टैक्सी, जैसे ही घर के सामने आकर रुकी, कुसुम की आँखों में बादल तिर आए। ये कोई नयी बात नहीं,बादल और कुसुम की आँखें,दोनों में बहनापा हो गया है। घटना और परिस्थितियों से सामना होते ही दोनों आपस में प्रगाढ़ आलिंगन कर लेतीं हैं।
घर के बाहर चारों तरफ कुछ जंगली पेड़ पौधे और घास फैल गई थी। कूड़ा- करकट की ढेरी भी कहीं -कहीं मौजूद थी। चारों ओर निगाह घुमा कर कुसुम ने एक लम्बी साँस भरी। सामने गेट के पास सीढ़ी पर चंदा बैठी थी।
ड्राइवर ने जैसे ही कार का दरवाजा खोला वह दौड़कर कार के पास आयी, कुसुम के पैर छूकर,उन्हें कार से उतरने में सहारा देती हुई बोली “आंटी, हम बाहर की सफाई भी रोज करते थे , झाड़-झंकाड़ निकालते , पर बार-बार फिर उग आते , और ये आस -पास के लोग भी न, अपने घर का कूड़ा यहीं डालते,अब किससे लड़ाई करें बताइये? चौबीसों घंटे तो हम यहाँ रहते नहीं। सुबे आकर काम करके चाभी, ऊपर खन्ना आंटी को वापिस कर देते थे ।”
कुसुम चुपचाप सुनती रही। जानती थी चंदा ख़ुद को सेफ साइड में लेने के तरीके में कितनी निपुण है। जब कुसुम के यहाँ रहने पर भी वह ठीक से काम नहीं करती थी तो अब तो कुसुम का पीठ पीछा था ।
वे घर के भीतर हॉल में आकर सोफे पर बैठ गईं। उनकी अटैची और एक बैग ड्राइवर ने लाकर वहीं हॉल में रख दिया।
“बेटा, पैसे कितने हुए?”
“माताजी, गाड़ी प्रीपेड है, आपको कुछ नहीं देना।” कहते हुए ड्राइवर ने कुसुम के पैर छू लिए ।
“खुश रहो।”कुसुम ने उसके सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया ।
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कुसुम को ड्राइवर अपने मुन्ना की तरह लगा। लेकिन मुन्ना तो कब का माँ के पैर छूना भूल गया। कहीं कुछ चटक गया कुसुम के मन में। बच्चे ऐसे बदल जाते हैं क्या?
ओह! इस समय वह अपने घर में है।इन छः माह में जो घटा,वह कुछ याद नहीं करेगी।
कुसुम,तक़रीबन छः माह से बिछड़े अपने घर, कुसुम – -निकेत को जी भर कर देखना चाहती है।टीवी, सोफा, सोफे पर बिछे कवर,सुन्दर कशीदा कारी किया मेजपोश,कॉर्नर पर सजे शो पीस, बुक स्टेण्ड पर करीने से रखी किताबें और किताबों के साइड से दीवार में लगी निकेत की तस्वीर, वैसे ही चमकीली आँखें, चेहरे पर जीवंत मुस्कान, लगा अभी तस्वीर से बाहर निकल आएँगे। कुसुम का मन भर आया।आँखों में बादल पिघलने लगे।
सबकुछ अपनी जगह पर है बस नहीं है तो इस घर का मालिक।घर की दीवारें, दरवाजे, खिड़की, पर्दे, तस्वीरें, किताबें, टेबल पर रखी निकेत की घड़ी। निकेत के बिना सब उदास। निकेत क्या गए घर की सारी रौनक़ ले गए,बची हैं तो सिर्फ वीरानियाँ।
“आंटी, बिस्तर ठीक कर दिया है।तुम अपनी पीठ सीधी कर लो थोड़ी देर को , तब तक मैं चाय बना लेती हूँ , दूध सुबे ले आयी थी , शक़्कर चायपत्ती रखी है घर में,मैं सब देख ली हूँ।”चंदा की आवाज़ सुन संज्ञान में लौट आई कुसुम।
