hindi stories with moral : ‘चलो बेटा अब घर चलते हैं। तुम्हारे बापू भी तुम्हारा रास्ता देख रहै होंगे।’ गोमती ने कृष्णा से कहा। ‘नहीं मॉं कुछ देर और बैठते हैं ना देखो यहाँ कितने सुन्दर-सुन्दर घर हैं।पता है माँ, यहाँ सबके अपने अलग-अलग कमरे होते हैं, हमारे यहाँ तो बस रसोई और एक कमरा है, सब वहीं रहते हैं, सोते हैं। कितना अच्छा होता ना कि हमारा मकान भी इतना बड़ा होता।’
गोमती को उसकी मासूम बातों पर प्यार आ रहा था। वो मुस्कुरा कर बोली ‘तुझे ऐसा घर चाहिए, तो तू भगवान से प्रार्थना कर। भई मुझे तो अपना घर बहुत अच्छा लगता है। देख बेटा तेरे बापू, तेरी रजनी दीदी, रामू और तू जब मेरे साथ रहते हो ना तो मुझे मेरा घर स्वर्ग जैसा लगता है। अब चल भी जब तक तेरा महल जैसा घर तुझे नहीं मिलता, तू मेरे साथ घर चल।’
गोमती और कृष्णा को इस बात का एहसास भी नहीं था कि कोई उनकी बातें सुन रहा है। कृष्णा गोमती और सोमेश्वर की सबसे छोटी लड़की थी। बहुत ही खूबसूरत थी। वह दस साल की थी, वह रोज शाम को अपनी मॉं के साथ संद्या के समय इस बगीचे में आती थी कुछ देर झूला झूलती, फिसल पट्टी पर फिसलती और फिर माँ से बाते करती।
आज जब गोमती और कृष्णा बात कर रही थी तो विजय बाबू उनकी बातें बड़े ध्यान से सुन रहैं थे। वे सोच रहै थे कि गोमती को उसके छोटे से घर में जाने की जल्दी थी, कितनी खुश थी वह। और एक वह है घर जाने की उसकी इच्छा ही नहीं होती है, कौन है घर पर जो उसका इन्तजार करें।जिस आलीशान भवन, भौतिक सुखों की चाह में वह जीवन भर दौड़ता रहा आज सब कुछ है उसके पास। गाड़ी, चार मंजिला बंगला, ऐशो आराम की वस्तुऐं मगर….
क्या वह कह सकता है कि घर में रह रहा है? क्या सुन्दर सजावटी बंगला घर कहलाता है? आज तीन बेटे हैं तीनों एक ही छत के नीचे रहते हैं। अपनी – अपनी मंजिल में अपने परिवार के साथ मस्त। महिनों हो जाते हैं उनसे बातें नहीं होती। रात का अंधेरा घिरने लगा था, और हवाऐं भी ठंडी हो गई थी। ऑंखों की कोरों में आई बूंदे उसने रूमाल से साफ की, ऐनक लगाई और भारी मन से चल पड़ा उसके बंगले की ओर।
यह तो अच्छा था कि विजय बाबू अभी नौकरी से सेवानिवृत्त नहीं हुए थे। दिन तो आसानी से कम्पनी में कट जाता। मगर रात….। पत्नी के देहांत के बाद वे बिलकुल अकेले रह गए थे। मन बहलाने के लिए संध्या काल में वे बगीचे में चले जाते थे। आज कृष्णा और गोमती की बातें सुनकर वह सोचने पर मजबूर हो गया कि घर क्या है?
