भगवान है, पर कौशिश स्वयं करो। – पूनम भटनागर : Moral Stories in Hindi

सावित्री देवी एक जीवट महिला थी।‌वह सुखनपुर गांव में रहतीं। जैसा कि गांव में होता है लकड़ी काट कर लाओ तब चूल्हा जले हालांकि अब तो गांवों में भी ईंधन की सुविधा हो गई है । पर जवानी में उन्होंने काफी श्रम किया । सुबह अंगीठी जलाकर खाना पकाना दो छोटे बच्चे , पति कारखाने में काम करते थे। वह पति के साथ ही कारखाने जाती व काम करती।‌ पति पत्नी दोनों मिलकर किसी तरह बच्चों का पालन पोषण करते।

ज्यादा नहीं पर गुजारे लायक मिल ही जाता। बाद में लकड़ी काट कर चूल्हा चौका करती। दोनों पति-पत्नी मिल कर बच्चों को जितना उन्हें आता था पढ़ाते। क्योंकि दोनों का मानना था कि शिक्षा अनिवार्य है जिस बात में वह लोग अनभिज्ञ रह गये , बच्चे न रह जाए। बच्चे भी बहुत समझदार थे , छोटे होते हुए भी काफी समझ जाते। वह अपने माता-पिता की आर्थिक स्थिति समझते हुए कभी ऐसी चीज नहीं मांगते , जो वह दे नहीं पाए।

जीवन सब मिलाकर बस ठीक ठीक गुज़र ही रहा था। तभी जाहर नदी अत्यधिक बारिश से पानी से आप्लावित हो गई। हालांकि पूरे गांव में ऐसी स्थिति नहीं थी पर सावित्री देवी की तरफ पानी भर आया। घर भी ज्यादा दिन सुरक्षित नहीं रह पाया। वह घर बार समेट कर किसी और जगह शरण लेने जाने लगे। पर नदी के उसपार जाने के लिए

नदी से ही गुजरना पड़ता। दोनों बच्चों को बचाते, व अपनी रक्षा करते वह किसी तरह सुरक्षा बलों की सहायता से वह दूसरे गांव पहुंच तो गए पर इसमें सावित्री देवी के पति में काफी चोट आ गई। एक तो सब दुबारा से व्यवस्थित करना वैसे ही बड़ा मुश्किल था तिस पर साधन और साध्य की कमी से जूझते हुए उन्होंने दोनों बच्चों के साथ मिलकर किसी तरह घर जमाया।

अब परेशानी थी कि पैसा कहां से आए क्योंकि कारखाना तो नदी के परली तरफ था ,सो रोज वहां तक पहुंचना संभव नहीं, तिस पर पति काम नहीं कर पाना और बच्चों की जिम्मेदारी तथा पैसे का कोई साधन नहीं, सावित्री देवी करें तो क्या करें। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। नयी नयी जगह कोई जानने वाला नहीं, मदद को कोई हाथ नहीं। वह भगवान के आगे सर रख कर रो पड़ी ।

बोली प्रभु मेरी सुध कब लोगे।  तभी उसने गांव में हो रही मुनादी सुनी कि एक अस्पताल गांव में बनने वाला है, उसके लिए कामगारों की आवश्यकता है। सावित्री देवी उठी , बच्चों को ताकिद करती हुई उस तरफ भागी जहां वह अस्पताल बन रहा था। उनकी बैचेनी देख कर वहां बैठे असीसटेंट ने कहा भी कि माई, तसल्ली रखो तुम्हें काम मिल जाएगा। सावित्री देवी को यह सुनकर लगा ,

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भगवान तूने मेरी सुध ली है, उन्होंने भगवान का धन्यवाद किया तथा पूछने लगी कि क्या काम करना होगा। पर काम करने के घंटे सुबह सात बजे से रात आठ बजे तक थे। और उसके साथ बच्चों को भी पालना, बीमार पति की सेवा करना। सावित्री देवी यह सब करके थक कर चूर हो जाती, पर उन्होंने बच्चों को समझाया कि किस तरह स्वयं पाठशाला जाना है । बच्चे समझदार थे

वह विधालय जाने से पहले सावित्री देवी की मदद करते व वापस आकर मां के आने तक ध्यान भी रखते व पिता का भी ध्यान रखते। आहिस्ता आहिस्ता घर आखिर सामान्य तरीके से चलने लगा। पति की भी हालत ठीक होने लगी। पर सावित्री देवी ने हौसला नहीं छोड़ा। वह खाने की छुट्टी में भी काम मांग कर करने लगी ताकि थोड़ी अतिरिक्त आय हो जाए। इधर पति भी अब ठीक हो चले थे, उन्होंने भी काम कर हाथ बंटाना शुरू किया।

दोनों ने मिलकर अच्छा सा घर लिया। उसके पति कहते कि अब गाड़ी पटरी पर आ गई है, तुम यह सब रहने दो पर वह कहती नहीं अभी आराम करने का समय नहीं आया है, समय ने अपनी चाल बदली। सावित्री देवी ने जोड़ी हुई राशि से एक जमीन खरीद ली। वहीं उनके पति की जोड़ा हुआ़ पैसा था। दोनों पति-पत्नी एक दिन बैठे बात कर रहे थे कि वह किस तरह बच्चों के लिए यह पैसा लगाएं

तभी सावित्री देवी एकाएक बोल उठी कि क्यों न हम यहां एक छोटे से कारखाने का निर्माण करें। पर इसके लिए प्रशिक्षण की जरूरत थी। उनके पति बोले हम जाकर उधोग प्रशिक्षण केन्द्र खुले हैं , पता करते हैं। दोनों पति-पत्नी वहां गए व कोर्स किया, पैसे किस तरह मिलते हैं यह जाना आज दोनों इस स्तिथि में आ गए कि वह कारखाना लगा सके। दोनों पति-पत्नीकी

भागीदारी से ही संभव हो पाया। पर यदि सावित्री देवी थक कर बैठ जाती और विकट परिस्थितियों से खुद को निकाल पाने में ‌सफल नहीं हो पाती तो वह कभी नहीं कह पाती कि जो अपनी मदद स्वयं नहीं करते उनकी मदद भगवान भी नहीं करता। कोशिश तो स्वयं ही करनी पड़ेगी। भगवान भी सुध तभी लेते हैं जबकि खुद को यही यत्न हो ।

 *पूनम भटनागर  ।

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