चंदा किचिन की तरफ जा ही रही थी कि मिसेज़ खन्ना ट्रे में चाय, पोहा लेकर अपनी कुक के साथ आ गईं।
“बहिन जी,चाय- नाश्ता करके फिर आराम करिये।”
“आपने क्यों तकलीफ की, चंदा बना रही हैं न चाय।”
“इसमें काहे की तकलीफ, आप सुबह की निकली होंगी। थक गईं होंगी। चंदा बता रही थी,आप रास्ते का कुछ खाती पीती नहीं। इस समय आपको चाय की सख्त जरूरत लग रही होगी। उठिये चाय नाश्ते के बाद आराम कर लीजिएगा ।”
मिसेज़ खन्ना जाते -जाते चंदा से कहतीं गईं “बहिन जी का खाना हम ऊपर ही बनवा लेंगे आज़। तुम घर की साफ सफाई देख लो। तुम और लीला (उनकी कुक ) यहीं से खाना खाकर अपने घर जाना । “
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निकेत ने रिटायरमेंट के बाद बड़े चाव से यह दुमंज़िला सर्व सुविधा युक्त मकान बनवाया था। प्लानिंग यह कि कुसुम और निकेत नीचे की मंज़िल में रहेंगे और मुन्ना अपने परिवार के साथ छुट्टियों में, जब भी पुणे से आया करेगा तो उन लोंगो का बेडरूम ऊपर रहेगा, एक कमरा अलग से बच्चों के लिए, जो पूरी सज्जा के साथ डेकोरेट किया गया था।टीवी फ्रिज, कम्प्यूटर,वाई- फाई, एसी, गीजर। सारी सुविधा उपलब्ध।घर का नाम क्या रखा जाय, इस पर दोनों में थोड़ी बहस जरूर हुई पर उसके बाद दोनों की सम्मति से प्रवेश द्वार पर कुसुम-निकेत की नाम-पट्टीका सज गई।
तीन साल तक कुसुम -निकेत का घर आँगन खुशियों से चहकता, चमकता रहा। मुन्ना,बहू और बच्चों की आवा- जाही, बहू की गोद भराई, बच्चों के मुंडन, कनछेदन,तीज त्यौहार की इसी घर में धूमधाम रहती थी । मेहमानों से हरदम भरा हँसता -विहँसता रहा कुसुम-निकेत।
इसी बीच मुन्ना ने भी मुंबई में अपना थ्री बेडरूम का फ्लैट ले लिया।
अचानक ह्रदयाघात से निकेत का चले जाना,कुसुम का तो संसार ही उजड़ गया,कैसे अच्छा भला आदमी रात में खाना खाकर सोया और नींद में ही चल बसा। अभी भी कुसुम को विश्वास नहीं होता।लगता है अभी निकेत बगल वाले कमरे से आएंगे और कहेँगे ” यार मौसम बढ़िया है,चलो मॉल घूम आतें हैं—-या फिर कुसुम के कंधों पर हाथ रख मुस्कराते हुए बोलेंगे “एक कप चाय मिलेंगी क्या?” कितने शौक़ीन थे अदरक वाली चाय के।लो बादल फिर घुमड़ने लगे आँखों में।
“आंटी, सो गईं क्या? खन्ना आंटी आईं हैं।”
कुसुम ने आँसू पोछे, बिस्तर से उठ बाहर हॉल में आ गई। मिसेज़ खन्ना के साथ उनके पति भी थे। कुसुम ने उन्हें नमस्ते की ,दोनों को सोफे पर बैठने का इशारा किया, ख़ुद भी उनके सामने रखे सोफे पर बैठ गई। कुछ देर तीनों में से कोई कुछ नहीं बोला। फिर खन्ना जी ने ही मौन भंग किया,एक फॉर्मल संवाद के साथ “कैसी हैं आप?”
“जी, ठीक हूँ।”
“बारिश तो यहाँ अच्छी हुई, पर उमस से सड़ी गर्मी नहीं गई। ” कुसुम ने सिर हिलाकर समर्थन किया।
उन्होंने फिर पूछा “मुंबई का मौसम कैसा है?”
