” भाई…आप हद से आगे बढ़ रहें हैं..।” विनय चीखा।
” अच्छा.. तो तू अब मुझे मेरी हद बताएगा।तूने अपनी ज़बान पर कंट्रोल नहीं किया तो मैं क्यों करूँगा…।” प्रकाश ने तमतमाते हुए कहा।
अपने दोनों बेटों को झगड़ते देख गायत्री जी का कलेजा छलनी हो रहा था।वो धम्म-से सोफ़े पर बैठ गईं और अपने दोनों हाथों से सिर पकड़ कर सोचने लगी कि ऐसी शिक्षा तो मैंने इन्हें कभी नहीं दी थी..फिर क्यों ये सब…हे भगवान!”
पिता के तीन संतानों में गायत्री इकलौती बेटी थीं।पिता ने बेटे-बेटी में भेदभाव न करते हुए उन्हें भी बीए तक शिक्षा दिलाई।उनके पिता के एक सहकर्मी ने अपने भतीजे सदानंद जो एक सरकारी मुलाज़िम थे, के लिये गायत्री का हाथ माँगा।उस वक्त तो पिता कुछ नहीं बोले लेकिन जब वे सदानंद और उसके परिवार से मिले
तो उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित हुए और फिर एक शुभ मुहूर्त में उन्होंने गायत्री का विवाह सदानंद के साथ करा दिया।
भरा-पूरा ससुराल था गायत्री का।महीना भर सास-ससुर और जेठ-जेठानी के साथ रहकर वो पति के साथ रहने चली आई।दो कमरों के किराये के मकान को उसने बड़े प्यार-से सजाकर उसे घर बना दिया।महीने के पहली तारीख को सदानंद उनकी हथेली पर तनख्वाह लाकर रख देते।वो उन्हीं से घर चलाती
और बचत भी कर लेती थी।दो साल बाद प्रकाश का जन्म हुआ।प्रकाश के स्कूल जाने का समय हुआ तब विनय उनकी गोद में आ गया और फिर वो उनके पालन-पोषण में व्यस्त हो गईं।त्योहारों पर बच्चों को लेकर ससुराल जाती और अपने बच्चों को सिखाती कि जैसे तुम्हारे पिता तुम्हारे दादाजी और तुम्हारे ताऊजी का सम्मान करते हैं और वो भी तुम्हारे पिता का ख्याल करते हैं, वैसे ही तुम्हें भी आपस में मिलकर रहना है।
एक दिन गायत्री किचन में काम कर रही थी तो उसे विनय की तेज आवाज़ सुनाई दी।जाकर देखा तो विनय कह रहा था,” भाई..आपने मेरी पेंसिल क्यों ली..।” गायत्री ने तुरंत उसे समझाया कि बेटे..प्रकाश तेरा बड़ा भाई है..उससे ऊँची आवाज़ में बात करना तुझे शोभा नहीं देता।फिर उसने प्रकाश को भी समझाया कि छोटे भाई को परेशान नहीं अच्छी बात नहीं है..।
माँ की बात विनय ने तो समझ ली लेकिन प्रकाश गाहे-बेगाहे अपने छोटे भाई पर अपने बड़े होने का रौब झाड़ने का कोई मौका जाने नहीं देता था।गायत्री ने यह बात सदानंद से कही तो उन्होंने हँसकर कहा,” अभी बच्चे हैं…धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा।”
प्रकाश की बारहवीं परीक्षा हो जाने के बाद सदानंद ऑफ़िस से गृह-लोन लेकर अपना घर बनवाना चाहते थे लेकिन प्रकाश ने मुंबई के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला ले लिया और पिता से बोला कि वह एमबीए भी करना चाहता है।विनय की पढ़ाई के लिये भी पैसे का इंतज़ाम करना था तब गायत्री ही बोलीं,”
किराये का घर भी बुरा नहीं है जी..बच्चों का भविष्य बन जाये तो हमारी नैया भी पार लग ही जायेगी।”
इस तरह सदानंद ने घर का सपना त्यागकर प्रकाश की पढ़ाई के लिये लोन ले लिया।विनय भी अपने शहर के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेकर पढ़ने लगा।इसी बीच सदानंद की भतीजी की शादी पड़ गई तो उसमें भी उन्हें सहयोग देना पड़ा।इस तरह एक साथ उनपर आर्थिक बोझ पड़ा जिसे गायत्री ने बड़ी समझदारी से संभाला।
एमबीए पूरा होते ही प्रकाश को मुंबई में ही एक मल्टीनेशनल कंपनी में ज़ाॅब मिल गई।कुछ समय बाद उसने अपने लिये एक फ़्लैट बुक कर लिया और साल भर बाद उसने नित्या नाम की लड़की से विवाह कर लिया जो उसके एक सहकर्मी की बहन थी।
