बेचारे मूलचंद जी –   विभा गुप्ता: Moral Stories in Hindi

 बालक मूलचंद जब स्कूल जाते थे..अपने मित्रों को अपने पिता से हठ करने की बातें सुनते तो उनकी ही बड़ी इच्छा होती थी कि वो भी हठ करने का स्वाद चखे।बस.. एक दिन अपने पिता से हठ कर बैठे कि दो पहिये की साइकिल चाहिये ही वरना स्कूल नहीं जाऊँगा।जवाब में पिता सिर पर एक चपत लगाकर बोले,” बित्ते भर का तो है…साइकिल चलाया और जो तेरी टाँग टूट गई तो…।” तपाक-से माताजी ने भी उनका समर्थन किया,” और क्या…लड़का है..हाथ टूट गया..आँख फूट गई तो तेरा ब्याह कैसे होगा..।” थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने अपने मन का विषय लेना चाहा तो पिता ने उन पर अपनी मर्ज़ी थोप दी..कभी बालों को नया लुक देना चाहा तो माताजी ने बालों में कटोरी भर के तेल उड़ेल दिया और इस तरह वे कभी भी अपने मन की नहीं कर पाये..उनकी सारी इच्छाएँ मन में ही दबकर रह गई।

       अपनी माताजी को पिता की हाँ में हाँ मिलाते हुए उन्हें एक बात तो समझ में आ गयी थी कि पत्नी हमेशा अपने पति की बात मानती हैं और उन्हें तसल्ली हो गई कि भविष्य में जो भी लड़की उनकी पत्नी बनेगी वो उनकी हर बात का समर्थन करेगी।

       समय बीतने लगा और जब मूलचंद जी नौकरी करने लगे तब उनके पिता ने एक सुशील कन्या के साथ उनका विवाह करा दिया।अब नयी पत्नी कुछ डिमांड करे तो उसे पूरा करने में पति को आनंद तो आयेगा ही।मूलचंद जी के साथ भी ऐसा ही हुआ।लेकिन चार -छह महीनों के बाद जब पत्नी की किसी काम को उन्होंने टालना चाहा तो पत्नी ने आँखें दिखा दी।उस दिन के बाद से बेटे का नाम रखना हो या स्कूल में एडमिशन कराना या फिर बेटी की ड्रेस पसंद करनी हो, उन्होंने पत्नी की इच्छा को ब्रह्मइच्छा मानकर पालन करना अपना धर्म समझ लिया।

      एक दिन की बात है, नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले उनके बेटे ने उनसे मोबाइल फ़ोन की फ़रमाईश कर दी।उन्होंने कह दिया,” अभी फ़ोन लेकर क्या करोगे…जानते हो ना कि नौवीं- दसवीं की पढ़ाई करना कोई बाँयें हाथ का खेल नहीं है।” पत्नी वहीं खड़ीं थीं, चट-से कह दिया,” आपके लिये कठिन थी तो क्या सबसे लिये..।कल ही मनु को फ़ोन दिला दो वरना कह देती हूँ…।”

      ” कुछ न कहो…कल क्या..आज शाम को तुम्हारे बेटे को ले जाकर..।” कहते हुए बेचारे मूलचंद जी अपने दफ़्तर को रवाना हो गये।वहाँ जाकर उन्होंने सांत्वना की आस में साथ बैठे अपने सहकर्मी को दुखड़ा सुना डाला।सांत्वना तो उन्हें भरपूर मिली लेकिन उस दिन के बाद से साहब से लेकर चपरासी तक ने उनकी बातों को अनसुना करना शुरु कर दिया।वे कहते,” भाई..काम को पेंडिंग रखना ठीक नहीं है।” जवाब मिलता,” तो आप ही पूरा कर दीजिये।” वे कहते,” फ़ाइल,ज़रा जल्दी लेकर आओ।” कान खजुआता चपरासी कहता,” हम तो अपनी गति से ही लेकर आयेंगे…आपको जल्दी है तो खुद ही लेकर आ जाइये।”

      उनके बच्चे बड़े हो गये..बेटा नौकरी करने लगा…बेटी का ब्याह कर दिया।अपने मित्रों से उन्होंने सुन रखा था कि बचपन में बच्चे चाहे जितनी अपनी मनमानी करे लेकिन बड़े होने पर माता-पिता की ही सुनते हैं…बहू भी बहुत सेवा करती है और पत्नी…मत पूछिये साहब..रिटायरमेंट की लाइफ़ बड़े मज़े से कटती है।बस ..उन्होंने भी सेवानिवृत्त होने से पहले बेटे का विवाह भी कर दिया।

        ढ़लती उम्र में इधर-उधर दर्द होना और खाँसी-जुकाम तो आम बात होती है।मूलचंद जी अपच होने पर दो से तीन बार….चले जाते तो बस बहू उन्हें गीला भात परोस देती।गुस्सा करते तो पत्नी बहू का ही पक्ष लेकर कहतीं,” जो मिल रहा है..चुपचाप खा लो…खाली बैठकर फ़रमाइश करना बहुत आसान है..वो(बहू) बेचारी क्या-क्या करे और मुझसे अब..।” मूलचंद जी चुप रह जाते।

       समय बीता और मूलचंद जी उम्र भी पचहत्तर की हो गई।पत्नी तो यह कहकर कि मैं तो चली..आप अपना देख लो..स्वर्ग सिधार गईं..बेटे-बहू के बीच वो रह गये अकेले..।एक दिन बहू ने थैला और लिस्ट थमा दिया कि सामान ले आइये।उन्होंने इतना ही कहा कि बाद में लाने से…।बेटा बोला,” क्या पापा…आपकी उम्र के लोग तो क्या-क्या कर रहें हैं और आप हैं कि…थोड़ा एक्टीव होइये..चुस्त-दुरुस्त…।”

     बेचारे मूलचंद जी…नहीं कह पाये कि बेटा..हम चुस्त-दुरुस्त न रहते तो तुम यहाँ तक कैसे पहुँचते।पिता की घुड़की खाते-खाते बड़े हो गये…तुम्हारी माँ की सुनते-सुनते बूढ़े..और अब तुम..वाह री मेरी किस्मत! वो चुपचाप थैला उठाकर बाज़ार के लिये प्रस्थान कर गये।

                         विभा गुप्ता

                          स्वरचित 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!