बड़ी मुश्किल से दो महीने ही हुए थे , निर्मला जी (मां )को अपनी बेटियों के पास गए हुए।ससुर जी जब थे,साथ ही जातीं थीं बेटियों के पास,वो भी बहुत कम दिनों के लिए।ससुर जी की बरसी पर आई छोटी बेटी की बिटिया ने कहा था नानी से”हमारे साथ चल कर रहिए ना कुछ दिन दीदू।खूब सारी कहानियां सुननी हैं आपसे।
“अपनी नवासी के अनुरोध को निर्मला जी टालना भी नहीं चाहतीं थीं,और जाना भी नहीं चाहतीं थीं।तुरंत बहाना बनाते हुए कहा”नहीं रे रीना,तेरी मामी अकेली हो जाएगी।स्कूल है अभी उसका।घर खाली कैसे छोड़ सकती हूं मैं?”
निशा ने मां की चिंता दूर करते हुए कहा”चली जाओ ना मां।पिछले पांच सालों से नहीं निकली हो घर से।बाबूजी की बीमारी ने तुम्हें एक कमरे में कैद करके रखा दिया।मैं संभाल लूंगी।अब तुम्हारे पोते और पोती भी बड़े हो गएं हैं।तुम घूम आओ कुछ दिन।जब आने का मन हो,आ जाना।”
अब निर्मला जी विवश सी दिखीं।निशा की छोटी ननद के पति रेलवे में थे।झट से तत्काल में रिजर्वेशन करवा दिया गया।निशा ने ननद को मां की दवाइयों की लिस्ट,इंसुलिन का डोज समझा दिया।अब बारी थी उनके साथ बड़े से बैग में धार्मिक किताबें रखने की।रामायण,गीता, विवेकानंद जी की आत्मकथा, रामकृष्ण परमहंस की जीवनी,और भी ना जाने कितनी किताबें संजीवनी बूटी की तरह उनके जीवन का आधार थीं।
बैग के वजन को देखकर बेटी ने समझाने की कोशिश भी की”मां,एक -दो रख लो।सारी किताबें क्यों ले जा रही हो?”मां ने अपनी बात कही”जितने दिन रहूंगी,तब तक पढ़ने के लिए ये भी शायद कम पड़ जाए।रख लें सभी को।”
निशा की ओर ननद ने बेबसी से देखा ,तो उसने समझाया”एक कुली कर लेना अलग से बैग के लिए।इन किताबों के बिना मां रह ही नहीं पाएंगी।ज़रा सोचो तो,इस उम्र में पढ़ने की ऐसी ललक है,जो तुम और हम में भी नहीं है।”
आख़िर अगले दिन की ट्रेन से नागपुर जाना तय हो चुका था।मां की अच्छी साड़ियां,मैंचिंग ब्लाउज और पेटीकोट के साथ जमाकर रख दिया था एक पैकेट में निशा ने।हर सैट के साथ एक सफेद रुमाल(छोटा)भी रखा था।उनके पर्स में कंघी,तेल के अलावा टार्च, मोमबत्ती,माचिस रखना अनिवार्य था।इसका कारण भी बताया था मां ने, कि अचानक से बारिश आने या लाइट चली जाने से ये बहुत काम आते हैं।इसके अलावा अपने बचाव के हथियार भी हैं ये।
इस कहानी को भी पढ़ें:
सुबह पांच बजे की ट्रेन में रवाना हुई मां।जाते हुए अपने कमरे,बिस्तर,पेड़ों को जी भर कर देख रही थी।जाते हुए निशा के पैर छूने पर कान में कुछ कहा उन्होंने,जो और किसी को सुनाई नहीं दिया था। ट्रेन में बैठकर भी निशा को अपनी कही बात की याद दिलाती रही।