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“जी, कमोबेश ऐसा ही।”
खन्ना जी कुछ आगे बोलते कि मिसेज़ खन्ना मुद्दे की बात पर आईं। “बहिन जी, खाना तैयार है। टाईम भी हो रहा है, आठ बज रहें हैं। इन दोनों को भी अपने घर जाना होगा।”उन्होंने चंदा की तरफ इशारा करते हुए कहा। दोनों से उनका मतलब उनकी कुक से भी था।
“आपका खाना नीचे भिजवा दें या हम लोंगो के साथ ऊपर खाना पसंद करेंगी?”
“जैसी आपको सुविधा हो।” संकोच से कुसुम ने कहा।
“तो आज़ आप हमारे साथ ही खाना खाइये। चंदा, बहिन जी को साथ लेकर ऊपर आ जाना । “कहते हुए मिसेज़ खन्ना ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों की ओर बढ़ी , खन्ना जी भी उनके साथ हो लिए ।
मिसेज़ खन्ना एक -दो साल छोटी ही होगी कुसुम से , लेकिन खन्ना जी निकेत के ही हमउम्र लगते थे। कुसुम को बहुत चिंता थी, पता नहीं कैसे लोग होंगे। मुंबई जाने की जल्दी में इन लोंगो से न ठीक से मिल पाई, न ही बात कर पायी थी । सब मुन्ना ने ही तय किया, किराये से लेके पानी बिजली के बिल तक। मुन्ना ने बताया था, बच्चे नहीं हैं इनके, अपना मकान बनाया नहीं किराये के मकान में ही पूरी ज़िन्दगी काट दी।पर दोनों ही सरल सहज हैं।निकेत की तेरहवीं के बाद मुश्किल से पंद्रह दिन ही तो वह और मुन्ना यहाँ रह पाये। बहू बच्चे तो तेरहवीं के दूसरे दिन ही मुंबई चले गए । बहू की स्कूल से मिली छुट्टीयाँ ख़त्म हो गई थीं और बच्चों की पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा था।
मुन्ना ने पैकर्स एंड मूवर्स से ऊपर के कमरों का सारा सामान टीवी, सागोन के पलंग, सोफा, फ्रिज, मुंबई भेज दिया।ऊपर के बड़े तीन कमरे, उनसे जुड़ी छत, जो गमलो और और पेड पौधों, फूलों से सजी थी सब खाली हो गए, बोर्ड लग गया टू -लेट का।
किरायेदार भी आ गए।
कुसुम की मुंबई जाने की तैयारी हो गई । यह प्रवास कब तक का होगा कुसुम को भी नहीं पता था।
उसकी आँखों में बार -बार पानी भर आता है। कुसुम ने अपनी आँखों को पोछा, करवट ली, सोने की कोशिश करने लगी। पर नींद कहाँ? नींद तो निकेत अपने साथ ले गए और बदले में दे गए अकेलेपन का दर्द।
कुसुम ने जाते समय चंदा को हिदायत दी थी कि रोज चाभी मिसेज़ खन्ना से लेकर घर की साफ-सफाई करने के बाद,चाभी उन्हीं को दे दिया करना। हर माह की तनख्वाह खन्ना आंटी से उसे मिल जायेगी।
उसने सोचा था एक – दो महीने बाद वह वापिस लौट आएगी ।
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मुंबई,भीड़ ही भीड़, सड़कें गाड़ियों से पटी। आसमान छूती बिल्डिंग । सिर ऊँचा करके देखें तो गर्दनमें दर्द होने लगे। उसका मुंबई में पहिली बार आना हुआ। मुन्ना को छः महीने ही हुआ होगा मुंबई आए, इससे पहिले तो वह बच्चों के साथ पुणे में ही था। मुंबई में उसकी ससुराल थी उन्हीं लोंगो ने यह फ्लैट बुक करा दिया ।निकेत तो मुंबई आ ही नहीं पाये । मप्र में जन्मे, वहीं नौकरी-तबादले हुए और रिटायर होने के बाद अपने गृहनगर सीहोर में घर बना लिया।
