विशाखा आज पहली बार रिटायरमेंट के बाद अपने घर में अकेली थी क्योंकि परिवार के सभी सदस्य अपने अपने काम पर घर से निकल चुके थे ।आज वह अनमनी सी किंकर्तव्यविमूढ़ बैठी हुई थी। सोचा, क्यों न प्याली चाय बनाकर आगे के बारे में सोचा जाए। वह चाय बना लाई और ड्राइंग रूम के सोफे पर चुपचाप टीवी के सामने बैठ गई,
वह अपना समय एक नए अंदाज में गुजारना चाहती थी, पर कुछ समझ में नहीं आ रहा था। टीवी का रिमोट दबाकर टीवी ऑन की लेकिन उसे उसमें भी कुछ खास नजर नहीं आया। वह टीवी बंद कर चुपचाप सोफा पर अधलेटी सी पड़ी हुई, जाने कब वह अतीत के भंवर में उलझती चली गई। उसे अपनी शादी तो स्पष्ट तौर पर याद नहीं है, पर जब सोलह की उम्र में गौना की बात जब उसके परिवार में चली थी। तब उसके सपनों को खुला आसमान मिल गया , वह नई दुनिया के लोग पति, सास, ससुर जाने कितने रिस्तों के बंधन में बंधने का ख्वाब अपने पलकों में समेटे ससुराल जाने के इंतजार में दिन काट रही थी।
आखिरकार वह पल भी आया, जब बोझिल मन से मायके से बिदा हो सपनों के संसार की राह पर कूच कर गई, कोई दो तीन घण्टे के सफर के बाद वह अपने अरमानों के संसार के द्वार पर खड़ी थी। ससुराल वालों ने परिछन और मांग बहोराई की रस्म अदायगी के साथ अपने परिवार के नए सदस्य का सब ने गर्मजोशी से स्वागत किया। पूरे परिवार में सिर्फ एक ही सदस्य नजर नहीं आ रहा था,
वो था विशाखा का पति एकलव्य। जिसके दीदार के जाने कितने सुनहरे ताने बाने सजा रखी थी, भावी जीवन के संसार में । कुछ समय बाद ही एक भारी भरकम सी आवाज उसके कानों में पड़ी -‘ मेरे मना करने के बाद भी आप लोग गौना ले आए, मांँ … लेकिन आपको पता है न, मेरा निर्णय अटल है ,अब वो आ गई तो उसे ही रहने दो, यहांँ मैं घर इस घर में एक पल नहीं रुक सकता ।’ ‘लेकिन बेटा वह तुम्हारी ब्याहता है। इस कारण यह
उसका भी घर है।’ मांँ ने समझाते हुए लहजे में कहा इसके आगे की बात चीत कुछ स्पष्ट नहीं हो पाईं थीं उसे। वह निर्दोष सजायाफ्ता कैदी सी महसूस करने लगी। उसके सपनों के पंख झड़ गए, जब उसके पति के घर छोड़कर चले जाने की सूचना उसके कानों तक खबर बन कर पहुँची। सास, ससुर, देवर और ननद सभी रिश्तों का प्यार मिला लेकिन, वही बीच राह में हाथ छुड़ा कर चला गया, जिसके साथ जीवन गुजारने का सपना लेकर आई थी।
मायके और ससुराल वालों के आपसी वार्ता के बाद वह पिता के साथ मायके लौट आई। उसके सपने सपने ही रह गए, अपने न बन पाए । अब जीवन में एक कठोर यथार्थ का धरातल था, जिसे हुनर और हौसलों की दरकार थी । विशाखा ने आंसू पोंछ अपने आपको सम्हालते हुए पढ़ाई में व्यस्त कर लिया ।
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बी.एड. ,एम.एड. फिर पी.एच. डी कर वह शिक्षा विभाग में प्रवक्ता पद पर आसीन हुई। मां, बाप, सास और ससुर का समान रूप से प्यार और आशीर्वाद मिलता रहा । वह स्वयं को अपने हुनर से संवारती और निखारती रही। वक्त के करवट के साथ मां बाप का स्थान भाई,भाभी ने ले लिया, देवर ननद ने भी साथ निभाने में कोई कोताही नहीं बरती । वह पदोन्नति पा प्रोफेसर पद तक पहुँच गई। आज उसके पास वह सब कुछ है, जो एक सफल जीवन की दरकार है । पढ़ाई, लिखाई, नौकरी , पदोन्नति के बीच वह स्वयं को इतना व्यस्त कर ली थी,
कि पिछली घटना को भयानक स्वप्न सा भूल जाए। और वह बहुत हद तक वह सफल भी थी, लेकिन आज इस एकांत पल में वह फिर उसे याद आने लगे थे। अस्तित्व की पहचान में दिल का एक कोना आज भी खाली था। उसके सपनों के सौदागर के लिए, जिसका इंतजार आज तक खत्म नहीं हुआ था। वह छलिया ही सही, लेकिन उसके अस्तित्व का एक हिस्सा था। सबकुछ पास होते हुए भी उम्र के इस पड़ाव पर भी उसकी कमी टीस बन कर साल रही थी।
(स्वरचित)
-पूनम शर्मा, वाराणसी।