घर जाकर मैंने पीली साड़ी के लिए पूरा घर सिर पर उठा लिया। माँ के पास तीन चार पीले रंग की साड़ी थी, सब एक से बढ़कर एक। उस दिन मुझे एक भी साड़ी पसंद नहीं आई।
“चल बाजर चल कर ही ले आते हैं साड़ी और गजरा भी ले लेना, सुंदर लगेगी।” माँ ने कहा था।
मैं तो खुशी से झूम ही उठी थी क्यूँकि मैं भी गजरा के लिए कहना चाहती थी, जोकि माँ खुद ही कह कर मेरा काम आसान कर दी थी।
बाजार में घूमते हुए कई दुकानों में साड़ियों को देखने के बाद मेरी नजर एक शिफान की धागे की कढ़ाई में पीली साड़ी पर गई। उस साड़ी की रौशनी मेरी आँखों को खींच रही थी, जैसे कि वह कह रहा हो, “यही तुम्हारा है!” जब मैंने उसे देखा तो मुझे श्रीदेवी की याद आ गई। वह साड़ी मेरे मन को छू गई, और एक क्षण के लिए मैं खुद को श्रीदेवी समझ कर शरमा रही थी और लग रहा था कि वो भी यही कहीं मुझे देख रहा है।
क्या दिन थे वो भी.. कहकर वर्तिका उन दिनों में खोकर चुप हो गई।
वर्तिका के चुप होते ही सौम्या अधीरता से पूछने लगी, “फिर क्या हुआ मम्मा.. उनका नाम क्या थ?।”
वर्तिका अपने आप में खोई केवल हूं हूं कर रही थी… उसके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान थी। उसकी आँखों में एक अन्तरंग दुनिया की ओर एक नए सफर का आदान-प्रदान दिख रहा था। उसकी मुद्रित भावनाऍं जैसे कि सोच, सपने और आत्मा का संगीत, उसका चेहरा एक आत्म-अन्वेषण की गहराइयों में डूबा हुआ था, मानो वह खुद के साथ मिली हुई सत्य की खोज कर रही थी। वह खुद की सीमा को पार कर रही थी और अपनी अंतर्दृष्टि के साथ एक नए आत्म-पहचान की ओर बढ़ रही थी।
“बताओ ना माँ.. क्या नाम था उनका।” सौम्या अतीत में खोई हुई वर्तिका को झकझोरती हुई कहती है।
“कुछ बोला तुमने बेटा।” वर्तिका सौम्य के झकझोरने पर वर्तमान में आ जाती है।
“ओफ्फो माँ.. क्या नाम था उनका.. कब से पूछ रही हूँ मैं।” सौम्या अपने सिर पर हथेली मारती हुई कहती है।
सुधीर बेटी की अधीरता देखकर अब मुस्करा रहे थे, “तो बेगम नाम तो कुछ होगा ना उनका। तब से वो वो ही कर रही हैं आप। वो वो तो नाम नहीं था ना आपके उनका।” सुधीर उठ कर बैठते हुए वर्तिका से कहते हैं।
“जिनसे हमारी ज़िंदगी की शुरुआत होती है, उनके नाम में क्या रखा है।” वर्तिका ने एक गहरी साॅंस के साथ यह कहा। उसकी आवाज़ में एक अद्भुत संवेदनशीलता थी, जैसे कि वह अपने जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर रही थी। उसकी आवाज़ सुनने वालों को उन बुने हुए रिश्तों की महक और उस आरंभिक समय की मिठास में ले जा रही थी।
“माँ.. अभी भी”.. सौम्या अपनी ऑंखें बड़ी करती हुई कहती है।
“पहला प्यार भुलाए नहीं भूलता”.. सुधीर सौम्या की ओर झुक कर बैठते हुए कहा।
“पापा आपको ये सब मालूम था, पर आप लोगों के समय में तो”… सौम्या का चेहरा आश्चर्य से भरा हुआ था।
“तुम्हारे साथ ही तो बैठा सुन रहा हूँ बेटा।” सुधीर बेटी के सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं।
“आगे क्या हुआ माँ, आपने गजरा लिया।” सौम्या की व्यग्रता देखने लायक थी।
“हाँ.. ले लिया था। अब फिर कभी, दोपहर के खाने की तैयारी करुँ।” वर्तिका बात समाप्त करने की चाह में उठ खड़ी हुई।
“नहीं, अब पूरी कहानी सुना कर ही उठोगी आप। मेरे पेट में उबाल आता रहेगा। मैं लंच के लिए आॉमलेट बना कर ब्रेड रोस्ट कर दूँगी, चलेगा ना पापा।” सौम्या वर्तिका को यथास्थान बिठाने के लिए हाथ पकड़े पकड़े सुधीर से कहती है।
सुधीर मुस्कुरा कर कहते हैं , “ऐसी प्रेम कहानी रोज सुनने को मिले तब तो रोज खाऊँ ब्रेड आॉमलेट।”
“सुनाओ ना वर्ती”.. वर्तिका से बोल कर सुधीर सोफे के पीछे सिर लगा कर आराम की मुद्रा में बैठ गए।
“फिर हमने गजरा लिया, थोड़ी और खरीदारी कर हम घर आ गए। बाकी सौंदर्य प्रसाधन माँ रखती ही थी।
मैं तो हवा में उड़ रही थी। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ये सब मेरे साथ हो हो रहा है। स्कूल के सबसे स्मार्ट और जहीन बन्दे ने और उससे भी बड़ी बात जिसे मैं पसंद करती हूँ…उसने मुझसे ऐसा कहा।” वर्तिका मगन होकर कहानी आगे बढ़ा रही थी। उसकी आवाज में उत्साह था, मानो वह फिर से स्कूल के उन दिनों में पहुॅंच गई थी, जो उसके लिए सुनहरे दिन के समान थे। जो आज भी उसके दिल में ताजगी लिए बयार की तरह बह रहा था।
