शर्मा परिवार और मिश्रा परिवार पड़ोसी थे।वे एक ही शहर के रहने वाले थे तथा यहाँ वे नौकरी करते थे, यहां भी संयोग से एक ही कालोनी में पास-पास ही मकान बनाये थे सो यहाँ भी वे पडोसी थे। दोनों के दो दो छोटे बच्चे थे वे साथ खेलते कूदते एक ही विद्यालय में साथ ही पढ़ने जाते। दोस्ती क्या थी दाँत कटी रोटी थी. एक दूसरे पर जान छिड़कते।
हर दुःख सुख में साथ खड़े रहते। सब्जियों के डोंगें, विशेष पकवान एक घर से दूसरे घर अक्सर घूमते रहते। बच्चे भी जिसके यहाँ जो पसंद आता खा लेते। दोनों की पत्नियां भी बच्चों के स्कूल जाने एवं पतीयों के ऑफिस जाने के बाद खाली समय साथ बिताती, बाजार का काम भी साथ जाकर करती। पड़ोसियों को ये मेल मिलाप पसन्द नहीं आता। वे अक्सर उनके कान एक दूसरे के विरुद्ध भरने की कोशिश करते किन्तु उन पर कोई असर ही नहीं होता।
इसे समय की मार कहें या बुद्धिकी पथभ्रष्टता दि वो दोनों छोटी सी बच्चों के झगडे की बात को लेकर उलझ पड़े और झगड़ा इतना बढ़ गया कि आपस में बोलचाल बिल्कुल बन्द हो गई। बच्चों को भी साथ खेलने-बोलने से रोक दिया गया। अब वे आमने -सामने भी पड़ जाते तो कतरा कर निकल जाते। पत्नीयों के बीच भी बोलचाल बन्द हो गई। स्नेह का स्त्रोत जो दोनों परिवारों के बीच बहता था सूख गया। इतने निष्ठुर हो गए कि अब उन्हें किसी के दुःख-परेशानी से भी कोई मतलब नहीं रहा।
बच्चे तो बच्चे होते हैं कुछ दिनों बाद वे सामान्य हो एक दूसरे के साथ खेलने लगे पर बडों के बीच लकीर खींच गई।धीरे-धीरे समय बीतता गया। दिमाग शान्त होने पर शर्मा जी को पछतावा होने लगा कि छोटी सी बात ने कितना बडा रूप ले लिया और वे कभी कभी दुःखी हो जाते। किन्तु मिश्राजी का ग़ुस्सा अभी बकरार था. वे इस झगडे को अभी भी सौ प्रतिशत सही मानते थे।
दो वर्ष बीत गये, अब पडोसी भी खुश थे और वे पूरा प्रयास करते कि दोनों एक न हो जाएं।
ऑफिस जाते समय शर्मा जी की मोटर साइकिल को तेज गति कार ने टक्कर मार दी। वे बच तो गए किन्तु तीन चार फ्रेक्चर होने से अस्तपताल में एक माह तक रहना पड़ा। सभी पड़ोसी मिलने आए पर मिश्रा जी नहीं आए । शर्मा जी रोज उनकी राह देखते शायद कड़वी यादें भूला कर मिश्राजी आ जाएं, किन्तु वो उनके घर पहुँचने पर घर पर भी नहीं मिले। जीवन सामान्य गति से चलने लगा।
तभी एक दिन कालोनी मे खेलते-खेलते मिश्रा जी का दस बर्षीय बेटा तेजी से आती मोटर सायकिल की चपेट में आगया। उसे तुरन्त अस्तपताल ले गये शर्मा जी तुरंत उनके साथ थे। बच्चों को शर्मा की पत्नी ने सम्हाला ताकि मिश्राजी की पत्नी बेटे के साथ जा सकें। शर्मा जी एवं उनकी पत्नी पूरे समय कंधे से कंधा मिलाकर कर उनके साथ खड़े रहे और उन्हें दिलासा देते रहे।
पूरे महिने भर तक खाना शर्मा जी के यहाँ ही बना बच्चों को भी उन्होंने सम्हाला ताकि मिश्राजी एवं उनकी पत्नी निश्चिन्त हो कर अस्तपताल में बेटे को सम्हाल सके। शर्मा जी नियम से अस्तपताल जाकर बेटे के पास रुकते और मिश्रा जी को घर भेज देते थोडा आराम करने के लिए। एक माह के अथक प्रयास के बाद बेटा ठीक होकर घर आया। खुशी का माहौल था। शर्मा जी के घर ही सारी खाने पीने कि व्यवस्था थी
शर्मा जी के व्यवहार से मिश्रा जी अपने आप पर इतने शर्मिंदा थे कि उनके मुँह से माफी मांगने के लिए भी शब्द नहीं निकल रहे थे। उन्हें अपने व्यवहार पर पछतावा था कि कैसे शर्मा जी को जरुरत पड़ने पर उन्होंने कठोर हो कर मुँह मोड लिया था, फिर भी सब कुछ भूला कर शर्मा जी ने उनकी कितनी मदद की।
वे अपने करे पर शर्मिंदा होते हुए शर्मा जी का हाथ पकड़ कर रो पडे, मुझे माफ कर दो। माफी के लायक मैंने काम तो नहीं किया है, किन्तु आज मैं आपके आगे अपने को बहुत शर्मिन्दा एवं बौना महसूस कर रहा हूं । मैं भी तो सब कुछ भुला कर जब आपको जरूरत थी आपके साथ खड़ा हो सकता था। छोटा भाई समझ कर माफ कर दो।
शर्मा जी उन्हें गले लगाते बोले बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले। जो हो गया वह तो वह तो अब लौटने वाला नहीं आगे हम फिर हंसी खुशी रहें हमारा यही प्रयास होना चाहिए। हमसे तो अच्छा इन बच्चों का निश्छल मन है जो थोडि ही देर में सब भुला कर एक हो गए , और हम उसी बात को लेकर मन में गांठ बांध कर बैठ गए। इस घटना से हमें सीख मिल गई कि बच्चों के भगड़े में पड कर बड़ों को अपने सम्बन्ध खराब नहीं करने चाहिए । बच्चों के मन तो पानी मे खींची लकीर की तरह है जो कुछ ही समय में एक हो जाता है।
#शर्मिन्दा
शिव कुमारी शुक्ला
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित
# शर्मिंदा स्वरचित