जब भी सुगम परिवार सहित गांव आता तो कौशल्या और विनोद के पांव जमीन पर न पड़ते। कितने दिन पहले ही पकवान , आचार, पापड़ और भी न जाने क्या क्या बनना शुरू हो जाता। वो भले खाएं न खाएं लेकिन कौशल्या तो वो हर चीज़ बनाती जो बचपन में सुगम को पंसद थी।
सुगम परिवार सहित तो साल में एक बार ही बच्चों की छुट्टियों में आता और वो सब आठ दस दिन रहते। बीच में एक दो बार अकेला चक्कर लगा जाता। इस बार पता नहीं कैसे राखी पर आने का प्रोग्राम बना लिया। जाहिर है जब सुगम आ रहा है तो आरूषी को भी सदेंशा भिजवा दिया।
आम तौर पर राखी डाक से ही जाती या आजकल तो वो भी जरूरी नहीं। बड़े शहरों में तो ऐसी भी कंपनिया खुल गई है जो हर त्यौहार पर लोकल ही मनचाहे उपहार भिजवा देती है, बस पेंमट करने की जरूरत है। सुगम की बहन आरूषी का राखी पर कम ही आना होता। मुंबई जाना आरूषी को पंसद नहीं था। दो बार वो गई थी, लेकिन भाई भाभी की व्यस्तता और कुछ लापरवाही , बस यूं कह सकते है कि आरूषी को कुछ अच्छा नहीं लगा।
दोनों भतीजे रोहित, मोहित तब छोटे थे, उसका बेटा अवि और बेटी रितु भी लगभग उन्हीं की उमर के रहे होगें। सुगम और आरूषी की उम्र में पांच साल का और शादी में तीन साल का अंतर था। उन्का अपना छोटा सा शहर मुंबई से चार घंटे की दूरी पर था और आरूषी की ससुराल की भी लगभग इतनी ही दूरी थी। इन दोनों के पिताजी कई जगह सरकारी नौकरी पर रहे, लेकिन बाद में अपने पैतृक गांव रहना ही उन्हें रास आया।
कुछ जमीन और अपना मकान था। दोनों बच्चों को सैटल करके वो अपना बुढ़ापा वहीं बिताना चाहते थे। सुगम मुंबई में ही पढ़ा और वहीं पर आलेखा से शादी भी हो गई।
आलेखा आधुनिक विचारों वाली और मुंबई में ही पढ़ी बढ़ी थी। मुंह से कुछ नहीं कहती थी लेकिन उसे अपना अलग रहना ही पंसद था। कहना तो नहीं चाहिए लेकिन आजकल अक्सर लड़किया अपने मायके वालों की और ही ज्यादा ध्यान देती है।
ससुराल की जमीन, जायदाद,सुख, सुविधा पर तो वो अपना हक समझती है, और कर्तव्यों में कोई दिलचस्पी नहीं। बच्चों पर सब कुछ लुटाने वाले मां बाप की सेवा करने वाले तो अब विरले ही रह गए हैं।
बात करते है सुगम की।राखी पर सब इकट्ठे हुए, खूब रौनक लगी। लगभग दोनों के बच्चे दसवीं बारहवीं में जा चुके थे। हंसी खुशी त्यौहार मनाया गया,नेग वगैरह देकर आरूषी को विदा कर दिया। रात को बाहर टहलते समय सुगम ने पिता विनोद से बातों बातों में कहा कि वो मुंबई में अपना तीन बैडरूम का फ्लैट खरीदना चाहता है।
एक कमरा आपके लिए भी तो होना चाहिए, एक हमारा और एक बच्चों का। वहां तो भाव आसमान छू रहे है, अगर कुछ मदद हो जाए तभी ये हो पाएगा। कुछ सेविंग्स और कुछ लोन वो ले लेगा।
पत्नी से सलाह मशवरा करके कुछ जमीन बेच दी गई और मुबंई में फ्लैट खरीद लिया गया। किश्त ही काफी बड़ी थी, भले ही दोनों नौकरी करते थे, लेकिन खर्चे भी बहुत । रोहित, मोहित की पढ़ाई का खर्चा।