अब घर सच में सूना लग रहा था।उनके साथ सारा दिन बकर-बकर करती रहती थी निशा,और वे हर सवालों के जवाब लेकर तैयार रहतीं थीं।पूजा पाठ उनके ही जिम्मे था,तो निशा को कहीं चिंता ही नहीं करनी पड़ी पूजा की।शाम होने से पहले धूप में डाले कपड़ों को लाकर तह करना,लाइट जलाना,शाम की चाय और भी जाने क्या-क्या मिस कर रही थी निशा मां के ना रहने से।पर खुशी इस बात की थी कि इतने सालों बाद घर से बाहर निकलीं हैं।बच्चों के साथ घूमेंगी-फिरेंगी तो मन भी अच्छा लगेगा।
हर दिन बिना नागा फोन पर यहां की सारी खबर लेती रहतीं थीं।लगभग महीना भर रही छोटी ननद के यहां।अब उनका मन उचटने लगा ।रेलवे के क्वार्टर कम कमरों वाले।ऊपर से ननद की सास भी बीमारी की वजह से बड़े बेटे के पास ही रहती थीं।अब मां को वहां से आना था।बात यह हुई थी कि बड़ी बेटी आकर ले जाएगी
अपने पास दिल्ली।इधर बड़ी बेटी के आने का पता ही नहीं चल रहा था।छोटी बहन ने ही बड़ी बहन को ऐसा करने के लिए कहा था।अब मां घर वापस आने की जिद करने लगी।छोटी ननद ने समझाया “मां मेरे पास इतने दिन रहकर अगर दीदी के पास नहीं जाओगी,तो जीजा जी को बुरा नहीं लगेगा क्या?
तुम रहो ना यहां आराम से।दीदी को फुर्सत मिलते ही जरूर आएगी तुम्हें लेने।दस दिन और बीत गए। ग्यारहवें दिन बड़ी बेटी आईछोटी बहन के घर से मां को ले जाने।स्टेशन जाते समय जब सूटकेस के साथ भारी बैग देखा उसने ,तो माथा ठनका “ईंटा -पत्थर भरकर लाई हो क्या मां।इतना भारी बैग लेकर कोई सफर करता है,इस उम्र में।अब तुम पढ़ती हो किताबें या यूं ही ढोकर ले जा रही हो?”निर्मला जी ने दृढ़ होकर कहा”इसी उम्र में पढ़नी चाहिए अच्छी किताबें,मन शांत रहता है रे।”
खैर अब नागपुर से मां दिल्ली पहुंच गईं।पॉश एरिया में बेटी का बंगला था।बड़े दामाद कस्टम में थे।एरिस्टोकेसी झलकती थी घर के बाहर से अंदर तक।मां के भारी सामान से लदी अपनी बीवी को देख ननदोई जी छेड़ते हुए बोले”अरे मैं तो तुम्हें रानी बनाकर रखता हूं।तुम्हारी मां ने तुम्हें कुली बना दिया। निर्मला जी को दामाद का यह मजाक बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा।बेटी ने पर कोई विरोध नहीं किया बल्कि भारी बैग ढोने से कंधों और हाथों में दर्द की शिकायत करने लगी।
नवासा जो अब जवान हो गया था,नानी को लेकर एक अलग कमरे में गया।छोटा सा खाट,एक कुर्सी,मटका,कुछ बर्तन,छोटा सा गैस सभी रखे थे उस कमरे में। बाथरूम भी था अटैच।फोन पर अपनी बहू(निशा)को बता रही थी सारी बातें वृत्तांत से।एक वही तो सुनती थी उनकी सारी बातें मन से।
इस कहानी को भी पढ़ें:
धीरे-धीरे कुछ दिन बीते।मां का कोई फोन नहीं आया ,तो निशा ने ही कॉल किया”कैसी तबीयत है तुम्हारी मां?बेटी के पास जाकर तो भूल ही गई होगी अपनी बहू को।कब से फोन नहीं किया तुमने।मालूम है घुमक्कड़ तो है ही तुम्हारी बेटी।बस मां को साथ लेकर दिल्ली पूरी हिला रही होगी।है ना?”