मैं जी जान से सुन्दर लगने की कोशिश में लगी थी। पता नहीं मैंने क्या क्या लगाया था चेहरे पर। बालों के लिए तरह तरह के स्टाइल बना गजरा लगा कर देख लिया था। लम्बे बालों में चमकता हुआ गजरा मोहक लग रहा था। और जब मैंने मिरर में देखा, तो मुझे खुद पर गर्व हुआ। उस गजरे ने मेरे चेहरे को नई चमक दी थी, जिसे मैंने भी कभी नहीं देखा था।
माँ हँस रही थी और कह भी रही थी, “ये सब करने की जरूरत नहीं है.. तू ऐसे भी सुन्दर लगेगी।” माँ की हँसी में मासूमियत और प्यार छुपा हुआ था, जो मेरे स्वाभाविक सौंदर्य को स्वीकृति देने का एक रूप था। माँ मुझे यह सिखा रही थीं कि हमें अपनी स्वाभाविकता में सुंदरता मिलती है और हमें खुद को स्वीकृत करने की आवश्यकता है। लेकिन उस समय मैं किसी और लोक में उड़ रही थी। बस खुद को बेहतर बनाने की मुहिम में लगी हुई थी।
“अब एक रात में कोई दर्जी ब्लाउज बना कर देता नहीं तो माँ ने पूरी रात जग कर ब्लाउज बनाने में लग गईं। कर तैयार कर दिया था। माँ की कठिनाइयों के बावजूद उनका समर्पण और मेहनत मेरे लिए एक अनमोल उपहार बन गया था। उनकी मेहनत ने नए रंग, रूप, और स्टाइल के साथ मेरे लिए ब्लाउज बना दिया। वह रात का समर्पण और प्रेम, जो माँ की बनाई गई हर सिलाई की कड़ी के माध्यम से मेरे साथ था, वह एक अनमोल अनुभव था जो उन्होंने मेरे साथ साझा किया था।”
“और जब वह ब्लाउज तैयार हुआ, मैंने माँ की मेहनत का सच्चा मूल्य जाना। वह पूरी रात जागकर, नींद की परछाई छोड़ते हुए, मेरे लिए एक अद्वितीय बनावट को अंजाम देने में लगी थीं। उनकी हर सिलाई मुझे एहसास कराती थी कि वह मेरे लिए कुछ खास कर रहीं हैं और उनका प्यार उस ब्लाउज में महसूस होता था। उनकी मेहनत ने मेरे जीवन में एक और सुंदर याद बना दी, जिसे मैं हमेशा सराहूँगी।”
सुबह के लिए सब कुछ तैयार कर मैंने रख दिया। दस बजे तक सभी को स्कूल पहुँच जाना था।
मैं पाँच बजे ही जग गई या यूँ कहो खुशी के मारे नींद नहीं आई। उस सुबह का समय ऐसा था जब उत्साह से लबरेज मेरी आत्मा भी जाग गई थी और यह एहसास किया कि इस दिन मेरे लिए कुछ खास होने वाला है। खुशी ने मेरे चेहरे पर मुस्कान बिखेरी और नींद ने अपनी जड़ें छोड़ दी।”
अति उत्साह का आलम यह था कि मैंने माँ को भी जगा दिया। माँ गुस्सा भी हुई कि “अरे अभी से तैयार होकर क्या करेगी।” पर मैं कहाँ मानने वाली थी.. मेरे पापा .. तुम्हारी मौसी, मामा सब मुझे घूर रहे थे क्यूँकि मेरे हंगामे के कारण सबकी नींद खराब हो गई थी। उस उत्साह और खुशी में मैंने सभी को मेरे उत्साह में शामिल कर लिया था। माँ की गुस्से भरी आँखों के बावजूद मैंने अपने उमंग को बनाए रखा। मुझे कहाँ परवाह थी किसी बात की उस समय। सिवाय इसके की सुन्दर और स्मार्ट दिखने में कोई कसर ना रह जाए।
मम्मी ने मुझे बहुत ही सुन्दर तरीके से तैयार किया। बंगाली शैली में साड़ी बाँधी थी मम्मी ने। बालों का ढ़ीला जूड़ा बना गजरा लगाया था। मेक अप बहुत कम नाममात्र का किया। बस काजल और लिपस्टिक इतना ही… तैयार कर मम्मी ने कहा अब आइने में देखो।
मम्मी का ड्रेसिंग सेन्स गजब का रहा है और मेरी इसमें बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं थी। जैसे ही मैंने खुद को आइने की नजर से देखा… ये कौन है.. सबसे पहले मन में यही कौंधा। मम्मी की देखभाल और शैलियों का उनका अनूठा अंदाज मेरे लिए रहस्यमयी ही रहा। उनका ड्रेसिंग सेन्स मेरे लिए एक नई दुनिया का दरवाजा खोलता था और कभी कभी मुझे लगता इतनी सुघड़ माॅं की मेरी जैसी संतान कैसे, माॅं चपत लगाकर कहती जैसे सारी उंगलियां बराबर नहीं होती, वैसे ही सभी इंसान भी समान नहीं होते हैं।
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बारिश का इश्क (भाग – 3) – आरती झा आद्या: Moral stories in hindi
आरती झा आद्या
दिल्ली