मुन्ना की बहू ने फ्लैट की सुन्दर सज्जा की थी। फ्लैट में एक हॉल, हॉल में ही पार्टीशन किया किचन, तीन बेड रूम विद अटैच लेटबाथ,दो बालकनी।फ्लैट की सजावट में सीहोर के सामान का भी उपयोग किया गया था। इसमें उन्हें मुन्ना और बहू का कुसुम-निकेत से अपनापन महसूस हुआ। कुसुम को लगा जैसे वह सीहोर में ही है। सिर्फ चेतन में ही नहीं जड़ वस्तुओं में भी अपनत्व की खुशबू बसी होती है। फ्लैट दसवीं फ्लोर पर था पर्याप्त हवा और रोशनी के साथ । कैम्पस में हरियाली, और बच्चों के लिए प्ले एरिया।बहू ने बताया कि केम्पस एरिया में मंदिर भी है। शाम को मुन्ना और बच्चों ने मिलकर कुसुम को कैम्पस भी घुमा दिया। डिनर करके बहू मुन्ना अपने कमरे में, बच्चे अपने बेडरूम में और कुसुम अपने कमरे में।
शुरू के कुछ दिन कुसुम को उस घर की व्यवस्था से स्वयं को सामंजस्य बिठाने मे लगे। उसका, बहू के साथ रहने का अनुभव ज़्यादा नहीं था। ब्याह कर बहू जब ससुराल आई,तो दो दिन नयी बहू के रीति रिवाज मे बीते फिर उनका हनीमून और हनीमून से लौटने के दूसरे दिन ही दोनों पुणे जाने की तैयारी करने लगे ।उसके बाद बस तीज त्यौहार पर ही मुन्ना बहू बच्चों के साथ सीहोर आता कुछ दिन के लिए।सास,बहू मे आत्मीयता और प्रेम आता कहाँ से? इसके लिए संग साथ रहना जरूरी है। प्रेम, लगाव,अपनापन साथ रहने से बढ़ता है। वरना दोचार दिन के साथ मे केवल औपचारिकता रहती है।
कुसुम सुबह वाक के लिए निकलती, वहीं से मंदिर जाती, कैम्पस के इकलौते मंदिर मे राम सीता जानकी की बड़ी मूर्ति के अलावा हनुमान,शिव पार्वती,गणेश,
और अन्य देवी देवताओं की मूर्तियाँ विराजी हुई थी।सबके दर्शन कर परिवार की कुशल मंगल के लिए प्रार्थना करती।
केम्पस मे वाक करते हुए उसे कई लोग मिलते, औरतें जो लगभग उसकी ही उम्र की, कुछ उससे बड़ी, कुछ पति पत्नी के जोड़े, लड़कियाँ, भागते दौड़ते बच्चे। कहीं प्राणायाम हो रहा है।कहीं लगभग दौड़ते हुए लोग चल रहें हैं।
क्यारियों मे लगे पेडों को झूला झुलाती हवा, फूलों पर पड़ती सूरज की नरम किरणे। कुसुम को सब जीवंत लगते , आशाओं और उम्मीदों से लबालब।
इधर दो -तीन दिनों से जो चेहरे उसके लिए अनजाने थे, अब जाने -पहचाने लगने लगे। अब ये चेहरे कुसुम को देखते ही मुस्करा देते, एक प्यारी मनभावन मुस्कान,प्रतिउत्तर मे कुसुम का चेहरा भी खिल उठता। कितनी अजीब बात है न, ये डेढ़ इंच मुस्कान की करामात अनजानेपन की खाई को आसानी से भर देती है। कुसुम को मुस्कुराहट का लेन -देन भाने लगा।
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मंदिर मे भगवान के दर्शन करने बाद, अपने फ्लेट में पहुँचते तक कलाबाई और जमनाबाई दोनों आ जातीं। कलाबाई,सीधे किचिन संभालती और जमना घर की सफाई।