उधर से कमजोर सी आवाज आई “नहीं बहू,मैं नहीं जाती कहीं।बहुत बड़ा शहर है यह।इतनी भीड़ लगी रहती है। दौड़कर सड़कें पार करनी पड़ती है।मैं इस उम्र में कहां दौड़ भाग करती फिरूंगी।सामने एक पार्क था,वहीं सुबह टहलने जाती थी,पर दामाद ने मना कर दिया।”
“क्यों मना कर दिया?टहलना तो अच्छा है तुम्हारे लिए।”
उन्होंने रटा रटाया जवाब दिया”अरे,ये अपनी जगह नहीं है ना।दिन दहाड़े गले से चेन खींचकर ले जातें हैं लोग।”
निशा ने कहा”हां यह बात तो है।अच्छा किया भास्कर(दामाद)ने।
अगले दिन फोन पर चहक कर कह रही थीं,”पता है आज लालकिला देखने जाएंगे।मेरा बड़ा मन था कब से।आजादी का प्रथम प्रतीक है यह।”
क्यों न हो यह उत्साह,आखिर हिस्ट्री ऑनर्स में ग्रेजुएट थी।परिवार में नानी और दादी गांधी जी के आंदोलन में सहभागिनी रही थीं।वहीं जोशीला रक्त तो उनकी धमनियों में भी था।
शाम को फोन पर बड़ी ननद ने बताया”इतना ट्रेफिक है ना यहां भाभी,मां को कहीं लेकर जाना बड़ा मुश्किल है।खाने पीने के समय में देर हो जाने से इंसुलिन गड़बड़ हो जाएगी।हम लोगों ने कैंसिल कर दिया।”
“अच्छा ,तो मथुरा तो जाओगे ना उन्हें लेकर।आगरा का ताज महल भी देखना था उन्हें।”निशा ने मां के मन की इच्छा बताई ननद को,तो उसने कोई सकारात्मक जवाब नहीं दिया।
महीना भर हो गया था।मां अब फोन पर ज्यादा बात नहीं करतीं थीं।बस एक ही बात बोलतीं,अपने बेटे(निशा के पति)को भेजकर उन्हें लिवा लाने को।निशा ने जब कहा अमित से तो वह बहन से बात किया।बहन ने उसे जाने से मना कर दिया।बोली”इतना हड़बड़ा क्यों रहे हो दादा?हम लोग आएंगे छोड़ने।कुछ दिन और रह लेने दे न मां को।फिर तुम लोगों को छोड़कर कभी नहीं निकलेंगी कहीं।”भाई ने अपनी पत्नी पर ही चढ़ाई कर दी”इतने अच्छे बंगले में रह रही है मां।यहां से बड़े-बड़े हैं कमरे।बड़ा सा बगीचा।तुम्हारी सास को तो पूजा के ढेर फूल मिल जाते होंगे।तुम भी ना पता नहीं किस टैलीपैथी से जानती हो कि मां का मन नहीं लग रहा है।”
अब निशा अपने पति को कैसे समझाए कि मां के मन का सारा कहा और अनकहा वह ही समझती आई है शुरू से।
इस कहानी को भी पढ़ें:
अगले दिन ननद ने फिर भाई को फोन किया “देख ना दादा,मां तो गजब की है।सुबह छह बजे से उठकर किचन में खड़ड़ -खड़ड़ करने लगती है।हम लोगों को देर से उठने की आदत है।मां बस किचन में बर्तन,डिब्बे धोती रहती है,ये नहीं कि एक कप चाय बना लें अपने लिए।पड़ोस की एक के वी की टीचर ,मेरी सहेली आई थी कल,तो पता है इतना ज्ञान बांटी कि वह बोल दी”वाह अमृता आपकी मम्मी को तो बहुत नॉलेज है,मैं कुछ बुक्स दे जाऊंगी इंग्लिश में। उन्होंने मांगी है।हद नहीं है यह ,तू ही बता।