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कृष्णा और गोमती घर आ गए। रजनी, राजू और सोमैश्वर बाबू उनका रास्ता देख रहैं थे। फिर सबने मिलकर भोजन किया। रजनी बी.ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा थी। राजू बारहवीं में पढ़ रहा था और कृष्णा पॉंचवी कक्षा में पढ़ती थी। भोजन करके सबने कुछ देर बातें की रजनी और राजू पढ़ाई कर रहैं थे। कृष्णा का स्कूल सुबह का था।
इसलिए उसने होमवर्क कर लिया था। वह सो गई। गोमती की ऑंखों में नींद नहीं थी वह कृष्णा को बड़े प्यार से देख रही थी, और सोच रही थी कि यह मासूम एक बड़े घर की चाहत रखती है, इसे क्या मालुम की इसके माता पिता ने इतने बड़े घर को छोड़कर, इस छोटे से मकान को अपना घर बनाया है, कभी इसे पता चल गया कि हम हमारा बड़ा घर छोड़कर यहाँ आए हैं तो इसे कितना दुख होगा। उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि “हे ईश्वर इसकी इच्छा पूरी करना।”
गोमती और सोमैश्वर बाबू ने अपनी पसंद से शादी की थी। सोमेश्वर बाबू का परिवार बहुत धनाड्य था, और एक धनवान लड़की को ही वे अपनी बहू बनाना चाहते थे। मोहन उनका इकलौ लड़का था। मोहन की जिद के कारण उन्होंने गोमती को घर में तो आने दिया। मगर हमेशा व्यंग्य बाणों से उसका दिल छलनी करते थे।
गोमती ने अपने पति से कभी कुछ नहीं कहा। मगर वह सब समझ रहा था।शादी के बाद एक वर्ष तक तो उसने सहन किया, सोचा शायद धीरे-धीरे, मम्मी- पापा उसे अपना लेंगे, मगर उनके रवैये में जरा भी सुधार नहीं हुआ, वह सभी काम अच्छी तरह से करती थी, व्यवहार कुशल थी, पर गरीब घर की होने के कारण वे दोनों हमेशा उसका तिरस्कार करते थे। सोमेश्वर जी पढ़े लिखे थे। उन्होंने एक कंपनी में नौकरी कर ली और अपनी पत्नी को लेकर किराये के मकान में आ गए।
उसकी कम आमदनी में भी गोमती ने अपने कौशल से गृहस्थी को सम्हाला। फिर तीन बच्चे हुए। वह मितव्ययी और मेहनती थी। सिलाई, कढ़ाई का काम करती थी और अच्छा कमा लेती थी।उसके ससुराल की हवेली से उसे अपना यह घर प्यारा लगता था, उसका मानना था कि घर ईंट पत्थर से नहीं परिवार के लोगों के प्यार और विश्वास से बनता है। सोचते सोचते उसे नींद आ गई। जीवन ऐसे ही चलता रहा। बगीचे में विजय बाबू कई बार इन्हें मिल जाते।
कभी -कभी आपस में कुछ बातें भी हो जाती थी। बी.ए. पास करने के बाद रजनी की शादी हो गई उसे बड़े बंगले की ख्वाहिश नहीं थी वह उसके घर पर खुश थी। कृष्णा बी.ए. प्रथम की पढ़ाई कर रही थी।वह अभी भी बगीचे में घूमने जरूर जाती थी। विजय जी अब सेवानिवृत्त हो गए थे। उनके चेहरे पर बुढ़ापे के साथ उदासी की लकीर भी साफ दिखाई देती थी। कृष्णा की सुन्दरता पर उसकी कक्षा में पढ़ने वाला इन्दर मोहित हो गया था।उसका परिवार बहुत धनवान था।
उसके माता- पिता ने विवाह के लिए मंजूरी दे दी। वे स्वयं सोमेश्वर बाबू के घर उनकी बेटी का हाथ मांगने गए । सोमेश्वर बाबू और गोमती को भी घर वर अच्छा लगा और शादी हो गई।कृष्णा के साथ ही एक अच्छी लड़की देखकर राजू का भी विवाह कर दिया।कृष्णा इतना बड़ा बंगला देखकर बहुत खुश थी।
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शादी के बाद सारे मेहमान अपने घर चले गए। इतना बड़ा बंगला और रहने वाले सिर्फ चार लोग। इन्दर की दो बहिने थी जिनकी शादी हो गई थी। वे भी अपने ससुराल चली गई। घर के सभी लोग आधुनिक विचारों के थे, अपने हिसाब से जीते थे। कोई रोक टोक नहीं। सास ससुर भी अक्सर पार्टियों में जाते थे।