विनय भी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर बिजली विभाग में नौकरी करने लगा।गायत्री ने एक मध्यवर्गीय परिवार की शिक्षित कन्या सुनीता के साथ उसका विवाह करा दिया।समय के साथ प्रकाश एक बेटे अंश का पिता बन गया और सुनीता ने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया।बेटे का नाम मनु और बेटी का नाम आद्या रखा।तीज-त्योहारों पर दोनों भाई अपने परिवार के साथ आ जाते जिन्हें देखकर उनके माता-पिता तृप्त हो जाते थे।
नौकरी से रिटायर होने के बाद सदानंद पत्नी संग आराम की ज़िंदगी व्यतीत करने लगे।जब मन करता तो वो अपने भाई से मिलने घर चले जाते।कभी प्रकाश के पास तो कभी छोटी बहू से सेवा कराने विनय के पास चली आते थें।
कुछ समय बाद सदानंद अस्वस्थ रहने लगे।अपना अंत समय देखकर उन्होंने दोनों बच्चों से इतना ही कहा कि आपस में मिलकर रहना और बड़े-छोटे के लिहाज़ की सीमा रेखा को कभी मत लाँघना।
पति का साथ छूट जाने पर गायत्री जी बहुत रोईं थी।जीने की इच्छा न होते हुए भी जीना उन्हें बोझ-सा लगने लगा था।तब प्रकाश और विनय दोनों ही उन्हें अपने साथ ले जाने के लिये आये।उन्होंने सोचा, विनय के पास दो ही कमरे हैं..मेरे रहने से तो उसे परेशानी होगी, इसलिए वो प्रकाश के साथ रहने चलीं गईं।
समय-समय विनय उनका हाल-समाचार लेता रहता और कहता रहता कि आपको किसी भी तरह की तकलीफ़़ होगी माँ तो मैं तुरंत आपको लेने आ जाऊँगा।
प्रकाश के घर में गायत्री जी एडजेस्ट हो गईं।उन्हें खाली बैठना पसंद था नहीं तो थोड़ा-बहुत किचन का काम और साफ़-सफ़ाई करने लगतीं।इसी तरह दो महीने बीत गये।एक दिन प्रकाश बोला,” माँ…कल बैंक चलकर मैं आपके पेंशन वाले अकाउंट को अपने में ट्रांसफर करवा देता हूँ…मैंने बैंक से बात कर ली है..
आपको बस एक साइन करना है।जब आपको ज़रूरत होगी तो मैं आपको दे दिया करूँगा।” गायत्री जी बेटे की मंशा समझ गईं, मुस्कुराते हुए बोलीं,” बेटा…यही तो एक मेरा अपना है…और फिर इसी बहाने मैं थोड़ा बाहर भी निकल जाती हूँ।” माँ का जवाब उसे अच्छा नहीं लगा।तब से वह उनसे खिंचा-खिंचा-सा रहने लगा।
नित्या भी उनके साथ रूखा व्यवहार करने लगी।बात-बात पर उनसे चिढ़ने लग जाती थी।इस परिवर्तन का कारण वो समझ गईं थीं।बचपन से तो वो प्रकाश की हर बात को मानती आईं थीं लेकिन अब नहीं…देना होगा भी तो वो दोनों बेटों को देंगी।
एक दिन गायत्री जी अपने दस वर्षीय पोते के साथ खेल रहीं थी।उन्हें थोड़ी-सी खाँसी होने लगी….नित्या उसी समय मार्केट से आई थी।सास को खाँसते देख उसने तुरंत बेटे को उनसे पास से खींच लिया और घर की आया को बोली,” सुन चंदा..अंश को उसकी दादी से दूर ही रखना…खाँसती रहती हैं..अंश को इंफेंक्शन हो गया तो…।” सुनकर तो वो तिलमिला-सी गईं थीं।
रविवार का दिन था।नित्या ने घर पर किटी रखी थी।सहेलियों के आते ही गायत्री जी ने काॅफ़ी बना दी।एक दिन पहले ही नित्या ने उनसे मीठे बोल बोलकर गाजर का हलवा और दही-बड़े बनवा लिये थे।उन्होंने गरम-गरम पूड़ियाँ तल दी तो आया ने पनीर की सब्ज़ी और दही बड़े के साथ परोस दी।गाजर का हलवा बाउल में रखकर वे स्वयं सर्व करने लगी जो नित्या को अच्छा नहीं लगा।उन्हीं में से एक ने पूछ लिया,” नित्या..ये तुम्हारी…।”
” मेड है।” नित्या तपाक-से बोली तो गायत्री जी चकित रह गईं।वहीं पास में प्रकाश बैठा लैपटॉप पर काम रहा था।उन्होंने बेटे की तरफ़ देखा जो अनसुना करके बैठा रहा।
