माता पिता की इकलौती बिटिया सिया होनहार, प्रत्येक नई चीज सीखने के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली प्रतिभाशाली एमबीए की छात्रा रही थी। एमबीए समाप्त होने के बाद प्लेसमेंट ना लेकर वह एक कंपनी में जॉब इंटरव्यू के लिए गई। कंपनी की सीईओ मिसेज मेहता भी उस इंटरव्यू में उपस्थित थी और सिया से काफी प्रभावित हुई थी। सिया की ट्रेनिंग सेशन में भी वो मौजूद रही और प्रतिभा को देखते हुए उसे खुद की निजी सहायक के तौर पर नियुक्त कर लिया।
सिया मिसेज मेहता की इज्जत एक गुरु की तरह करती थी, क्योंकि मिसेज मेहता से उसे काम की कई बारीकियां सीखने के लिए मिल रही थी और वह खुद को खुशकिस्मत मानती थी कि बॉस के रूप में उसे एक मार्गदर्शक मिली थी। लेकिन मिसेज मेहता धीरे धीरे अपने रंग में आने लगी थी और सिया के साथ गुलामों सा व्यवहार करना उनका शगल हो गया। कहाॅं जा रही है, किससे मिल रही है, क्यों मिल रही है, सब कुछ का ब्यौरा उन्हें चाहिए होता था। सिया उनके व्यवहार से तंग आने लगी थी और परेशान रहने लगी थी। वो समझ नहीं पा रही थी कि उसकी कोई निजी जिंदगी बची भी है कि नहीं। इसका असर उसके काम और स्वास्थ्य पर पर भी दिखने लगा था, मानो उसकी विनम्रता उसकी दुश्मन बन बैठी थी। घर आते ही वह बिना खाए-पिए कमरे में चली जाती थी।
“सिया, यहां आओ बेटा”, एक दिन जब वो ऑफिस से घर आई तो उसके पिता दफ्तर से आ चुके थे और सिया को कमरे में बढ़ते देख आवाज देते हैं।
“क्या बात है बेटा, आजकल ना तो तुम हमारे साथ बैठती हो और ना ही दफ्तर की कोई बात ही करती हो। दिनोंदिन तुम्हारा स्वास्थ्य भी बिगड़ता हुआ दिख रहा है। तुम्हारे चेहरे पर पहले की तरह ओज भी नहीं है बेटा। बेटा कोई परेशानी है तो हमें बताओ।” सिया के पापा उसे अपने बगल में बिठाते हुए कहते हैं।
पापा का स्नेहिल स्पर्श पाते ही सिया की ऑंखें बरसने लगी थी और वो सिसकते हुए मिसेज मेहता के व्यवहार को उद्धृत करती है।
“बेटा, हम इंजीनियर भी जब किसी पुल की स्थिति खराब देखते हैं और देखते हैं कि बार बार सीमेंट के लेप से भी उसकी हालत सुधरने वाली नहीं है तो तोड़ कर फिर से बनाना ही उचित समझते हैं क्योंकि यदि वह पुल खुद से टूटेगा तो जाने कितनी हानि कर जाएगा। इसी तरह आत्मविश्वास पर बार बार लेप चढ़ाने से अच्छा है कि इस नौकरी को त्याग दो। नौकरी तो तुम्हें मिल ही जाएगी, लेकिन एक बार तुम्हारा आत्मविश्वास टूटा तो उसे समेटने में समय लग जाएगा। अब फैसला तुम्हें लेना है बेटा।” सिया के पापा उसे राह दिखाते हुए कहते हैं।
उस दिन के बाद थोड़े इंतजार के बाद भी जब पानी सिर पर से गुजरता हुआ लगा, तब तंग आकर एक दिन सिया ने फैसला ले ही लिया और अपना इस्तीफा मिसेज मेहता की टेबल पर रख दिया।
“मैम यह मेरा इस्तीफा है, अब मैं यहाॅं और सेवा नहीं दे सकती।” मिसेज मेहता के “क्या है ये” के सवाल पर सिया ने कहा।
“मैम आपने या आपकी कंपनी ने मुझे जो सिखाया वो आपने अपने फायदे के लिए किया। मुझ में आपको अपनी कम्पनी के लिए एक लाभदायक कर्मचारी दिखा, इसलिए आपने संज्ञान लिया।” मिसेज मेहता के याद दिलाने पर कि उन्होंने उसे सब कुछ सिखाया है, सिया ने जवाब दिया।
और मैम यदि यही सोच हर शिक्षक की हो जाए तो छात्रों का तो बेड़ा गर्क हो जाएगा। फिर छात्र शिक्षक की गुलामी तो करेगा, सम्मान तो कभी नहीं कर सकेगा और मैं आपको बता दूॅं, लिखने पढ़ने का ज्ञान मुझे मेरे सम्मानीय गुरुओं के द्वारा निःस्वार्थ भाव से मिला, जिस कारण मैंने आपको भी वही सम्मान देने का हरसंभव प्रयास किया और आगे भी मैं या कोई भी जिस कंपनी में जाऍंगे, वहाॅं कुछ नया सीखेंगे। आपके इस व्यवहार के कारण मैं ही नहीं, कई कर्मचारी यह कम्पनी छोड़ना चाहते हैं और मैंने तो सुना है कि कई अच्छे एम्प्लॉय सिर्फ इसी वजह से यहाॅं से जा चुके हैं।
“तुम यह कंपनी छोड़कर गलती करोगी सिया।” मिसेज मेहता धमकी भरे स्वर में कहती हैं।
मैम, गलत कदम और सही कदम तो भविष्य के गर्भ में है। हां, इतना जरूर है कि अब मैं अपने आत्मसम्मान के साथ और समझौता नहीं कर सकती हूं।
आपने जीवन की बहुत बड़ी सीख दी है मैम “अति सर्वत्र वर्जयेत” ज्यादा सम्मान देना भी एक दिन घातक हो सकता है, यह आपके साथ रहकर ही समझ आया। सही कहते हैं बड़े बुजुर्ग वाणी ही साथ और सम्मान दिलाता है। सम्मान तो आपका हमेशा रहेगा, लेकिन अब आगे साथ नहीं दे सकूॅंगी मैम। सिया की बातों से मिसेज मेहता हतप्रभ सी रह गई थी। आज पहली बार किसी ने उन्हें आईना दिखाने की जुर्रत की थी और सिया उनके कैबिन के बाहर आकर अपना समान समेटती हुई अपने फैसले पर मुस्कुराती हुई एक गहरी साॅंस लेती है, मानो आज बहुत दिनों बाद उसे आजादी मिली हो और वह स्वच्छ हवा में साॅंस ले रही हो।
आरती झा आद्या
दिल्ली
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