“बदले हुए अहसास” – लतिका श्रीवास्तव : Moral Stories in Hindi

मोहन जी के घर पर आज खुशियों का माहौल था। उनके बेटे शिशिर को एक प्रतिष्ठित पद पर नियुक्ति मिली थी। पूरे मोहल्ले में इस खबर ने मानो उत्सव का माहौल बना दिया था। पड़ोसी, रिश्तेदार, सब उनके घर बधाई देने आ रहे थे। समर्थ जी, जो मोहन जी के पुराने दोस्त थे, विशेष रूप से आए। उन्होंने मोहन जी को गले लगाते हुए कहा, “मोहन जी, बधाई हो! वाकई आपकी मेहनत और बेटे की पढ़ाई में किए गए अनगिनत खर्चों ने ही उसे इस मुकाम पर पहुंचाया है।”

समर्थ जी की यह बात सुनकर शिशिर, जो पास में खड़ा था, तैश में आ गया। “अंकल, ये किस खर्चे की बातें कर रहे हैं आप? पापा ने किया क्या है मेरे लिए! इतना तो हर पिता करता है। इनके मत्थे तो चपरासी भी नहीं बन पाता। यह सब मेरी काबिलियत और मेरी मेहनत का नतीजा है। बधाई मुझे दीजिए, पापा को नहीं,” शिशिर ने दंभ और अहंकार से कहा।

मोहन जी के चेहरे की चमक एक पल में बुझ गई। उनकी आंखों में भरे गर्व की जगह अब उदासी ने ले ली थी। यह सुनकर समर्थ जी भी खिन्न हो गए। उनका चेहरा गुस्से से लाल हो गया और उन्होंने कड़कते हुए कहा, “शिशिर, सब तेरी मेहनत से हुआ है तो अब जा, अपने पिता के गिरवी रखे मकान को छुड़ा ले और चौकीदारी में बिताई उनकी अनगिनत रातों की नींद और सुकून भी वापिस लौटा दे।”

समर्थ जी की तेज झिड़की सुनते ही शिशिर का सिर शर्म से झुक गया। उसे अचानक अहसास हुआ कि उसकी बातों ने उसके पिता को कितना चोट पहुंचाया है।

मोहन जी चुपचाप अपने कमरे में चले गए। उनकी आंखों में आंसू थे, जिन्हें वे किसी भी कीमत पर दिखाना नहीं चाहते थे। जब वह कमरे में पहुंचे, तो उनकी नजर दीवार पर टंगी शिशिर की बचपन की तस्वीरों पर पड़ी। कैसे उन्होंने उसे गोद में उठाकर पढ़ाया-लिखाया था। वह अपने परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण खुद के लिए कभी अच्छे कपड़े तक नहीं खरीद सके।

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चौकीदारी की नौकरी में दिन-रात काम करते हुए, हर महीने की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा शिशिर की पढ़ाई पर खर्च कर देते थे। उन्हें याद आया, जब शिशिर को एक महंगा कोचिंग सेंटर जॉइन करना था तो उन्होंने अपनी अंगूठी बेच दी थी।

शिशिर बाहर खड़ा, सारी बातें सुन रहा था। उसे पिता की मेहनत और संघर्ष की झलक अब दिखाई देने लगी थी। उसकी आंखें नम हो गईं। वह अंदर आया और पिता के पैरों में गिरकर बोला, “पापा, माफ कर दीजिए। मैं अपनी सफलता के नशे में अंधा हो गया था। आपकी मेहनत और त्याग को नहीं देख पाया।”

मोहन जी ने उसे उठाया, और उसे गले से लगाते हुए बोले, “बेटा, मुझे तुझसे कभी कोई शिकायत नहीं थी। बस, यह जरूरी है कि तुम अपने अहंकार को त्याग दो और जो भी मुकाम पाया है, उसे विनम्रता से संभालो। हर व्यक्ति की सफलता में उसके अपने और अपनों की मेहनत का अंश होता है।”

शिशिर को अपनी गलती का एहसास हो चुका था। वह सोचने लगा कि कैसे उसने अपने पिता की मेहनत को नजरअंदाज कर दिया था।

अगले दिन, शिशिर ने अपने पिता के साथ बैठकर बात की। उन्होंने मोहन जी से अपने सभी अनुभव, संघर्षों और उनकी नौकरी के कष्टों के बारे में पूछा। मोहन जी ने उसे बताया कि किस तरह उन्होंने अपनी नींद और सुख-चैन को त्याग कर सिर्फ उसे एक बेहतर भविष्य देने के लिए काम किया था। शिशिर को समझ में आया कि पिता के बलिदान का कोई मोल नहीं होता।

वह अगले ही दिन बैंक गया और पिता के गिरवी रखे मकान को छुड़ाने के लिए पैसों का इंतजाम किया। जब वह मकान के दस्तावेज़ लेकर घर आया तो मोहन जी की आंखों में गर्व और खुशी का सैलाब उमड़ पड़ा। वह बोले, “बेटा, मैं तो इस मकान को छुड़ाने में लगा हुआ था, लेकिन आज तुमने मेरा दिल छुड़ा लिया है।”

शिशिर ने अपने पिता का हाथ पकड़ा और कहा, “पापा, अब से मैं आपके संघर्ष और आपकी मेहनत का सम्मान करूंगा। मेरी सफलता में आपकी भूमिका सबसे बड़ी है। आप मेरे लिए प्रेरणा हैं और रहेंगे।”

इस घटना ने न केवल पिता-पुत्र के रिश्ते को और मजबूत किया बल्कि शिशिर ने अहंकार का त्याग कर अपने जीवन में विनम्रता और कृतज्ञता का महत्व भी सीखा।

लतिका श्रीवास्तव

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