिसको जो कहना है उसे कहने दे, हम उनको रोक नहीं सकते।
पर मैं तुझे एक बात कहती हूँ कि मेरी उज्जवला भाग्यहीन नहीं मेरी भाग्यरेखा है। बेटा भाग्यहीन वे होते हैं जो हमेशा अपने भाग्य को कोसते है। अपनी नाकामयाबी का दोष भाग्य के ऊपर डाल देते हैं। बेटा तेरे पापा की आयुष इतनी ही थी, और वे हमे छोड़कर चले गए। तेरा तो उसमें कोई दोष ही नहीं है।
अपने आप को दोष देना बंद कर और अपने नाम के अनुरूप अपने भाग्य को उज्जवल बना। बेटा! किसी का व्यवहार कैसा भी हो हमें अपने आचार व्यवहार शुद्ध रखना चाहिए। बेटा तुम्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना है। तुम जो बनना चाहती हो, तुम्हारा लक्ष्य निर्धारित करना है,और लगन से मेहनत करनी है।
अगर बेकार बातों पर ध्यान दोगी तो अपने लक्ष्य पर ध्यान कैसे कर पाओगी। अगर तुम्हें पढ़ाई में या किसी बात मे उलझन है, तो मैं हमेशा तुम्हारे साथ खड़ी हूँ । अच्छा अब ये बताओ तुम क्या बनना चाहती हो।’ ‘माँ !मुझे डॉक्टर बनना है।’ ‘तो ठीक है अभी से अच्छी पढ़ाई करो, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है
और बेटा जो ईमानदारी से मेहनत करते हैं ईश्वर की कृपा भी उन्हें जरूर मिलती है।’ सुलभा ने जब उज्जवला को समझाया तो उसे बहुत अच्छा लगा। वह बोली -‘माँ मुझे आज बहुत अच्छा लग रहा है आज के बाद मैं कभी भी अपने को भाग्य हीन नहीं समझूँगी।’ ‘ये हुई ना बात मेरी प्यारी बेटी।’
इस कहानी को भी पढ़ें:
सुलभा ने अपनी बेटी को तो समझा दिया, मगर खुद विचारों के भंवर में उलझ गई।जब मैं इस उम्र में परिवार के लोगों के तानो और उलाहनो से व्यथित हो जाती हूँ, तो उज्जवला तो बहुत छोटी बच्ची है, अभी पॉंचवी कक्षा में ही तो पढ़ती है। पिता का प्यार मिला नहीं, दो माह की ही थी
तभी पिता का हृदयगति रूकने से देहांत हो गया। यह तो अच्छा है कि मेरी सरकारी नौकरी है वरना….। नौकरी…नौकरी के पीछे भी परिवार के सभी लोग पड़े थे। कितना दबाव बनाया था मुझपर नौकरी छोड़ने के लिए, वह तो निखिल ने मेरा साथ दिया और मेरी नौकरी चलती रही। अगर मैंने नौकरी छोड़ दी होती तो……।
अरे मैं कहाँ उलझ गई समय का पता ही नहीं चला। अब जल्दी से भोजन बनाती हूँ। उज्जवला का होमवर्क भी करवाना है। कल विद्यालय भी जल्दी जाना है। बच्चों की परीक्षा शुरू होने वाली है।
पहले संयुक्त परिवार था मगर निखिल के देहांत के एक साल बाद ही। नीरज और रजनी ने घर के बटवारे की बात कही। घर का बड़ा हिस्सा उनके पास था और मोहन बाबू और आशा जी बड़े बेटे के साथ थे। सुलभा अपनी बेटी उज्जवला के साथ घर के छोटे हिस्से में रहती थी और उज्जवला ही उसकी पूरी दुनियाँ थी।
उसने अपनी बेटी को बहुत अच्छे संस्कार दिए। उसे हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती, उसे उसके लक्ष्य का स्मरण कराती रहती। माँ के कुशल अनुशासन,मार्गदर्शन और उज्जवला की लगन ने उसे सफलता दिलाई। पीएमटी की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने के बाद उसका मेडिकल कॉलेज में एडमिशन हो गया।
उसे पढ़ाई में किसी तरह की दिक्कत न हो इसलिए सुलभा ने अतिरिक्त ट्यूशन की। अपनी बेटी का वह पूरा ध्यान रखती थी। और वह दिन भी आया जब वो डॉक्टर बन गई। उसने अपनी मेहनत और लगन से अपने भाग्य को तराशा और माँ की शिक्षा का मान रखते हुए परिवार के सभी लोगों के साथ अपना अच्छा व्यवहार रखा। घमंड तो उसके पास फटकता भी नहीं था। अब उसे कोई नहीं कहता था कि वह भाग्यहीन है। पर सुलभा उससे गर्व से कहती थी कि उज्जवला तू मेरी भाग्यरेखा है।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
#भाग्यहीन