सागरिका का मुस्कुराता हुआ चेहरा और बोलती हुई आंखें!! चाहे जितनी गंभीर क्यों न हो….? लेकिन ऐसा लगता कि जैसे मुस्कुरा रही हो। छोटी सी छोटी बात पर बहुत जोर से ठहाका लगाती …। उसके हंसने से मानो आसपास की चीजें भी हंसने लगती। एक तो बला की खूबसूरत ऊपर से हंसमुख चेहरा… सोने पर सुहागा वाला व्यक्तित्व था सागरिका का।
आज लड़के वाले सागरिका को देखने आ रहे थे। सागरिका बहुत घबराई हुई थी पता नहीं क्या-क्या पूछेंगे…??
कुछ देर पश्चात घर के बाहर एक गाड़ी आकर रुकी। सागरिका के माता-पिता समझ गए कि वह लोग आ गए हैं…!! तुरंत आगे बढ़कर उन सभी लोगों का अभिवादन किया।
गाड़ी में सबसे पहले लगभग छः फुट का एक शौष्ठव शरीर का नौजवान उतरा… उसका आकर्षक व्यक्तित्व किसी को भी एक बार में ही आकर्षित कर ले। नौजवान का नाम था स्वास्तिक। स्वास्तिक अकेला उस परिवार में नौकरी कर रहा था अच्छी खासी तनख्वाह थी, पिता को पेंशन मिल रही थी सब मिला-जुला कर परिवार बहुत अच्छे से चल रहा था। स्वास्तिक के साथ उसके माता-पिता और छोटी बहन इति भी आयी हुई थी।
सागरिका की घबराहट देखकर स्वास्तिक की मां ने उसे अपने पास बैठाया और उससे बातचीत करने लगी। कुछ देर इधर-उधर की बात करने के पश्चात सागरिका थोड़ी नॉर्मल हुई। सागरिका सभी को बहुत पसंद आई।
कुछ औपचारिकता निभाते हुए साधारण तरीके से लड़का लड़की ने एक दूसरे को अंगूठी पहनाई और रिश्ते को पक्का कर दिया गया।
कुछ दिन के पश्चात स्वास्तिक और सागरिका का धूमधाम से विवाह हो गया। दूल्हा, दुल्हन दोनों इतने खूबसूरत थे कि किसी की भी नजर उन पर ठहर जाती। बिल्कुल राम सीता जैसी जोड़ी लग रही थी। स्वास्तिक की दादी ने कहा जाओ बहू! सूप में नून राई लेकर दोनों की नजर उतार लो कहीं किसी की बुरी नजर न लग जाए।
स्वास्तिक की मां ने हां में सिर हिलाया।
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घर में मानो सारे जहां की खुशियां समा गई है। सभी एक दूसरे का सम्मान और स्नेह करते। घर में न कोई साजिश, न किसी प्रकार की चुगली, बहुत अच्छा परिवार चल रहा था।
दो साल बाद घर की खुशियों में चार चांद लग गए जब सागरिका ने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया। परिवार में मानो खुशियां ही खुशियां थी। सास ससुर ने बच्चे का नाम आदित्य रखा…. जिसकी आभा से यह घर हमेशा रोशन रहेगा।
कहते हैं सुख के दिन बहुत जल्दी फुर्र हो जाते हैं….!
एक दिन रात के समय स्वास्तिक ऑफिस से घर आ रहा था अचानक गाड़ी के सामने से लाइट पड़ने के कारण कुछ दिखाई नहीं पड़ा और इसी बीच उसकी गाड़ी किसी चीज से टकराई जिससे स्वास्तिक को बहुत ज्यादा चोटें आई। दो-तीन घंटे बाद किसी व्यक्ति की उस पर नज़र पड़ी वह तुरंत अस्पताल ले गया लेकिन स्वास्तिक को बचाया नहीं जा सका।
घर में पहली बार ऐसा घुप्प अंधेरा हुआ…. जहां दूर-दूर तक कोई उजाला दिखाई नहीं पड़ रहा था। आसपास के लोग सांत्वना देने के साथ-साथ स्वास्तिक के माता-पिता को जबरदस्ती अपनी राय दे रहे थे…. कि सागरिका की तो उम्र कम है वह तो दूसरा विवाह कर लेगी। इति की शादी और यह घर कैसे चलेगा…?