ठीक नौ बजे मुन्ना, बच्चे, बहू तैयार होकर नाश्ते की टेबल पर आ जाते। नाश्ता सब साथ मे करते।बहू ने प्राइवेट स्कूल मे कम्प्यूटर टीचर का जॉब ज्वाइन किया हुआ था, और दोनों जुड़वाँ बच्चे,निखिल और निक्की माँ के साथ ही स्कूल जाते।
कलाबाई सबके लंच बॉक्स तैयार कर देती। मुन्ना,पहिले बहू- बच्चों को उनके स्कूल ड्राप करता फिर वहीं से अपनी कम्पनी चला जाता। बहू और बच्चे, स्कूल बस से शाम साढ़े चार बजे तक घर आ जाते। मुन्ना जरूर रात आठ बजे तक ही कम्पनी से लौट पाता।
दस बजे तक सबके जाने के बाद घर मे अकेली रह जाती कुसुम, कुसुम की दो-चार किताबें जो सीहोर से लेकर आई थी , टीवी और सिहोर की यादें। यहाँ भाषा का अवरोध मित्रता की दीवार के बीच खड़ा हो जाता। कुसुम को मराठी नहीं समझती थी,पर
धीरे -धीरे कला और जमना, के कारण वह थोड़े मराठी के शब्द समझने लगी।
अभी तक कुसुम को सुबह पार्क मे मिलने वाली महिलाओं से केवल एक दूसरे को देखकर मुस्कराने भर की पहचान थीं, बातचीत किसी से नहीं होती थी आज़ अचानक उनमें से ही एक महिला मुस्कराते हुए कुसुम के करीब आयी। दुबली पतली, खूब गोरा रंग और सफ़ेद बाल,कसे जुड़े मे बंधे हुए, गुलाबी साड़ी के रंग की छाया उनके चेहरे पर झलक रही थी।मुस्कराते हुए कुसुम से पूछा ” आप किस ब्लॉक मे रहतीं हैं?
“जी एम ब्लॉक मे, टेंथ फ्लोर पर।”
“बेटे के घर रहतीं हैं?”
कुसुम के दिल मे कुछ चुभा। बेटे का घर? सही तो कहा इन्होंने, घर तो बेटे का है, उसने हाँ मे सिर हिला दिया।
“मैं एल ब्लॉक मे रहतीं हूँ। पिछले पाँच साल से मैं यहाँ बेटी के घर रह रहीं हूँ। मेरे हस्बेंड की डेथ के बाद से बेटी मुझे अकेले नहीं रहने देती। वो अपना घर छोड़कर तो मेरे पास नहीं रह सकती न, मुझे अपने साथ यहाँ ले आयी ।”
“आप मराठी हैं?”
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“नहीं, गुजराती। भाव नगर मे मेरा घर था, बेच दिया। क्या करते रख कर। एक ही बेटी है। बेटी के घर रहना अच्छा नहीं लगता,पर मज़बूरी हैं। इस उम्र मे कहाँ जाय?”बोलते हुए उनका गला भर आया।
बेटे का घर, बेटी का घर —-बुढ़ापे की मज़बूरीयाँ ।
अभी दो दिन पहिले की ही तो बात है, बहू के स्कूल की सहेलियाँ आईं थीं, शायद पहिली बार आईं थीं, कला बाई, छुट्टी पर थी कुसुम चाय बना रही थी ,बहू उन्हेंअपना घर दिखा रही थी,–ये बालकनी– किचिन, ये बच्चों का बेडरूम, ये हमारा बेडरूम और इधर ये गेस्ट रूम। उसने कुसुम के रूम की तरफ इशारा कर बताया।
गेस्ट रूम —फिर कुसुम का मन चटका।बहू मम्मी का रूम भी तो कह सकती थी।गेस्ट –मतलब कुसुम मेहमान है केवल। ऑंखें डबडबाने लगी। संभाल लिया कुसुम ने अपने को — बहू ठीक ही कह रही है, वह मेहमान ही तो है। एक -दो महीने रहकर चली जाएगी अपने नगर सीहोर -अपने घर कुसुम-निकेत।
हर रोज एक नयी ठोकर, हर रोज अपने को संभालना, मन को समझाना।
निकेत ने जब घर बनवाया , गृह प्रवेश के दिन निकेत ने उससे कहा था -“आज़ मुझे बहुत संतुष्टि हो रही है। तुम्हारे लिए बंगला तो न बनवा सका पर यह छत तुम्हें गिफ्ट कर रहा हूँ। भविष्य किसने जाना , मान लो कभी अकेली हो जाओ तो, तुम्हें किसी के आसरे नहीं रहना पड़ेगा।”