इंदर अपने व्यवसाय में व्यस्त रहता। घर पर सारे काम काज करने के लिए नौकर चाकर थे। एक रविवार की छुट्टी होती तो वह कृष्णा के साथ रहता, कभी दोनों पिक्चर जाते कभी घूमने जाते। उस दिन कृष्णा को बहुत अच्छा लगता।सप्ताह के बाकी दिनों में वह अकेली बोर हो जाती। कभी-कभी सास ससुर से कुछ बातें हो जाती बाकी समय कैसे गुजारे संगीत सुने तो कितनी देर? टीवी भी देखे तो कितनी देर ?समय कटता ही नहीं था।
एक दिन उसे अपने पुराने दिनों की याद आई, तो वह उसी बगीचे में गई। उस बैंच पर जाकर बैठी जहाँ वह अपनी माँ के साथ बैठती थी। उसे लग रहा था माँ सही कह रही थी। सचमुच परिवार के लोगों के एक साथ रहने पर ही घर, घर लगता है।वह कुछ देर वहाँ बैठी रही और कुछ सोचती रही। तभी उसने देखा सामने से एक वृद्ध व्यक्ति आ रहे हैं। उसने उन्हें पहचान लिया, वे विजय अंकल थे,उनकी कमर झुक गई थी और हाथ में एक लकड़ी लिए हुए थे।
कृष्णा ने जाकर उनके पैर छूए। उन्होंने ध्यान से देखा फिर बोले-‘कौन कृष्णा बिटिया !कैसी हो?अब तो खुश हो ना बंगले में जाकर?’ ‘ हाँ अंकल सब ठीक है, मेरी इच्छा के अनुसार मुझे बंगला तो मिल गया, अब अपने प्रयास, और माँ की दी हुई शिक्षा से उसे घर बनाने की इच्छा है। आप आशीर्वाद दीजिये।’
विजय बाबू ने उसे दिल खोलकर आशीर्वाद दिया। उस दिन वह अपने ससुराल एक नए विचार के साथ गई थी। उसने दूसरे दिन सुबह अपनी सासु जी से कहाँ- ‘माँ मेरी एक इच्छा है। आप पूरी करेंगी ना?’ ‘हॉं बेटा बोलो क्या कहना चाहती हो?’ ‘मॉं मैं चाहती हूँ कि घर पर भोजन बनाने का काम मैं करूँ,अगर कुछ गलती हो तो आप मुझे सिखा देना। और कम से कम एक समय हम साथ में भोजन करें। ताकि हम आपस में मिलकर मन की बातें भी कर सके।
और कम से कम महिने में एक दिन हम साथ में घूमने जाए। माँ मुझे अकेलापन लगता है।’ विवेक जी जो कृष्णा की बातें सुन रहैं थे बोले -‘बेटा तुमने हमारे मन की बात कह दी। तुम्हारे काम में हम दोनों भी तुम्हारी मदद करेंगे।क्यों सुचित्रा मजा आएगा ना।’ सुचित्रा जी की ऑंखों में चमक आ गई थी।
उन्होंने आगे बढ़कर कृष्णा को सीने से लगा लिया। उस दिन शाम को इंदर घर आया तो उसने देखा सब भोजन के लिए उसका इन्तजार कर रहे हैं। उसे आश्चर्य तो हुआ पर वह कुछ बोला नहीं। उसे भोजन का स्वाद भी अच्छा लगा। वह बोला -‘माँ आज भोजन का स्वाद अच्छा लग रहा है।
‘ सुचित्रा जी ने कहा-‘ अच्छा तो लगेगा ही सही आज मेरी बहू ने बनाया है। ‘ कृष्णा ने कहा मैंने अकेले ने नहीं बनाया, माँ- पापा ने भी मेरी बहुत मदद की है। अब शाम का भोजन हम रोज साथ में करेंगे।’ इंदर ने कहा अरे वाह! ये तो बहुत अच्छी बात है मैं भी यही चाहता हूँ।’ सब बहुत खुश थे आज कृष्णा को वह बंगला घर लग रहा था।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
परम स्नेही, पुष्पाजी ! कहानी बहुत अच्छी लगी ! सुचित्रा ने तो अपना मकान को “घर” बना लिया ! मग़र “विजयबाबु ” क़्या अपने दुःख में ही मर जायेंगे ? उसका भी कुछ भला हो जाता ! आपकी यह कहानी पढ़ने से आँखे भर आयी ! परिवार के हर एक को प्रेरणा मिलती हैं ! खुब खुब शुभकामनाएं एवं अभिनंदन…!
Absolutely