औलाद के मोह के कारण वह सब सह गई। पति के बिना बेटे और बेटी को पालना कोई इतना आसान थोड़े ही था। पति और सास की मृत्यु के बाद गांव में रहने खाने का कोई भी तो ठिकाना नहीं था।
गायत्री अपने दोनों बच्चों को लेकर मायके आ गई। मायके में माता-पिता और भाई के परिवार के 8 बच्चे होने तक वह घर के काम में अपनी जान लगा रही थी परन्तु पिता की मृत्यु के बाद तो उस घर में अपना वजूद उसे भार सा लगता था। हालांकि सारा दिन काम के बदले कोई पैसे थोड़े ही मिलते थे, हां इतना जरूर था कि भाई के बच्चों के साथ ही उसका बेटा भी स्कूल में दाखिल करवा दिया गया था। तब बेटियों की पढ़ाई का इतना चलन भी तो न था।
कभी-कभी वह अपनी ननद के घर भी अपने बच्चों को ले जाती थी। ननद का परिवार भी जमींदार परिवार था। ननदोई भी पोस्ट ऑफिस में अच्छे पद पर थे। घूंघट करके वह सारा दिन ननद के घर में काम करती रहती थी। हालांकि ननद ननदोई को वह इतनी भार तो नहीं लगती थी परंतु ननद के घर इतने समय रहने से खुद ही लाज आती थी।
वह आज का जमाना नहीं था ग्रामीण परिवेश में अपनापन बना रहता था परंतु औरतों के घर के काम की कोई कीमत नहीं मानी जाती थी। उन्होंने तो घर का काम करना ही होता था।
हां भाभी, मां, और ननद को उसके रहने से घर के काम में सहायता मिलती थी। कभी-कभी बच्चे बुआ के बच्चों के या भाई के बच्चों के जैसे जिद भी कर लेते थे बच्चों को समझाना मुश्किल हो जाता था। बेटा तो मामा के बच्चों के साथ स्कूल जाता था परंतु लड़की को लेकर वह झूले की तरह कभी अपनी ननद के और कभी अपने मायके के गांव यूं ही घूमती रहती थी।
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समय बीता, बेटी का विवाह भी मामा ने करवा दिया था और बेटे की शहर में नौकरी लग गई थी। अब गायत्री के पास शहर में ही बेटे बहू के पास अपना एक ठिकाना और हो गया था। अब वह कभी-कभी अपने पति के गांव भी ,जाती थी वहां छोटा सा घर, जिसकी दीवारें और छत की कड़ियां गिरने को ही थी ,
बेटे को कहकर थोड़ी बहुत मरम्मत करवा ली थी। शहर में जब से गायत्री को वह घर बहू का घर लगने लगा तो गांव में अपने उस कच्चे घर में ही बहुत सुकून मिलता था।
परंतु वहां रहकर शायद उससे यह एहसास होता था कि जिम्मेदारियां पूरी हो गई और अब वह भी अपने घर में रह सकती है। कभी बारिश होती तो गांव में साथ वाले घर की चाची उसे अपने घर में सोने को कह देती। यूं भी दिन में अधिकतर समय वह चाचा के साथ उसके काम करवाने में ही बिताती थी।
गायत्री ने तो जहां भी जाना था काम ही करना था। उम्र का असर भले ही उसके चेहरे की झुर्रियां के रूप में आया हो परंतु उसके काम करने में तो कोई कमी नहीं आई।
गांव में चाची ने जब गायत्री से अनुरोध किया कि वह उसकी शहर में अकेली रहने वाली उसकी बीमार बहन के पास रहकर कुछ दिन उसकी तीमारदारी कर ले क्योंकि उनकी बहन के बच्चे दूर रहकर नौकरी करते हैं और उन्हें मां का ख्याल करने के लिए एक सहायिका की आवश्यकता है।
मुझे पता है तुम मेरी बहन को ठीक कर सकती हो। गायत्री सहायिका बनकर चाची की बहन के पास आराम से रहने लगी। सेवा करने के पैसे भी मिलते हैं यह सोचकर तो गायत्री हैरान थी। उसने अब तक इतना काम किया और फिर भी उसके काम की कीमत कुछ भी नहीं थी। अब वह आत्मसम्मान से जीना सीख गई थी।
बहु बेटे जब उसे लेने को आए तो उसने उन्हें यह कहकर मना कर दिया कि नहीं मैं सिर्फ सेवा करना जानती हूं परंतु अब तो मुझे सेवा के लिए मूल्य भी मिलता है। कभी मुझे जरुरत हुई तो मैं जरूर तुम्हारे पास आऊंगी। तब से गायत्री एक सहायिका के जैसे बहुत सी महिलाओं को अपनी सेवा से ठीक भी कर चुकी है।
अब सब गायत्री का बहुत सम्मान करते हैं। उसके पास बहुत से पैसे भी जमा हो गए हैं । आज वह बहुत प्रसन्न और संतुष्ट हैं। अपनों के लिए उसने कितना काम किया परंतु फिर भी सबने गायत्री पर अपना एहसान ही चढाया। आज उसके पास बहुत से पैसे भी थे और आत्मसम्मान भी।
अपने अपनों के ही काम की कीमत क्यों नहीं समझते?पाठकगण आपका इस विषय में क्या ख्याल है?
मधु वशिष्ठ, फरीदाबाद, हरियाणा