“क्यों अकेली रहूँगी मैं? इतने शुभ दिन और ऐसी अशुभ बात।अब कभी मत कहना। तुम्हे मेरी कसम। ये गिफ्ट दे रहे हो या मुझे रुला रहे हो। और मैंने कब बँगला माँगा तुमसे? मेरे लिए तो कुसुम-निकेत किसी महल से कम नहीं।”
भविष्य किसने जाना, सच कहा था निकेत ने । आभारी है कुसुम, निकेत की। एक यही संबल है उसके लिए।
जब-जब वह बेटे के परिवार से जुड़ने की कोशिश करती कोई कोई काँटा दिल में चुभ जाता। छोटी-छोटी बात उसे चोट करती। वह हर बात, हर घटना का उल्टा अर्थ लेती। बेटा बहू दो बच्चों के बीच में भी अकेलापन महसूस करती। लगता इनमें कोई अपना नहीं हैं। ये सभी उसे बोझ की भाँति ढो रहें हैं।अवसाद का जहर उसके शरीर में धीरे -धीरे घुल रहा था ।
चार महीने हो गए मुंबई में। समय काटना उसे मुश्किल लगने लगा। बहुत कोशिश करती की तकलीफ देने वाली बातों को दिल पर न ले। परिवार में बँधने और परिवार को बाँधने के लिए छोटी-मोटी बातों को नज़रअंदाज करना चाहिए,लेकिन इतना सहज नहीं हैं नज़र अंदाज करना। इंसान के पास मन हैं तो भावनाएँ भी रहेंगी। भावनाओं पर चोट होगी तो मन कराहेगा ही।
दूध गरम करते समय दूध फट गया, बहू बोली “मम्मी, आपने दूध गरम करने से पहिले बर्तन अच्छे पानी से धोया था क्या? “
“हाँ, मैं हमेशा दूध गरम करने से पहिले बर्तन धो लेतीं हूँ ।”
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मेरे सास ससुर माँ बाप से नहीं – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi
“फिर कैसे फट गया? मम्मी आप भूल गईं होंगी बर्तन साफ करना । कलाबाई, मिल्क बूथ से दूध ले आओ, और हाँ गरम करने से पहले याद से बर्तन धो लेना ।”
दूध तो एक किलो फटा, कुसुम का मन, मन -भर फट गया।
अब हर बात चुभती है, और चुप रह जाना मज़बूरी है।
कुसुम ने इन छः महीनों में अच्छे से सीख लिया, वह बेटे के घर है, अपने घर नहीं।
,”मम्मी बुआ जी नहीं रहीं। सतेंद्र भैय्या का फोन आया था। मुझे तो छुट्टी नहीं मिल पायेगी। मेरा दोस्त कुमार परसों भोपाल जा रहा है, आप मिली हैं न उससे, वही जो पिछले हफ्ते अपने यहाँ आया था, गोरा,लम्बा, थोड़ा हकलाता है।आप कहो तो आपका भी रिजर्वेशन करा दूँ, भोपाल तक साथ हो जाएगा, वहाँ से टैक्सी बुक कर देंगे सीहोर के लिए। आप सोच के बता दो जाओगी या नहीं।”
“ठीक है मेरा रिजर्वेशन करा दो।”
कुसुम इतना ही कह पायी। जिज्जी,निकेत की बड़ी बहिन। निकेत जिज्जी को माँ की तरह मानते थे। जिज्जी भी निकेत और सतेंद्र में फर्क नहीं करती थी। निकेत के न रहने कितना रोईं थी, कुसुम अपना दुःख भूल कर उनको ही समझाती।सतेंद्र दो साल का रहा होगा तभी जीजाजी सड़क दुर्घटना में नहीं रहे। जीजाजी विद्यालय में प्राचार्य थे।
