” दीदी….बाहर कोई महिला बेहोश पड़ी है…उनका क्या करे? ” विद्या नाम की सेविका ने सुनिधि से कहा जो अपनी कुर्सी पर बैठी मेज पर पड़ी फ़ाइलों को एक-एक करके ध्यान-से देख रही थी।
करीब आठ साल सुनिधि ने ‘ आनंद-आश्रय ‘ का कार्यभार संभाला था।दरअसल आनंद-आश्रय’ एक वृद्धाश्रम था जहाँ वृद्ध-वृद्धा रोते हुए तो आते थें, फिर कुछ ही दिनों अपना रोना भूलकर हँसने लगते।थे।सुनिधि यहाँ पर आने वाले सभी महिला-पुरुष से इतनी हिलमिल गई थी कि किसी को उसमें अपनी बेटी नज़र आती तो किसी को अपनी माँ।इस समय वह फ़ाइलों में सप्ताह भर के मील-प्लान और अन्य कार्यक्रमों को पढ़ रही थी कि तभी विद्या ने आकर आश्रय के मुख्य द्वार पर एक वृद्धा के बेहोश होने की सूचना दी।
सुनिधि विद्या को साथ लेकर गई तो देखा कि वृद्धा का चेहरा उसके आँचल से ढ़क हुआ था।विद्या ने चेहरे पर से आँचल हटाया तो सुनिधि चौंक पड़ी।विद्या ने मुँह पर पानी के छींटे दिये तो वह होश में आई और सुनिधि को देखकर वह भी चौंक पड़ी।फिर उसने अपनी नज़रें झुका ली, शायद सुनिधि से आँखें मिलाने की हिम्मत उसमें न थी।सुनिधि ने विद्या को कहा कि रूम नंबर बारह का एक बेड खाली है, इन्हें वहीं ले जाओ..पानी पिला देना…मैं अभी आती हूँ…।” कहकर वह ऑफ़िस में चली गई।अचानक उस वृद्धा को देखकर न जाने क्यों..उसका मन बेचैन हो उठा था।कुर्सी के सिरहाने पर उसने अपना सिर टिकाया और आँखें मूँदी तो अतीत के पन्ने परत दर परत खुलते चले गये।
सुनिधि के पिता एक स्कूल में हैडमास्टर थे।बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ संस्कार भी पढ़ाते थें तो भला अपनी मातृहीन बेटी को संस्कार कैसे न देते।इंटर के बाद वह आगे बढ़ना चाहती थी लेकिन पिता ने अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए उसका विवाह कर देना ही उचित समझा।बेटी को भी कहा कि किस्मत के खेल को कौन जान पाया है।क्या पता..आगे की पढ़ाई तू अपने ससुराल में रहकर पूरी कर ले।उसने अपने मन को समझा लिया और भगवती बुआ के बताये रिश्ते को उसने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया।
ससुराल के पुश्तैनी हवेली में तीन प्राणी ही थे।उसके अलावा पति और सास।सास को अपनी बहू से कम से कम तीन बच्चे की उम्मीद तो थी जो खेती-बाड़ी देखता और वंश को भी बढ़ाता।पति और सास का पूरा प्यार उसे मिल रहा था।साल भर बाद सास ने उसे कहा, ” तुमसे तीन महीने बाद रंजीतवा के बियाह हुआ था.., अभी ही पेट इतना निकल आया है जैसे जुड़वा हो और एक तुम हो…।” वह चुपचाप सुनती रही।छह महीने बाद तो उसकी सास हर आने- जाने से कहने लगी, ” इसके बाप ने मुझे खोटा सिक्का देकर ठग लिया है।” अपने पिता के लिये ऐसे अपशब्द उसके कानों में पिघले शीशे के समान लगते।उसने पति से कहा,” क्यों न हम चलकर एक बार डाॅक्टर से चेकअप करा ले।मेरे में कोई कमी होगी तो मैं इलाज करवा लूँगी और आपमें हुई तो…।”
” कोई कमी- वमी नहीं है हम में और ये डाॅक्टर-वाॅक्टर का भूत अपने सिर से उतार लो….तुम्हारी किस्मत में बच्चा लिखा होगा तो हो जायेगा।” सुनिधि का पति भड़क उठा था।दो साल बीतने के बाद भी उसकी गोद सूनी रही तो सास ने उसे बाँझ कहना शुरु कर दिया।उसे दुख होता…पति से कहती तो वह उसी पर झल्लाने लगता।
एक दिन सुनिधि की फुफेरी सास आई हुई थी।उसकी सास के सामने फलां के पोता हुआ तो फलाने की नाती हुआ जैसे दसों उदाहरण पेश करती हुई बोली कि भौजी ….आप इसकी छुट्टी करके दूसरी काहे नहीं ले आती।मेरी ननद की बेटी है…मेरी छोट गोतनी(देवरानी) की भतीजी भी बहुत सुंदर है और…।