सुगम जब भी आता, खर्चे का रोना ही रोता, अब मां बाप का दिल तो पसीजना ही था, करते कराते सब बिक गया। दिल का दौरा पड़ने से विनोद जी भी स्वर्ग सिधार गए।चलो उम्र थी।
रोहित और मोहित ने खूब उच्च शिक्षा प्राप्त की और विदेश चले गए । इसी बीच कौशल्या अकेली हो गई। सुगम साथ ले गया, लेकिन कोई उसे पूछने वाला नहीं, जब रोहित, मोहित थे तो कभी कभार दादी के पास बैठ जाते, लेकिन अब कोई भी नहीं , सुगम और आलेखा से तो बात ही न हो पाती, नौकरानी जो कर दे सो कर दे।
कौशल्या ने गांव में ही रहना ही ठीक समझा। वो तो पति की पैंशन और घर था वरना बेटे ने तो खोज खबर लेनी ही बंद कर दी। आरूषी ही मां का हालचाल पूछती रहती।
दस साल से अकेली रह रही कौशल्या दिन रात आंसू बहाती। आरूषी ने नौकरानी का इंतजाम कर दिया था, वो स्वंय भी कितने दिन रहती, अब सबके बच्चों की शादियां हो गई। रोहित, मोहित तो वहीं सैटल हो गए। सुगम और आलेखा बहुत खुश थे। लेकिन इसी बीच बच्चों की पढ़ाई लिखाई और बाहर भेजने के चक्कर में घर के कागज बैंक में रख कर बहुत सारा लोन ले लिया था, सोचा था कि बच्चे चुकता कर देगें।
लेकिन बच्चों ने तो न कुछ दिया और न ही कभी वापिस आए। दो बार सुगम और आलेखा गए लोकिन एक फिंरगन बहू और दूसरी वहीं पर रह रही भारतीय परिवार की थी के साथ पटड़ी बैठनी आसान नहीं थी।नौकर बन कर ही रह गए थे, फिर से जाने का हौंसला ही नहीं हुआ।
लोन चुकता न करने पर बैंक ने फ्लैट पर कब्जा कर लिया, जितने पैसे बाकी ,मिले मुशकिल से एक कमरे का फ्लैट ले पाए। प्राईवेट नौकरी थी, बचत कुछ की नहीं, अब दोनों कहीं जा नहीं पाते, आन लाईन काम करके खर्चा चल रहा है।
उधर कौशल्या के अतिंम चार साल बेटी के पास गुजरे।दोहते अवि और उसकी पत्नी ने खूब सेवा की। आरूषी तो मना करती रही लेकिन कौशल्या ने अपना गांव वाला घर अवि के नाम कर दिया।
अवि को किसी चीज का कमी नहीं, अब वो घर गांव पंचायत के आधीन है, उसके किराए को लोक भलाई के कामों पर खर्च किया जाता है।
मां के निधन के बाद सुगम और आलेखा आरूषी से मिले ही नहीं।लेकिन इस राखी पर सुगम ने आलेखा से कहा कि वो आरूषि से मिलना चाहता है। पछतावे की अग्नि में दोनों ही जल रहे थे।इतने सालों बाद भाई भाभी को अचानक आया देख सब हैरान रह गए। रितु ने अवि को और आरूषि ने जब सुगम की कलाई पर राखी बांधी तो सुगम की आंखो से अविरल धारा बह निकली। मां के इलावा उसे अपने बेटों और तीन पोते पोतियों की याद भी आ रही थी, जिनसे न जाने कब मिलना हो या न हो। मां के आसूंओं का कर्ज तो चुकाना ही पड़ेगा।भगवान को तो किसी ने देखा नहीं, लेकिन इस धरती पर मां ही भगवान है, वो भी मां के बाद है।
दोस्तों, कई बार जवानी में हम इतने मस्त, व्यस्त, स्वार्थी और मगरूर हो जाते है कि अपने मतलब के आगे कुछ दिखाई नहीं देता, लेकिन इतिहास हमेशा अपने आप को दोहराता है।
वाक्य-मां के आसूंओं का हिसाब।
विमला गुगलानी
- चंडीगढ़।
#मां के आसूंओं का हिसाब