इंटर पास जिज्जी को उनकी जगह शिक्षिका की अनुकम्पा नियुक्ति मिली। निकेत बताया करते थे, जिज्जी ने बड़े दुःख में दिन काटे। बीमार सास-ससुर की देखभाल, छोटा सतेंद्र और निकेत भी उन्हीं के पास रहकर पढ़ाई कर रहे थे। जिज्जी ने संकट के समय का धीरज और हिम्मत से मुकाबला किया।इसी बीच अम्मा और बाबू का गुजर जाना। उसके बाद जिज्जी के सास ससुर का भी देहांत होना। एक के बाद एक घर के बुजुर्गों का साथ छूटना,बच्चों को अनाथ असहाय, बना देता है।
निकेत, कुसुम से उन दिनों की चर्चा करते हुए अक्सर भावुक हो जाते थे।कुसुम को जिज्जी ने ही निकेत के लिए पसंद किया था। विवाह में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अम्मा बाबू की कमी कहीं भी महसूस होने नहीं दी जिज्जी ने।
यादों के गालियारे में भटकते भटकते कब कुसुम नींद की गली में पहुँच गई उसे पता नहीं चला।
सुबह चन्दा ने आकर कुसुम को जगाया ,चाय और नाश्ता तैयार किया । जिज्जी के घर जाने के लिए कुसुम तैयार हुई। थकान अभी उतरी नहीं थी उसकी, पर जिज्जी यहाँ जाने के लिए मन तड़प रहा था। कुसुम ने ऑटो बुलाया और सिर्फ चाय पीकर जिज्जी के घर रवाना हुई।
हमेशा उसके आने पर जिज्जी दरवाजे पर खड़ी इंतज़ार करती मिलती थीं, पर आज़ —— कैसे धीरे धीरे एक पीढ़ी इतिहास बनने लगी, मन भारी हो गया कुसुम का। जिज्जी को नहीं रहे दस दिन ही हुए थे, पर किसी को उनके जाने का दुःख हो ऐसा नहीं लगता था।सभी परिजन सामान्य दिनचर्या में व्यस्त थे। सतेंद्र अपने ससुर जी के साथ,पंडित जी से त्रयोदशी के कार्यक्रम की चर्चा कर रहा था।
उसकी पत्नी परिजनों के नाश्ते के लिए महराजिन को निर्देश दे रही थी। कहीं कुछ भी नहीं बदला था, बस जिज्जी नहीं थीं। कुसुम सोच रही थी, भाग्यशाली थी जिज्जी उन्हें अपना घर, अपनी देहरी छोड़ कर कहीं जाना नहीं पड़ा। पूरी ज़िन्दगी शान से अपने घर में रहीं। अब मरने के बाद कोई उनके लिए रोये या हँसे, क्या फर्क पड़ता है। हाँ एक घर जो उसे जिज्जी के रहते अपना सा लगता आज वह अपनापन नहीं है यहाँ।
कुसुमनिकेत में कुसुम के पुराने दिन लौट आए। दूधवाला भैय्या दूध दे जाता, सब्जी वाला गुड्डू अपना ठेला उनके दरवाजे पर लाकर खड़ा करता , कुमार मेडिकल स्टोर का लड़का एक फोन पर घर पर मेडिसिन दे जाता। डॉ नीला बराबर उसकी तबियत का हाल लेती रहतीं। नहीं लौटे तो निकेत। अब वो लौटेंगे भी नहीं। यादें ही साथ हैं उनकी ।ज़िन्दगी ने रफ़्तार पकड़ना शुरू ही किया था, कि मिसेज़ खन्ना ने ऐसी ख़बर सुनाई जिससे कुसुम का दिल ही बैठ गया। बहुत आसरा था उसे खन्ना दम्पति से। मिसेज़ खन्ना ने बताया कि सहारनपुर के उनके पुश्तैनी घर का भाइयों के बीच बटवारा हो गया है। जिसमें उनके हिस्से में भी तीन कमरे आए हैं। खन्ना जी भी अब उम्र के इस पड़ाव पर अपने भाई बन्धुओं के बीच रहना चाहतें हैं।