” बस- बस….समझ गई।इसे बाप के घर भेजकर फिर बुलाएँगे ही नहीं।” सास की बात सुनकर सुनिधि डर गई।अपनी सास के बारे में वह अच्छी तरह से जानती थी कि वो जो सोच लेती है…पूरा करके ही दम लेती है।यही हुआ भी…उसे जबरन मायके भेजा जाने लगा।उसने जाने से इंकार किया तो उसे बाँझ- बंजर ज़मीन कहकर अपने ही घर से बेघर कर दिया गया।
सुनिधि के पिता अस्वस्थ तो थे।ही…बेटी की स्थिति देखकर उन्हें गहरा सदमा लगा और एक दिन ऐसे सोये कि फिर कभी नहीं उठे।पिता की छाती पर सिर रखकर वह बहुत रोई थी।फिर हिम्मत जुटाकर ससुराल गई लेकिन अब वहाँ उसके लिये कोई जगह नहीं थी।उसकी सास अपने बेटे के लिये दूसरी पत्नी ले आई थी।किस्मत का खेल उसे समझ नहीं आ रहा था। सास के पैर पकड़कर वह रोई-गिड़गिड़ाई लेकिन उसकी सास ने एक न सुनी थी और आज वही सास आनंद- आश्रय के द्वार पर…ऐसी हालत में….।”
” दीदी…वह वृद्ध औरत आपसे मिलने की ज़िद कर रही है…।” विद्या की बात सुनकर वह वर्तमान में लौटी।बोली, ” अच्छा…भेज दो यहाँ…।”
वृद्धा ने सुनिधि के कमरे की साज-सज्जा पर एक नज़र दौड़ाई और उसे देखते ही रोना शुरु कर दिया, ” हाय राम! मेरी तो मति ही मरा गई जो हीरे को पत्थर समझकर बाहर फेंक दिया और…।”
” माँजी…चुप हो जाइये और पूरी बात बताइये कि आप इस हाल में कैसे…।” वृद्धा के कंधे पर अपने दोनों हाथ रखकर उन्हें शांत कराते हुए सुनिधि ने पूछा।
” क्या बताऊँ…तेरी उस फुआ सास ने मुझे झांसा देकर अपने एक रिश्तेदार की सनकी बेटी को मेरे बेटे के गले बाँध दी।कुछ दिनों तक मीठा-मीठा बोलकर उसने मेरे बेटे से साइन करवाकर सब कुछ अपने नाम लिखवा लिया…फिर बेटे पर नामर्दी का इल्ज़ाम लगाकर उसे बहुत प्रताड़ित किया उस कलमुँही ने। बेटे ने आत्महत्या कर ली तो उसने मुझे घर से निकाल दिया….।” कहते हुए वह रोने लगी।सुनिधि ने उन्हें पानी का गिलास दिया तो पानी पीकर बोली,” बहू…तू न मुझे अपने पास रख ले….मैं तेरा सब काम…।”
इसे किस्मत का खेल ही तो कहेंगे….सास ने कल जिस बहू को अपमानित करके घर से निकाल दिया था, आज उसी से अपने रहने के लिये मिन्नतें कर रही थी।
” जी….।” सुनिधि कुछ कहती, उससे पहले ही वृद्धा पूछ बैठी, ” अच्छा ये तो बता कि तू यहाँ कैसे….।”
” वो…अपने घर से निकाली हुई औरत का कोई ठौर तो होता नहीं।” एक लंबी साँस लेकर वह फिर बोली,” दो दिनों तक भूखी- प्यासी दर ब दर भटकने के बाद मैं एक गाड़ी से टकराकर बेहोश हो गई थी।गाड़ी में इस ‘ आनंद-आश्रय ‘ के संस्थापक बैठे हुए थे।वो मुझे यहाँ लेकर आ गये और….।” तभी डाॅक्टर संदीप आ गये और सुनिधि से बोले,” मैंने बेड नंबर तीन और पाँच को देख लिया है।दोनों का बीपी अब एकदम नार्मल है।तुम घर साथ चलोगी या…।”
” जी…चलती हूँ।माँजी…ये डाॅक्टर संदीप हैं…इस आश्रय के संस्थापक के बेटे और मेरे..।”
” नमस्ते! हम इनकी…।” हाथ से सुनिधि को निकलते देख वृद्धा ने पासा फेंकना चाहा लेकिन संदीप तपाक-से बोले,” जानता हूँ।आप आराम से यहाँ रहिये…।”
तभी मम्मीsss कहते हुए पाँच साल मनु आकर सुनिधि से लिपट गया।वृद्धा हतप्रभ थी।सोचने लगी, बाँझ कौन है…..एक बच्चे की माँ जिसे मैंने बंजर ज़मीन कहकर ठुकरा दिया या फिर वो स्वयं जो किस्मत से एक बेटे की माँ तो बनी लेकिन फिर…उसकी गोद सूनी हो गई।
विभा गुप्ता
# किस्मत का खेल स्वरचित
किस्मत के खेल को कोई नहीं समझ सकता।वह एक पल में झोंपड़ी वाले को महल में बिठा देता है तो दूसरे ही पल में महल वाले को धूल भी चटा देता है।इसलिये जीवन में सुख मिले तो अहंकार न करे और दुख आये तो घबराये नहीं …… धैर्य रखे…।
अति सुन्दर
Really a very good story.
Excellent..