माँ जी ने दो दिनों से अनाज नहीं खाया, लिक्विड पर कब तक रहेंगी?”
“क्यों?..उनकी पसंद का कुछ..”
“सबकुछ पूछा..जिद्द भी किया..पर बच्चे की तरह कर रहीं हैं”
मैं कुछ दिनों के लिए ऑफिस टूर पर था, हालांकि जाना ज्यादा जरूरी नहीं था। आते ही नीलिमा ने बताया तो मैं चिंतित हो उठा। बच्चे अपने कमरे में सो रहे थे। मैंने माँ के कमरे में जाकर देखा, शायद वो भी नींद में थी। सामने जूस का आधा भरा ग्लास रखा था। मन सहसा बचपन में लौट गया
“माँ आँखे बंद करती और हाथों में भात के कौर लेकर मुझसे पूछती
“कौन खायेगा.. कौन खायेगा..’
मैं झट से उसके हाथों से कौर मुँह में लेता और चहकते हुए कहता
“मैं खाऊंगा..”
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नमक तेल के साथ चावल खिलाना हो या सिर्फ माड़ के साथ। इन रूखे सूखे खाने को मुझे खिलाने का माँ का ये तरकीब कामयाब था। उन थाली के निवालों में मेरे लिए कोई लड्डु , कोई पेड़ा, कोई जलेबी होता..और सबसे अंत में झूठमूठ की रसमलाई.. जिसे खिलाने के बाद अक्सर माँ की आँखें डबडबा जाया करती थीं। मुझे समझ नहीं आता तो मैं पुछ लेता
“क्या हुआ माँ..”
“कुछ नहीं रे, वो तेरे लिए जो सपने हैं, वही आँखों में उतर आते हैं”
माँ की डबडबाई आँखों को मैं पोंछ देता,
वो मुस्कुराने लग जाती और मैं उनके गले लग जाता।
मैं धीरे धीरे बड़ा होता गया, और उन निवालों की कीमत समझता चला गया। ये भी समझता गया कि इस पूरी दुनिया में मैं ही मां की दुनिया हूँ। और मैं माँ की दुनिया को खूबसूरत बनाना चाहता था, उनके सपने पूरे करना चाहता था। माँ के संघर्ष को मैंने जाया नहीं जाने दिया। आज हमारे घर में थाली पकवानों से सजी रहती है। पर गरीबी के दिनों के संघर्ष ने मां को असमय बीमार और कमजोर कर दिया है। माँ को अचेत और भूखा सोते देख मेरा मन अपराध से भर गया। माँ ने उस परिस्थिति में भी मुझे कभी भूखा सोने नहीं दिया..ऐसे पैसे का क्या काम..जब माँ ही भूखी रहे! मैं उन्हें इस हाल में देख, तेज कदमों से किचन में गया, एक थाली में थोड़ा खाना लिया और
“माँ..”
मैंने उन्हें आवाज दिया, उन्होंने आँखें खोलकर मुझे देखा और धीरे से उठ बैठी
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“आ गया तू..कब..आया?”
“अभी आया माँ.. अच्छा चलो ये खा लो”
उन्होंने खाने से बिल्कुल अरुचि दिखाई, अपना मुंह फेर लिया। बिल्कुल एक बच्चे की तरह। मेरी आँखें डबडबा आई थीं पर मैंने खुद को संयत कर अपनी आंखें बंद की और थाली से एक कौर लेकर माँ की ही तरह पूछा
“कौन खायेगा.. कौन खायेगा..?”
मैं अधखुली आंखों से उन्हें देख रहा था..उन्होंने अपना चेहरा मेरी तरफ किया..और एकटक मुझे देखने लगीं.. शायद वो बचपन के दिन उन्हें याद आ गए थे, उनकी आँखें भीग आईं थीं.. उन्होंने मेरे हाथों से वो निवाला लिया और बच्चे की तरह रो पड़ी
“मुझे तेरे बिना..अच्छा नहीं लगता..बेटे”
जैसे बचपन में थोड़ी देर माँ के ना दिखने पर मैं रो पड़ता था, शायद माँ अब उसी अवस्था में आ गई थी…!
मैं डबडबाई आँखों से उन्हें एक कौर..और खिलाया
“मैं.. अब..एक दिन के लिए भी..कहीं नहीं जाऊंगा माँ”
विनय कुमार मिश्रा