शाम हो गई थी, सुलेखा माँ की राह देख रही थी, सड़क की तरफ देखने के लिए वह टेरिस पर आ गई,आज गुलाब के पौधों में कितने सारे गुलाब खिले हैं. सब सुलेखा के लगाए हुए हैं.कितनी छोटी सी है ना उसकी और माँ की दुनिया..
पापा के चले जाने के बाद बस वही दो तो एक दूसरे का पूरा संसार हैं. अचानक माँ को आते हुए देखा उसने, माँ जब तक बेल बजाती,सुलेखा उससे पहले ही पहुँच गई दरवाजे पर, माँ आज बहुत थकी हुई लग रही थी,थकी तो वह रोज ही लगती हैं
मगर आज चेहरे पर आई लकीरें कुछ और ही कहानी कह रही थीं, सुलेखा चाय लेकर आई, माँ तब तक हाथ मुँह धो चुकी थी, एक गहरी साँस लेते हुए उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं, माँ चुप थी, सुलेखा भी.. कभी-कभी चुप्पी और सन्नाटा
दोनों ही बात करने के एक नए विषय को जन्म देते हैं और वह विषय न जाने कब बहस का मुद्दा बन जाता है. सुलेखा अलसाई सी माँ के पास आकर बैठ गई,…सर दबा दूँ..
माँ ने ना में सिर हिला दिया, सुलेखा ही तो मां के सिर का दर्द थी.. क्या ही वह इसे दूर कर पाती.
संबंध कितने अजीब होते हैं ना प्याज के छिलके, परत दर परत हटाते जाओ और अंत में क्या मिलता है वही एक प्याज की परत चाहे जितनी कोशिश कर लो..ये रहस्य सुलझ ही नहीं पाता कि अंत में जब वही परत मिलनी थी तो उसे परत दर परत ढँका क्यों गया था. सुलेखा तीस पार कर चुकी है,उसका विवाह उसके और माँ के बीच में वह दूरी है जो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बीच है.
आज फिर उनकी किसी सहयोगिनी ने यह पसंदीदा विषय छेड़ा होगा और माँ के मुंह का स्वाद कसैला हो गया होगा अब उस स्वाद को क्या ही कोई चाय की प्याली मीठा कर सकेगी, चाहे शक्कर कितनी भी डाली जाए.
सुलेखा थक गई है इस विषय पर बात करने से कतराते हुए.शादी करना कोई बड़ी बात नहीं होती,शादी में सामंजस्य बिठाना बड़ी बात होती है,माँ और वह एक दूसरे के पूरक हैं. सोचती भी है तो इस ख्याल से डर जाती है कि इस घर में सिर्फ माँ का होना कितना भयावह होगा
अभी उसकी दुनिया केवल माँ के इर्द-गिर्द है, उसका पूरा ध्यान उनके लिए ही है,माँ नहीं समझ पाती कि उसके बिना उनकी जिंदगी में केवल सूनापन ही होगा और कुछ भी नहीं और जो डर उसे है वही डर माँ को भी तो है, वह भी तो डरती है इस ख्याल से कि जब वह नहीं रहेगी तो उसका अकेलापन किस तरह भरेगा.
यह जो एक दूसरे के प्रति चिंता की एक महीन रेखा है ना,यह किसी को भी किसी का अकेलापन भरने नहीं देगी. अंततः एक दिन माँ की ज़िद के आगे सुलेखा झुक ही गई, शादी का एक प्रस्ताव जो माँ को बहुत पसंद आ गया था सुलेखा को भी उसके लिए स्वीकृति देनी पड़ी. शादी की तारीख पड़ गई तैयारी शुरू हो गई, मां की दिनचर्या और भी व्यस्त हो गई,वह और भी ज्यादा काम करने लग गई थीं.
सुलेखा विदा होकर ससुराल चली गई. माँ उन दो व्यक्तियों के हास परिहास,बोलने बतियाने से जीवंत छोटे से घर में अकेली रह गईं, वह सूनापन जो बेटी की विदाई के बाद घर के कोने-कोने में बोलता है,उसकी गूंज से हृदय फट सा जाता है,
शादी के बाद मेहमानों से भरा घर भी उजाड़ लगता है, बस एक बिटिया के चले जाने से. धीरे-धीरे सब अपनी लय में आ जाता है. जीवन का सफर हम वैसे ही तय करने लगते हैं जैसे करते आ रहे थे. सुलेखा का फोन माँ के पास रोज ही आ जाता था,,,एक बार,
इसी शहर में होने के कारण वह आ भी जाती थी मिलने, फिर धीरे-धीरे फोन कम हुआ,मिलने आना भी,
माँ जब काम से वापस आती तो एक पल के लिए सुलेखा को दरवाजे या टेरिस पर खड़ा पाती..मगर फिर यह भ्रम टूट जाता.. चाय बनाकर टेरिस पर जाती तो गुलाब के पौधों को देखकर सुलेखा की याद आ जाती बहुत दिनों से ना उसकी छँटाई हुई है, ना रोपाई..कैसा मुरझा सा गया है.
फोन की घंटी बजी, माँ दौड़कर फोन के पास गईं, फोन उठाया..
माँ.. सुलेखा की आवाज में जैसे उदासी थी..
बोल बेटा.. माँ ने कहा.
माँ, मैं इनके साथ दिल्ली जा रही हूँ ट्रांसफर हो गया है.. अब देखो कब मिलना होता है…
माँ बोली..
लेकिन सुलेखा तू यह शहर भी छोड़ कर चली जाएगी तो मैं तो बिल्कुल अकेली रह जाऊंगी. एक शहर में रहने से मिलने की उम्मीद ही सही, रहती तो थी..
मां विदाई के वक्त तुमने ही तो कहा था ना कि बेटी.. अब ससुराल ही तुम्हारा घर है..
मैंने तो कितना मना किया था कि मेरी शादी मत करो,दुनिया में ऐसी कितनी हीं लड़कियाँ है जो अपने माँ-बाप के लिए शादी न करने का फैसला लेती हैं, माँ, शादी जरूरी है मगर कभी-कभी इसे गैर जरूरी मान लेने में कोई फर्ज नहीं होता..
ससुराल वालों को तो हर बात में आपत्ति होती है….
रोज-रोज माँ से मिलने क्यों जाना है… अरे, रोज फोन पर कितना बात करती हो तुम…
क्या करूं उनके अनुसार ही जीवन जीना पड़ेगा, अब ससुराल ही तो मेरा असली घर है ना माँ.
श्वेता सोनी
# बेटी अब ससुराल ही तुम्हारा घर है…..