पंकज सात भाईयों के बीच में सबसे छोटा बेटा था।पढ़ाई में मन लगता नहीं था,तो एक दुकान में जाकर काम करने लगे थे।कोठी बड़ी थी।सभी भाईयों के कमरे अलग-अलग थे।पंकज सारा दिन भटकता रहता था।खाना मांगने पर खुद की मां कुमाता बनकर कहती”कब तक मूंग दलेगा हमारी छाती में?इन सारे बच्चों के पिता कमाते हैं, जिम्मेदार हैं।तू तो ना कभी कोई काम कर पाएगा,ना ही तेरा बाकी भाईयों के साथ रिश्ता रख पाएगा।पहले कुछ कमाना सीख ओए निठल्ले।”
पंकज को अब बुरा नहीं लगता।मां ही तो है ना आखिर।रोज़ कभी किसी भाभी के पास ,कभी किसी के पास खाना मांगकर वह खा लेता था।बड़ी भाभी तो रोटी की थाली भी ऐसे देती थी,जैसे कुत्ते को दे कोई।मंझली भाभी अपने पति के हांथ से थाली भिजवा देती थी।छोटी भाभी जरा दूर रहती थी।छोटे भाई की कद काठी पंकज जैसी ही थी।छोटी भाभी अपने पति के कपड़े धोकर दे देतीं थीं उसे।सर पर पल्लू डालकर आदर से खाना खिलाती थी वह।
पंकज कभी किसी दुकान तो कभी किसी दुकान में काम कर अपना गुजर कर लेता था।उम्र तो हो गई थी शादी की।एक लड़की(विजातीय)से शादी करने की इच्छा जताई घर में,तो मां बरस पड़ी “तुझ जैसे निठल्ले के साथ कोई मूर्ख ही ब्याह करेगी।सारे भाईयों को चिल्लाकर दालान में बुला कर ला।आज मैं अपना आखिरी फैसला सुना देना चाहती हूं।तुझे एक फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी जायदाद से।मैं समझूंगी मेरे छह बेटे हैं।”
पंकज को मां सही ही लगी।नाकारा बेटे को क्यों दे भला कुछ।ठीक ही तो है।अपने भाईयों की भीख पर पला हूं।शादी करते ही बीवी के साथ अपने घर मत्था टेकने आया,तो मां ने जली कटी खूब सुनाई पत्नी को।उसे भी घर से निकाल दिया।पंकज को मां से इतने बुरे व्यवहार की अपेक्षा नहीं थी,पत्नी के साथ।
चुपचाप हवेली नुमा घर को ऊपर से नीचे तक देखा।मत्था टेका।सभी बड़ों को प्रणाम किया,और पत्नी के साथ निकल आया घर से बाहर।उसकी पत्नी ने एक किराने की छोटी सी दुकान खोल ली। धीरे-धीरे दुकान बढ़ने लगी।
इस कहानी को भी पढ़ें:
पांच साल होने को आए,अभी तक पंकज और उसकी पत्नी को बच्चे का सुख नहीं मिल पाया।एक दिन पत्नी(निशा)ने पंकज से कह ही दिया”,आप दूसरी शादी कर लीजिए।एक बच्चे के बिना हमारी खुशियां अधूरी है।मैं खुशी-खुशी उसे अपना बच्चा समझकर पाल लूंगी।बच्चा आ जाने से आपके घर वाले आपको वापस बुला लेंगे।आपके बच्चे का भविष्य हमारे पास रहकर नहीं बन सकता।”
पंकज ने कड़े शब्दों में कहा”खबरदार ,जो दोबारा ऐसी बात की।मैं जीते जी किसी और से शादी कर ही नहीं सकता।तू चुप कर।”
उसी शाम गली के अंत में झाड़ियों के पीछे एक छोटे से बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी।पंकज तो वहां जाने को भी राजी नहीं था,पर निशा ने जोर दिया।दोनों उस आवाज के पीछे पहुंचे।एक नवजात बालक शिशु हरी चादर में लिपटा था।
पंकज और निशा ने देरी ना करते हुए,उस बच्चे को सीने से लगा लिया।पड़ोस के घरों में बच्चे को लाते ही ताने शुरू हो गए ।पंकज और निशा ने बाकायदा पुलिस के पास पहुंच कर कानूनी तरीके से उस नवजात को अपना बेटा बनाया।उस नवजात ने परिवार की काया पलट दी।जो पंकज अपनी जरूरतों के लिए इस दरवाजे उस दरवाजे घूमा करता था,आज वही एक बड़े से मॉल में काम पर लग गया।पंकज का बेटा(नीरज) अब दसवीं में पढ़ने लगा था।स्कूल से आकर पापा के साथ दुकान पर ही बैठता।बहुत ही सज्जन और सरल मन का था नीरज।
दादी के घर की ओर टकटकी लगा कर देखता ,तो पंकज जी समझाते”देख अब हमारा इस घर में कोई नहीं।सबने अपना आखिरी फैसला सुना दिया है।अब हमें उस घर की चौखट भी नहीं लांघनी चाहिए।तू गुरुद्वारे में जा ,वहां दादी होंगी ,दूर से देख लेना।”
समय पंख लगाकर उड़ रहा था,साथ में उड़ रहे थे ऊपर वाले के मेहर।पंकज की पत्नी का मायके आना जाना होता था।पंकज भी खास मौकों पर चला ही जाता था।इस बार निशा की मां की मौत पर गए जब दोनों,हफ्ते भर रहे।पंकज उन्हें अपनी मां ही मानता था।सब काम निपटने के बाद घर पहुंच गए पंकज,निशा और नीरज।नीरज अब अठारह साल का बेटा था।
एक महीने में ही निशा को उसके भाई ने बताया,”निशा,मां ने बहुत सारी जमीन खरीद कर रखी थी।तेरे नाम से भी ली थी।हम सभी की जमीन कालरी लेकर नौकरी देने वाली है।निशा को तो जैसे विश्वास ही नहीं हुआ।पंकज को पता चला तो अपने भाई कमल के पास गया।कमल ने कंपनी से आए
कागजात देखकर उसे विश्वास दिलाया कि,नानी की जमीन पर निशा के नाम की जमीन का अच्छा मुहावजा ले लो,या नौकरी।”
इस कहानी को भी पढ़ें:
अपना घर अपना घर होता है – वीणा सिंह : Moral Stories in Hindi
पंकज खुशी के मारे बांवरा नहीं हुआ।अभी से नीरज को याद दिलाना शुरू किया कि हमारे बुरे वक्त में जिसने भी हमारा साथ दिया।हमारे साथ अच्छा बर्ताव किया,उन्हें हमेशा इज़्ज़त देना।बस पंद्रह दिन और बचें हैं नौकरी ज्वाइन करने में।कमल ने कहा”
ऊपर वाले ने अपना हिसाब बराबर कर लिया।सबके आखिरी फैसलों से टूटते हुए पंकज की किस्मत का आखिरी फैसला ऊपर वाले के द्वारा हुआ।एक बेदखल बच्चे को नौकरी दिलाकर ऊपर वाले ने उससे छीना हर खुशी का पल उसे ब्याज सहित दिया।उसे अब किसी से भीख की तरह खाना नहीं मांगने पड़ेगा। ईश्वर का फैसला ही आखिरी होता है,जो हमेशा न्यायपूर्ण ही होता है।
शुभ्रा बैनर्जी