गायत्री जी अपने कमरे में आकर फूट-फूटकर रोने लगी।मन किया कि अभी यहाँ से विनय के पास चली जाये लेकिन फिर याद आया कि वह तो खुद उस छोटे घर में बड़ी मुश्किल से रह रहा है…उनके वहाँ जाने से तो विनय की परेशानी बढ़ जाएगी और ये वो हर्गिज़ नहीं चाहेंगी और ना ही आज के बारे में विनय को कुछ बताएगी।
उसी समय विनय का फ़ोन आ गया।माँ का भीगा स्वर सुना तो वो समझ गया कि कोई तो बात हुई है।उसने माँ से मिलने के लिये रात की ट्रेन पकड़ ली।
गायत्री जी का चश्मा टूट गया था।उसे बनवाने के लिये वो बेटे से कहती तो वह कल-परसों का बहाना बनाने लगता।किसी काम से वो ड्राइंग रूम में आ रही थीं कि दिखाई दिया नहीं और उनसे ठोकर लगकर मेज़ पर रखा फूलदान गिर गया।बस….प्रकाश आपे-से बाहर हो गया और दाँत पीसकर उनसे बोला कि जब आँख में रतौंधी है
तो कमरे से निकलती क्यों है? उसी समय विनय ऑटो से उतरकर प्रकाश के फ़्लैट का कॉलबेल बजाने जा रहा था कि उसे माँ के लिये प्रकाश के शब्द सुनाई दिये तो वह खुद पर काबू न रख सका और घर के भीतर आते ही प्रकाश से उलझ गया।उसने कहा कि अब मैं को अपने साथ लेकर ही जाऊँगा।
” अच्छा…मैं भी देखूँ कैसे…।प्रकाश बोला।दोनों में बहस होने लगी जिसे देखकर गायत्री जी अपना सिर पकड़कर बैठ गईं थीं।
प्रकाश बोला कि तेरी औकात है क्या…।फिर तो विनय ने भी उसे पलटकर जवाब दे दिया कि माँ का अपमान करके तो आपने अपनी औकात तो दिखा ही दी।इसी पर प्रकाश ने विनय का काॅलर पकड़ लिया।तब विनय बोला कि आप हद से आगे बढ़ रहें हैं।बातें बढ़ती ही जा रही थी…प्रकाश विनय पर हाथ उठाने ही वाला था कि गायत्री जी ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया और चीखते हुए बोलीं,” नालायक…छोटे भाई पर हाथ उठाते हुए तुझे शर्म नहीं आई।”
” इसने भी तो बड़े भाई का लिहाज़ नहीं किया।सारी हदें पार…।”
” कौन-सी हदें…कैसा बड़ा भाई..।” गायत्री जी चीखी और प्रकाश को बोली,” रिश्तों की सभी सीमा- रेखाएँ तो तू उसी दिन पार कर गया था जब तेरी पत्नी ने मुझे नौकरानी कहा और तू चुपचाप सुनता रहा था।इतनी कमाई होने के बाद भी तू अपनी बूढ़ी माँ के पेंशन पर आँख गड़ाये हुए है।एक फूलदान क्या टूट गया तूने तो…।बड़ा है तो क्या! तुझे किसी से कुछ भी कहने का..कुछ भी करने का लाइसेंस मिल गया है? बड़े बेटे या बड़े भाई होने का कौन-सा कर्तव्य तूने निभाया है? मैं तेरा बड़ा घर देखकर तेरे पास रहने नहीं आई थी
बल्कि विनय पर अपनी ज़िम्मेदारियाँ डालना नहीं चाहती थी।उसका घर छोटा ही सही परंतु हृदय तो बड़ा है।अपनी माँ के लिये वह समय निकालना जानता है।कद्र कराने का इतना ही शौक है तो पहले कदर करना तो सीख।” कहकर उन्होंने एक हाथ में अपना बैग लिया और दूसरे हाथ से विनय का हाथ पकड़कर ‘ चल विनय ‘ कहकर वह बाहर निकल गई।
सुनीता और उसके बच्चों ने बड़े उत्साह से गायत्री जी का स्वागत किया।अगले महीने की पहली तारीख पर उन्होंने कुछ रुपये विनय की हथेली पर रख दिये।विनय उसे लौटाते हुए बोला,” माँ…मेरे घर में सुविधाएँ कम ही सही लेकिन यह आपका है।हमें आपके पैसे की नहीं..आपके आशीर्वाद की ज़रूरत है।” सुनकर गायत्री जी की आँखें खुशी-से छलछला उठी। तभी मनु और आद्या ‘ दादी..कहानी.. ‘ कहते हुए उनकी गोद में आकर बैठ गये।
विभा गुप्ता
# सीमा रेखा स्वरचित , बैंगलुरु
अपनी हदें या सीमा रेखा का ध्यान परिवार के बड़े सदस्य रखेंगे तो छोटे स्वतः ही उनका अनुसरण करेंगे।
Nice Story
Absolutely