दिव्या की शादी ऐसे परिवार में हुई थी। जहाँ बस दो ही सदस्य थे परिवार में। उसके पति के अलावा ससुर जी। उसकी सासू माँ स्वर्ग सिधार चुकीं थीं। प्रेम विवाह के कारण उसके सास ससुर दोनों ही अपने परिवारों से जुदा हो गये थे। उनके कुछ अभिन्न मित्र उन्हें परिवार की कमी महसूस नहीं होने देते थे।
उन्हीं के प्रयासों के फलस्वरूप दिव्या आलोक की पत्नी बनी थी। पुरुषों का घर होने के कारण जिस घर में महिलायें नहीं जातीं थीं। उस घर में दिव्या के आ जाने से महिलाओं का जमघट लगने लगा। सभी नई बहू को गृहस्थी से संबंधित ज्ञान दे रहीं थीं। लेकिन दिव्या परेशान हो जाती थी। उनकी फरमाइशें पूरी करने में।
सभी उसको अपने हिसाब से उपयोग करना चाह रहीं थीं। किसी को चिप्स पापड़ बनाने के लिए सहयोग चाहिए होता किसी को सिलाई बनाई से संबंधित काम याद आ जाते थे। तो किसी के घर में किचन के सामान घट जाते थे।संकोची स्वभाव के कारण वह ना नहीं कह पाती थी।
इस वजह से वह क्षतिपूर्ति की मशीन बन गई थी। ऐसी ही मनःस्थिति के समय उसकी सास की सहेली अतिथि स्वरूप एक दिन उसके घर आईं। वे लगभग एक सप्ताह तक रहीं। उन्होंने पड़ोसियों की प्रवृत्ति को परखने के बाद दिव्या से कहा बेटा ” एक दूसरे की मदद करना अच्छी बात है। पड़ोसियों से संबंध मधुर हों यह भी अच्छी बात है। लेकिन किसी की सहायता करने से पहले पात्र कुपात्र की परख अवश्य करनी चाहिए।” दिव्या ने कहा आंटी जी हमें आप व्यक्ति को परखने का तरीका बताईये।
उन्होंने मुस्कराते हुए कहा बेटी सहायता माँगने वालों से आपको भी सहायता माँगना चाहिए। आपको जरूरत न हो तब भी। तभी स्वार्थी और जरूरतमंद की पहचान होती है। आंटी जी के जाने के बाद दिव्या ने उनकी सीख का प्रयोग किया तो वह बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालीं महिलाओं ने उससे दूरी बना ली, और जरूरतमंद के लिए तो वह सदैव हाजिर रहती है।
#स्वार्थ
स्वरचित – मधु शुक्ला .
सतना, मध्यप्रदेश.