और सुन कल रात मेरी बिल्ली के ऊपर एक गिलास पानी डाल दी।बिचारी रोते-रोते मेरे कमरे में आकर सोई।अब तो अति करने लगी हैं।कह रहीं थीं भास्कर से, भाद्र महीना लगने के पहले ही जाना होगा घर।नहीं तो लगने के बाद पूरा महीना और रुकना पड़ेगा। मुझे तो लगता है गलती कर दी मैंने उन्हें लाकर।हर बात में बीच में बोलती हैं।भास्कर के दोस्तों के साथ बराबरी में राजनीति और समाचार पर बहस करती हैं।दादा,ये पहले तो ऐसी नहीं थीं,कैसे बदल गई इतना।”
दादा ने भी अपना दर्द उगला”संगत का असर है रे और कुछ नहीं।जैसी बहू मिली है,वैसी ही बन गई सास।मुझे भी कभी लगता है कि ये मेरी मां है या फिर तेरी भाभी की।
निशा भाई-बहन की बात सुन रही थी दूर से।फोन में इतना तो समझ आता है कि किस सवाल का ज़वाब दिया जा रहा है।निशा मन में बहुत खुश हुई कि मां बिल्कुल मेरे जैसे हो गई।दूसरों की शर्तों पर जीने की आदत ना तो निशा को थी और अब मां को भी उसने यही सिखाया।
रात को ही फोन आया ननद का कि मां को छोड़ने आ रहें हैं।सुबह निशा के स्कूल में मिड टर्म परीक्षा शुरू हो रही थी।हाफ डे की लीव लेकर आ गई स्कूल से।सुबह नाश्ते में इडली और सांभर,चटनी बना गई थी।ननद के बेटे को बहुत पसंद था।आकर देखा बाबू तो आया ही नहीं।अमृता और भास्कर आए थे मां को लेकर उत्कल में।घर में घुसते ही जैसे मां को प्रणाम करने झुकी निशा,मां ने सीने से लगाकर कहा”मैं आ गई अपने घर वापस। तुम्हारे पास।”इतना सुनना था कि अमृता का पारा चढ़ गया सातवें आसमान पर चिढ़ती हुई बोली”भास्कर सच ही कहते थे।मां के लिए कितना भी करो,कितने भी अच्छी तरह से रखो,उन्हें अपनी बहू के पास ही अच्छा लगता है।पोते-पोती ज्यादा प्यारें हैं इन्हें।”
सभी हंसने लगे।निशा ने डांटते हुए पूछा”तुमने तो उस दिन सुबह बताया ही नहीं कि आज आ रही हो।”निश्छल मन की मालकिन मां ने कहा”अरे कैसे बताती बहू तुम्हें,मुझे तो खुद भी नहीं पता था।सुबह नाती आकर बोला कि नानी अपनी पैकिंग कर लो।शाम को ट्रेन है। मम्मी-पापा जा रहें हैं तुम्हें छोड़ने।”
“हां तो दम साधने का समय ही कहां दिया इन्होंने।कहने लगीं भादों पड़ने से पहले जाना है।नहीं तो एक महीना और रुकना पड़ेगा।भाभी तुम इनकी दकियानूसी और अंधविश्वासों के चक्कर में मत पढ़ना।”
खाना खिलाकर उन्हें उनके कमरे के,अपने बिस्तर की पतली गद्दी पर लिटा दिया निशा ने।बाकी सब खाना खा रहे थे ,तभी भास्कर बोला”भाभी,मैं सीरियसली बोल रहा हूं।मां की आदत सुधारों ज़रा।आप ही को दिक्कत होगी।एडजस्ट ही नहीं करना चाहतीं।बेटे को अपना वैस्टर्न म्यूजिक वाला चैनल देखना होता था,तभी इन्हें अपना बंगाली सीरियल देखना है।एक पालतू बिल्ली भी बर्दाश्त नहीं कर पातीं ।पानी डाल देतीं थीं रोज़ उसके ऊपर।घर के पास क्राकरी की शॉप से कप -प्लेट खरीदने की जिद करने लगी।रोड में फेरी लगाने वालों से मैक्सी ,चप्पल,मोजे,मफलर खरीदने की जिद करती रही।हम लोगों के स्टेटस का कोई ख्याल नहीं इन्हें।क्यों दादा,यहां भी ऐसा ही करती होंगी ना?”
