बेजा बोझ… -रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi

“लो माधवी… हो गई रिटायर्ड तुम…!” 

रमेश जी जमीन पर निर्जीव पड़ी अपनी पत्नी के पास बैठ उसका सर सहलाते हुए आंखों में आंसू भरे रुंधे गले से बोले…” तुम्हें बैठकर रहना पसंद नहीं था ना… लेकिन रिटायर होना था… इस बुढ़ापे में मुझे अकेला छोड़… मेरी जिम्मेदारियों का त्याग कर… हो गई रिटायर्ड तुम…!”

 अभी कल ही की तो बात है माधुरी जी अपने पति से उलझ रही थीं…” क्या सोचकर इतना बड़ा घर आंगन बनवा रहे थे… आप बूढ़े हो रहे हैं और मैं जवान… मुझसे नहीं होता यह सब… आप ही सोचिए… आप अगर सत्तर के हुए तो पैंसठ की मैं भी तो हुई… इतना हर चीज का रखरखाव… टाइम टेबल फॉलो करना… कैसे संभव होगा… आपको रिटायर हुए दस साल हो गए… मैं कब रिटायर हूंगी… कभी सोचा है… मुझे भी अपने कार्यों से रिटायर होना… मुझे भी आराम करना…!”

  “अरे माधवी तो करो ना… किसने कहा तुम्हें काम करने को… खुद ही ना दिन भर लगी रहती हो… दूसरे का बनाया खाना पसंद नहीं आता… काम वाली समय से ना आए तो चिढ़ जाती हो… तो इसमें मेरी क्या गलती… बेटे के पास जाकर दस दिन में ऊब जाती हो… घर जाना…यहां वापस आने की रट शुरू कर देती हो…और वहां भी किचन तुम छोड़ती कहां हो…!”

” आपकी ही गलती है… इतना बड़ा घर आंगन… साज सजावट करने को किसने कहा था… जीते जी इसे छोड़कर कहां जाऊं मैं… और फिर कहीं जाने से आपके खाने पीने के समय का प्रबंधन भी बिगड़ जाता है…!”

माधवी जी समय की बहुत पाबंद थीं… सुबह उठने से लेकर नहाना, खाना, चाय, अपना ही नहीं रमेश जी का भी बिल्कुल समय पर करती आई थीं… प्रबंधन इतना जबरदस्त था कि रिटायरमेंट के 10 सालों के बाद भी रमेश जी बिल्कुल तंदुरुस्त थे… 

सुबह के नाश्ते से लेकर… रात के खाने और सोने तक के समय में कभी कोई परिवर्तन माधवी जी के रहते संभव नहीं था… यहां तक कि अगर कहीं बाहर जातीं तो वहां भी इधर-उधर देरी देखी तो खुद किचन संभाल लेतीं…तभी तो उनका कहीं भी मन नहीं लगता था… और जब कभी अपने दिनचर्या से ऊब जातीं… तो चार बातें अपने पति रमेश जी को सुना कर अपना जी हल्का कर लेतीं…

 एक बेटा एक बेटी थे दोनों अपनी-अपनी गृहस्थी में लगे हुए… बेटे के बहुत बुलाने पर एक बार गईं भी तो दस दिनों में वापस लौट आईं…बेटे बहु को साफ कह दिया… जब तक मेरे हाथ पैर चलते हैं… मैं यहां बैठकर नहीं रह पाऊंगी… अपना घर आंगन खेती बाड़ी है… उसे छोड़कर मेरा कहीं जी नहीं लगता…

 माधुरी जी इस उम्र में भी दिन-रात मेहनत करतीं… बस काम काम काम… उन्हें हर काम, घर ,खाना ,सब समय पर और परफेक्ट चाहिए था… बुढ़ापे की असर से अब शरीर ने बगावत शुरू कर दिया था… तो उसकी झुंझलाहट जरूर उतारतीं… पर अपनी दिनचर्या में कोई सुधार नहीं लाती थीं… अपने लिए जीना… टहलना… मस्ती करना… आराम करना… तो जैसे उन्होंने सीखा ही नहीं था… इसलिए बच्चों के पास कभी उनका मन नहीं लगता था… और बच्चे भी उनकी बार-बार की टोका टाकी से परेशान हो जाते थे…