कुसुम-निकेत में वह नितांत अकेली है। अकेलेपन की अनुभूति किसी बीमारी से कम नहीं होती ।शरीर थकने लगा,उदासी मन को घेरने लगी है। रिश्तेदारों और संगी साथियों की सहानुभूति में उसे स्वार्थ की बू आने लगी। कुछ दिन पहिले ही निकेत के दूर के रिश्ते में लगते चचेरे भाई आए, बड़ी देर तक इधर-उधर की बात करते रहे।कुसुम के स्वास्थ्य का हाल लिया,बीपी शुगर की आयुर्वेदिक दवाइयाँ बताई, दावा किया कि ये दवाईयाँ शर्तिया बीपी शुगर की रामबाण दवाई हैं। मुन्ना की नौकरी और मुंबई के मौसम का हाल लेते
रहे, फिर मुद्दे की बात पर आए ” भाभी जी, आप अकेली कब तक रहोगी, एक न एक दिन तो आपको मुन्ना के पास मुंबई में रहना पड़ेगा। अगर आपका इस घर को बेचने का इरादा हो तो बताइये, हम और लोंगो की अपेक्षा ज्यादा कीमत देंगे।आपका घर, परिवार वालों के पास रहेगा। जब भी सीहोर आएं, इसी घर में, जितने दिन मन करे रहिएगा।” कसक गया कुसुम का मन, लगा इसी वक़्त इस आदमी को घर के बाहर खदेड़ दे, पर चुप रह गई, है तो निकेत का चचेरा भाई, कहीं न कहीं से खून का रिश्ता जुड़ा है।इससे अधिक पीड़ा तो कुसुम को तब होती जब लोग अपनी संवेदनाओं में उसे बेचारी का तोहफा देते ” आजकल की औलादें बहुत स्वार्थी होती हैं,बूढ़ी माँ पर ज़रा तरस नहीं आता,अकेला छोड़ दिया उसे ।”
” बीबी के आगे माँ को कौन पूछता, गुलाम बने फिरते बीबी के । ” किस-किस को रोके कुसुम।
ये बात नहीं कि मुन्ना को कुसुम की चिंता न हो। हर दूसरे दिन माँ को केवल फोन ही नहीं करता, बल्कि उसे मुंबई आने के लिए ज़िद भी करता, हर बार कुसुम ही मना कर देती।
आज फिर मुन्ना का फोन आया “माँ कैसी हो?” न चाहते हुए भी कुसुम फफ़क़ कर रो पड़ी। “क्या हुआ माँ? मै आ रहा हूँ,तुम्हें लेने के लिए।”
“बेटा, यहाँ घर का क्या होगा।”
” मैंने सब इंतज़ाम कर लिया है।
” क्या इंतज़ाम किया है? घबरा गई कुसुम “घर बेचने की तो नहीं सोच रहा?
“माँ तुम भी, –मेरे पापा का घर है। तुम्हारी मर्जी के बिना कुछ नहीं होगा। सीहोर में बैंक के जो नये मैनेजर आए हैं उन्हें किराये से फर्नीश्ड मकान चाहिए।तीन साल का इकरारनामा होगा।मेरी उनसे बात हो गई है,वैसे भी इनलोगो का जॉब ट्रांसफरेबल है।अब आप अपनी मुंबई की तैयारी करो।”
“तीन साल।”कुसुम ने एक लम्बी साँस ली।
परिस्थितियों से समझौता करने में ही समझदारी है, यहाँ अकेले, दूसरों की दया का पात्र बनकर कोई कबतक रह सकता है?मुन्ना जब भी फोन पर बात करता उसे मुंबई आने के लिए कहता है। अभी भी उसकी आवाज़ सुनकर कितना बेचैन हो गया था।जब वह सीहोर आ रही थी, बहू ने कितनी हिदायतें दी,”मम्मी दवाई बराबर लेती रहना,अपनी तबियत का ख़्याल रखना, जब भी आपका मन यहाँ आने का करे, आप फोन कर देना ये लेने आ जाएंगे ” बहू भी बेटी ही है। बेटियाँ भी कभी- कभी माँ से ऊँचे स्वर में बात कह देतीं हैं तो माँ बुरा मानती है क्या?
उसने अटैची में अपनी साड़ियाँ, निकेत की तस्वीर, चश्मा, घड़ी और कुछप्रिय किताबें रखीं, फिर पूजा घर में विराजे लड्डू गोपाल भी रख लिए। सब सामान रखते हुए उसे लग रहा था मानो अटैची में वह अपनी ज़िन्दगी रख रही हो।
सुनीता मिश्रा
भोपाल