इस कहानी को भी पढ़ें:
निशा के पति बहनोई की बातों में बहकर कुछ पाते इससे पहले ही निशा ने अपने पति से कहा”आज जो आप,और आपकी बहनें अपना परिवार चला रहीं हैं।पॉश एरिया के बंगले में रह रही हैं,हाई क्लास मेंनटेन कर रहीं हैं ना,ये सब इन्हीं मां की बदौलत ही हो पाया है।पापा एक पैर से दूसरे नकली पैर को चलाते हुए नौकरी किए पूरी।घर चलाया मां ने।तीनों बच्चों को अनुशासन में रखा ताकि समाज उंगली ना उठा पाए।ख़ुद पढ़ी लिखी हैं,ज्ञान का महत्व जानती हैं,तभी अपनी बहू के नौकरी करने से सबसे ज्यादा खुश और संतुष्ट मां ही है।अब बड़े होकर हम सभी उनकी गलतियां गिनवाने लगे,तो हमारी गलतियों की तो कोई माफी भी नहीं होगी।बेटे हो तुम ,जन्म दिया है उन्होंने।खबरदार जो मां के खिलाफ एक शब्द भी बोला।मेरी जिम्मेदारी हैं वो,सब कुछ मैं ही करती हूं,फिर किसी और को बोलने का कोई अधिकार नहीं है।”पति को धमकी देते ही भास्कर जी समझ चुके थे कि यहां दाल नहीं गलेगी।
निशा ने अमृता से कहा”मां के पास पैसे दे दिए थे मैंने ढेर सारे।तुम्हें तो पता है,उन्हें शॉपिंग का कितना शौक है।मॉल दूर होंगे, इसलिए फुटपाथ से चीजें खरीदने लगी होगी।कहीं भी जातीं हैं ,मेरे और बच्चों के लिए कुछ ना कुछ लेकर आती हैं,क्योंकि हम यह नहीं देखते कि कहां से खरीदा है।उनका शौक पूरा होने से खुशहो जाती हैं थोड़ा।इतनी खुशी तो हम दे ही सकते हैं।हां भास्कर से कहना ,शायद उसकी मां ने नहीं बताया होगा।कि भादों के महीने में यात्रा नहीं करते।या तो पहले या बाद में। इसीलिए उन्होंने भादों से पहले आने की बात कही ।”
“हां भी,तुम अच्छी और एक तुम्हारी सास अच्छी।हम से तो उन्हें कोई खास लगाव है ही नहीं।”अमृता चिढ़ रही थी।निशा ने कहा”ऐसा कुछ नहीं।जो सास अपनी बहू से इतना प्यार कर सकती है तो अपने बच्चों से कितना करती होगी?प्यार किसी की गुलामी नहीं मानता।प्यार स्वछंद माहौल में विचरता है।अपनेपन का अहसास बुजुर्गों को अच्छी तरह से ज्ञात होता है।मैं उनकी अच्छी बातें याद रखकर उनका अनुसरण करती हूं।उनकी अपनी पसंद-नापसंद के बारे में पूछकर साधन जुटा देती हूं बस।”
शाम को ही बेटी -दामाद लौट गए।मां अपने कमरे की पुरानी पेंट लगी दीवारों को छूकर देख रही थीं।उनके कमरे में उनकी अपनी टी वी में उनकी पसंद का बंगला चैनल चल रहा था अबाधित।इस उम्र में यह सब ज्यादा तो नहीं है एक मां की आकांक्षा।
अपने पोते के बगल में चैन से सोती हुई दादी को देखकर निशा ने मन ही मन कहा”भादों से पहले अच्छी घर वापसी की मां ने।”,
शुभ्रा बैनर्जी
#घर वापसी
Nice story