उन लोगों को कुछ करना तो है नहीं… बस स्वास्तिक के माता-पिता को अपना घिसा पिटा ज्ञान बांटना है। वह बेचारे अपना गम कुछ समय के लिए भूलते और उन लोगों की बातें सुनकर ज्यादा परेशान हो रहे थे।
घर भी किस्तों पर था। कई महीने घर की किस्त न जमा हो पाने के कारण कुछ दिनों के बाद बैंक से घर खाली करने के लिए नोटिस आ गया,,,,,,,,अब समस्या यह थी कि घर कैसे बचाया जाए…?
सिर छुपाने का बस यही एकमात्र सहारा था।
रिश्तेदार जो हमदर्द बनकर सामने आए थे उन्होंने किनारा कर लिया कहीं पैसा न देना पड़े।
सागरिका ने अपने आंसुओं को दिल में छुपा कर घर की जिम्मेदारी को अपने कंधों पर लेने का निर्णय लिया। कई जगह नौकरी के लिए फॉर्म भरे जब तक कहीं कुछ नहीं होता, तब तक उसने अपने सीखे हुए हुनर से काम की शुरुआत कर दी। शादी से पहले उसने अचार, बड़ी, पापड़ का कोर्स किया था।
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सागरिका अपने ससुर के साथ छोटी बड़ी दुकानों में जाकर अचार, बड़ी, पापड़ का सैंपल दिखाना शुरू कर दिया। सासु मां अपनी रिश्तेदारी में बहू के हुनर की चर्चा करने लगी, ननद ने इंटरनेट पर अपनी भाभी के कौशल का प्रचार किया। धीरे-धीरे लोगों ने सागरिका का सामान खरीदना शुरू किया। उन्हें अचार, बड़ी, पापड़ बाजार की अपेक्षा बहुत अच्छे लगे। सागरिका पूर्ण मनोयोग से अपने काम में व्यस्त हो गई… जितना समान बनाती वह सब खपत हो रहा था।
समान की डिमांड बढ़ने के कारण अकेली सागरिका के द्वारा काम करना मुश्किल हो रहा था। सासू मां ने गांव से अपनी दो बहनों को बुला लिया वह सागरिका के कामों में मदद करने लगी। सागरिका का काम और मृदु व्यवहार से उसका रोजगार दिन पर दिन बढ़ने लगा।
सागरिका ने दो कमरे और एक बड़ा सा आंगन के साथ एक प्लाट किराए पर ले लिया। गांव से जो महिलाएं काम करना चाहती थी उन्हें बुलाकर उनके रहने की व्यवस्था यही कर दी जाती। सागरिका अपने काम को बखूबी बड़ा रूप दे रही थी। सभी के सहयोग से उसका काम खूब फलने फूलने लगा।
सागरिका अपनी निगरानी में अचार, बड़ी, पापड़ बनवाती और बड़े-बड़े ऑर्डर लेकर सप्लाई देती। सागरिका को अब कहीं जाने की जरूरत नहीं थी, उसे ऑर्डर घर पर ही मिल रहे थे। बहुत ज्यादा लाभ तो नहीं हो रहा था किंतु परिवार ठीक ठाक चल रहा था और मकान की किस्त भी निपट रही थी।
आदित्य थोड़ा बड़ा हो गया, उसका एडमिशन स्कूल में करवा दिया गया। सास- ससुर भी आदित्य के साथ खेलते
कूदते और उसी के साथ व्यस्त रहते।
इति के लिए एक अच्छे परिवार से रिश्ता आया। कुछ दिनों के बाद इति का धूमधाम से विवाह हो गया। सागरिका ने अपने आप को काम में इतना ज्यादा व्यस्त कर लिया की स्वास्तिक की यादें उसे कमजोर नहीं बल्कि उसे ऊंचाईयां छूने की प्रेरणा देती।
सास ससुर एवं सागरिका की समझदारी से एक परिवार बिखरने से बच गया। सागरिका अपनी छोटी सी दुनिया में बहुत खुश है।
क्या हुआ जो स्वास्तिक नहीं है…?? लेकिन उनके अपने तो इसी घर में है।
– सुनीता मुखर्जी “श्रुति”
मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित
हल्दिया, पूर्व मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल