बदसूरत कौन? – डॉ  संगीता अग्रवाल: Moral stories in hindi

क्या?तुझे घर से निकाल दिया रचित ने?वो ऐसा कैसे कर सकता है?ललित गुस्से से चिल्लाते हुए बोले।

सामने उनकी बेटी श्यामा मुंह लटकाए खड़ी थी,जब से उसकी शादी रचित से हुई थी,वो दुखी ही रहती थी,कभी दहेज को लेकर,कभी फूहड़ कहकर तो कभी कोई और कमी निकाल कर वो उसे तंग ही करता रहता था और इस की मुख्य वजह थी श्यामा का पक्का रंग।भले ही उसके फीचर्स काफी शार्प थे,बड़ी बड़ी मासूमियत से भरी आंखे,लंबे काले रेशमी बाल,छरहरा शरीर,लंबा कद पर रंग काफी काला था जो उसके सारे गुणों को ढक देता था।

एक बाप की नज़र से ललित ,अपनी बेटी श्यामा को देखता तो उसका दिल रो उठता था,कितनी मधुर भाषिणी है ये,हर काम में पारंगत पर ये सारे गुण अर्थहीन हो चले थे।

तभी उसकी बूढ़ी मां सुरेखा जी कमरे में आई और दुखी आवाज़ में बोली,इतिहास खुद को दोहराए न ऐसा हो नहीं सकता,बेचारी बच्ची को अपने ही पिता की गलतियों की सजा भुगतनी पड़ रही है।

ललित बिलबिला गया,क्या कह रही हो मां आप भी!!वो बौखलाते हुए बोला।

गलत कह रही हूं तो बता मुझे जो एक खूनी की सजा वो मेरी भी…उसकी आंखों में देखते हुई वो बोली।क्या दीपा की घायल आत्मा तुझे कभी माफ कर पाएगी?क्या उसने तुझे नहीं कोसा होगा?किस जुर्म की सजा काटी उसने ताउम्र? है हिम्मत  है तो बता??

ललित का मुंह लटक गया था।वैसे सही ही कह रही हैं मां,उसने,अपनी पत्नी दीपा को कितना रुलाया सारी जिंदगी? उस बेचारी का क्या दोष था सिर्फ ये ही तो कि वो काले रंग की थी,फिर वो तो ललित के पीछे नहीं पड़ी थी कि मुझसे शादी कर लो,बल्कि ललित ने उससे जिद करके शादी की थी।

ये सोचते सोचते…ललित का मन अतीत के गलियारे में विचरण करने लगा।

कितना बदमिजाज और गुस्सैल था वो अपनी जवानी के दिनो मे..कुछ जवानी का जोश,खुद को बड़ा समझने का दंभ और कुछ क्योंकि  एक दुर्घटना में उसकी आंखों की रोशनी छिन चुकी थी,इस वजह से दुनिया की उसे बेचारा कहने से उत्पन्न हुई चिढ़ के कारण,उसे सारी दुनिया से नफरत होती थी।

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ऐसे में एक दिन,उसकी जिंदगी ने आई दीपा,रोशनी की एक किरण बनकर, हवा का

हल्का सा मीठा झोंका बनकर जिसने उसके संतप्त दिल को छू लिया और उसपर ठंडक बन कर बरसी थी वो।

हुआ यूं कि ललित की मेड जिन्होंने उसे शुरू से पाला था,उन्हीं के हाथ का बना खाना वो खाता,उनसे कहानियां सुनता और उनके साथ दिन भर रहता क्योंकि उसकी मां सुरेखा तो हर वक्त मीटिंग्स,पार्टीज में बिजी रहती,एक बार बीमार पड़ गई और उनकी अनुपस्थिति में उनकी बेटी दीपा उसकी देखभाल को आई।

ललित बहुत बुरी तरह बिगड़ गया था और चीखा था उसपर…आइंदा!मेरे कमरे में घुसने की जुर्रत ना करना,कहकर उसे बेइज्जत कर निकाल दिया था उसने।