 कल तक जिस घर आंगन… खाना पीना… दिनचर्या… पति की सेवा… के लिए माधवी जी परेशान हो रही थीं… आज अचानक सबको जस का तस यूं ही छोड़… सुबह चाय की चुस्कियों के साथ… जीवन को अलविदा कह गईं…

 सुबह की चाय पीने के बाद मन भारी लग रहा था… रमेश जी से बोलीं…” अभी नाश्ते में थोड़ा समय है… मैं जरा आराम कर लूं… जी भारी लग रहा है…!”

 और यह आराम कब चिरनिद्रा में बदल गई… यह कोई नहीं जान पाया… नाश्ते का समय हो गया… रमेश जी माधुरी को किचन में न पाकर ढूंढते गए तो वह निर्जीव पड़ी थी… अपनी समस्त जिम्मेदारियों से एक झटके में पल्ला झाड़…

 सभी क्रिया कर्म संपन्न हो जाने के बाद… बेटे नवल ने पिताजी से साथ चलने का आग्रह किया… तो बहू नव्या भी बोल पड़ी…” पापा जी… मां की तरह समय से तो नहीं कर पाऊंगी… पर करने का पूरा प्रयास करूंगी… चलिए हमारे साथ… हम इस तरह आपको अकेला नहीं छोड़ सकते…!”

 रमेश जी मना नहीं कर पाए…माधवी के बिना उस घर में रहना उनके लिए भी संभव नहीं था… जिस घर आंगन के लिए माधवी जी अपने सुखों की परवाह नहीं करती थीं… उसमें बड़ा सा ताला लगा… रमेश जी बेटे बहू के साथ भोपाल आ गए…

 यहां घर तो इतना बड़ा नहीं था… पर बेटे बहू और पोते पोती का सहयोग भरपूर था… रमेश जी सभी सुख संसाधनों का उपभोग करते… बच्चों के साथ खुशी से अपना जीवन बिताने लगे… हां मन में एक टीस जरूर थी… कि इस बुढ़ापे में जो सुख मैं भोग रहा हूं… वह मेरी माधवी भी भोग सकती थी… पर अपनी जिद और जिम्मेदारियां के बेजा बोझ के भीतर दबकर उसने अपनी जान दे दी……!

स्वलिखित

रश्मि झा मिश्रा

 कुछ लोगों को लगता है कि मेरे बिना कोई काम नहीं हो सकता… मैं ही करूंगी या करूंगा तभी होगा… पर सच यह नहीं है… जिंदगी हो या काम… कभी किसी का इंतजार नहीं करते… हां हर इंसान परफेक्ट नहीं होता… कुछ ना कुछ कमी होती है… वह आपकी तरह कायदे से किसी कार्य को संपन्न नहीं कर पाएगा… पर अवसर आने पर करेगा जरूर… इसलिए मेरी यह गुजारिश है कि जिंदगी की खूबसूरती का आनंद लें… बेजा कर्तव्य के बोझ से दबकर… अपनी जिंदगी स्वाहा ना कर लें… वरना आप तो चले जाएंगे… आपके अपने इस मलाल में ही जिएंगे कि आपने यह सुख नहीं पाया…!

 आपको क्या लगता है जरूर बताइए……!

#बुढ़ापा

2 thoughts on “बेजा बोझ… -रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi”

  1. Very nice actually. Specially home maker females ki koi retirement nhi hoti.Bus apni age k saath duties ko set karna hota hai. Agar kaam zaroori hai to araam bhi zaroori ho jaata hai aging k saath

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