दीपा स्वभाव की बहुत शांत और सरल थी,जानती थी साहब देख नहीं सकते लेकिन दिल के इतने बुरे नहीं जितने वो बने रहते हैं,इसलिए चुप चाप पी गई उनका गुस्सा।अपनी मां से उनकी तारीफे सुन चुकी थी वो और फिलहाल उन लोगों की रोजी रोटी इससे ही चलती थी तो दूसरा कोई चारा भी न था।

लेकिन धीरे धीरे,उसके मधुर व्यवहार ने ललित का कठोर हृदय पिघला ही दिया।

अब वो दीपा को अपने पास आने देते,उनके काम भी करने देते।ललित की मां निश्चिंत थीं कि बेटे की समस्या निबट गई।जैसे की उसका कोई दोस्त नहीं था,वो चिड़चिड़ा हो चला था पर दीपा के साथ अब वो खुश रहना सीख रहा था।अक्सर उसे खिलखिलाते देखकर सुरेखा रिलैक्स हो जाती,उन्हें भी दीपा अच्छी लगने लगी थी।वो अपनी प्रतिभा से घर में सबका दिल जीत लेती।

छोटे से बड़े सारे काम दीपा ने अपने जिम्मे ले लिए थे।

एक बार ललित को बहुत तेज बुखार चढ़ा ,दीपा ने रात दिन उसकी सेवा की,उसका बुखार चैक करना,उसे दवाई पिलाना,उसके माथे पर पट्टियां रखना,उसका सिर सहलाने से लेकर उसे सूप पिलाना,उसका स्पंज करना भी।उसके इतने करीब रहते हुए,ललित ने पहली बार महसूस किया कि जैसे उसे भी दीपा से प्यार होने लगा है।

एक दिन मौका देखकर उसने ये बात दीपा के आगे रख दी।

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बुरी तरह चौंक गई थी वो और विनम्रता से उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया था उसने,साहब!आपको मेरे साथ अपने अकेलेपन का एक साथी मिला तो आपको भ्रम हो गया लेकिन मैं आपके लायक नहीं,आप मालिक हैं और हम नौकर…दो अलग पोल्स कभी मिल नहीं सकते।

तुम नहीं जानती दीपा!भावुक होते वो बोला,मैंने तुम्हें मन की आंखों से देखा है और वो कभी झूठ नहीं बोलती,वो मुझसे कह रही हैं कि तुम बहुत सुंदर हो…हमेशा मेरा साथ दोगी,एक साया बनकर मेरे साथ रहोगी।बोलो रहोगी न??

ललित ने दीपा का हाथ,अपने मजबूत हाथों में पकड़ लिया था और उससे अनुनय कर रहा था।

दीपा अवाक थी,कहां ये सुदर्शन नवयुवक जिसे वो दिल की गहराइयों से प्यार करने लगी थी लेकिन जानती थी अपनी सीमाएं,चांद सबको प्यारा है लेकिन मिल तो नहीं जाता सबको,उसे दूर से देखकर ही संतोष करना पड़ता है,उसने लाख मना करना चाहा पर ललित की रूमानी,दार्शनिक बातों के आगे उसकी हर दलील फीकी पड़ गई।

ललित की मां सुरेखा भी पहले पहल चौंकी थीं पर देखती थीं न आजकल की लड़कियों को जो सिर्फ उनकी दौलत हथियाने के लिए उनके लड़के की हमसफर बनती बाकी उससे कोई मतलब न होता और दूसरी तरफ ये दीपा,जो सच्ची जोगन बनकर अपना प्यार,समय और भावनाएं उनके नेत्रहीन ललित पर न्योछावर कर रही थी।

छोटे से, सादे समारोह में वो एक दूसरे के हो गए।खुशी खुशी दिन कटने लगे।ललित को जैसे दुनिया की सारी खुशियां मिल गई थीं।दीपा उसकी जिंदगी में सौभाग्य की लक्ष्मी बनकर आई थी।उसे बहुत बड़ा बिजनेस ऑफर मिला था ,तभी एक बहुत पहुंचे हुए डॉक्टर ने उसकी आंखों का ऑपरेशन करना सुनिश्चित किया।उन्हें कोई डोनर मिल गया था जिसकी आंखें ललित के लग सकती थीं।

ललित बहुत एक्साइटेड थे सबसे पहले अपनी जान से प्यारी पत्नी दीपा को देखने के लिए।उसकी मां सुरेखा और दीपा वहीं थीं,जब उसकी पट्टी खुली,उसने धीरे धीरे आंखे खोली…सामने दीपा खड़ी थी।

उसे देखते ही वो चिल्लाया…ये कौन बदसूरत औरत खड़ी है,इसे निकालो मां!मैंने कहा था कि मै सबसे पहले अपनी दीपा को देखूंगा।

दीपा के होंठ सिल गए,वो बुरी तरह आहत थी अपने पति की प्रतिक्रिया से,पिछले एक हफ्ते से वो कठिन उपवास पर थी पति की आंखों की सलामती के लिए,इस बात का सदमा सह नहीं पाई और बेहोश हो गई।

ललित को चिल्लाते और हाइपर होते देख,डॉक्टर्स ने दीपा को उसके सामने से हटवा दिया था क्योंकि उसकी आंखों पर भी बुरा असर हो सकता था इस बात का।

बाद में,सुरेखा ने बहुत समझाया था ललित को लेकिन फिर उसने दीपा की शक्ल नहीं देखी दोबारा।

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एक ही बात रटता रहा था वो,दीपा इतनी बदसूरत नहीं हो सकती।उसकी मां ने हजारों बार समझाया…उसका सिर्फ रंग डार्क है बाकी उसका दिल कितना उजला है ये उसे बताने की जरूरत नहीं है।

ललित ने एक न सुनी,वो दीपा से नफरत करने लगा था।उसकी मां रातों रात बूढ़ी होने लगी थी।इससे तो ये हमेशा अंधा ही रहता, ऐसी आंखों का क्या फायदा जो आदमी किसी की असली खूबसूरती देख ही न पाए।उसे लगता कि उसकी परवरिश में जरूर कमी रह गई थी जो उसका बेटा इतना क्रूर,कट्टर बना।

स्वाभिमानी दीपा जो गर्भवती भी थी और उसकी सास ये बात जानती भी थी,अपने पति की  प्यार की निशानी संग लेकर, उनका घर छोड़ गई थी क्योंकि वो रोज रोज का अपमान नहीं सह पा रही थी,फिर एक दिन उन्हें खबर मिली कि दीपा की डिलीवरी के वक्त मौत हो गई और वो उन दोनो की औलाद एक बच्ची छोड़ गई है अपने पीछे।

उस बच्ची को गोद में लेते ललित के होश उड़ गए क्योंकि वो रंग रूप में बिल्कुल अपनी मां की प्रतिमूर्ति थी।एक पति,अपनी पत्नी को बदसूरत कहकर प्रताड़ित कर सकता है,उसे गृह निकाला भी दे सकता है लेकिन अपनी औलाद,अपने ही खून को ऐसा कहते वक्त,उसे अपनी मर्दानगी पर चोट लगती है,बहरहाल ललित, उस बच्ची को न ठुकरा सका।दीपा के इस दुनिया से जाते ही,उसे अपनी गलती भी समझ आई।

लाख कोशिशों के बाद,उसने दीपा और अपनी बच्ची श्यामा को सर्व गुण संपन्न बनाया भी पर उसके पति के हाथ मिलते अपमान से जब उसकी बेटी चीत्कार करती,ललित का दिल घायल मछली जैसा तड़पता, किसी दूसरे की बेटी को अपमानित करना कितना आसान होता है पर जब अपने जिगर के टुकड़े पर वही अपमान करता कोई दिखता है तो खून खौल जाता है।अब ललित की यही नियति बन गई थी और उसे ये स्वीकारना था।

प्रिय पाठकों!आपको ये कहानी कैसी लगी,अवश्य बताएं।खूबसूरती और बदसूरती शक्ल से नहीं बल्कि व्यवहार से होती है,ललित दीपा का रंग देखकर विचलित हो गया लेकिन उसका सोने सा चमकता दिल उसने नहीं देखा,वास्तव में तो वो खुद बदसूरत था जो चेहरे से उजला जरूर था लेकिन दिल काला रखता था।आपका क्या विचार है?

डॉ  संगीता अग्रवाल

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