सुबह का समय था, और प्रदीप के घर पर चहल-पहल थी। घर के बाहर एक बड़ा मंडप सजाया गया था, जहां पंडितों के मंत्रोच्चार गूंज रहे थे। यह सब प्रदीप के पिता की आत्मा की शांति के लिए आयोजित श्राद्ध कार्यक्रम का हिस्सा था। घर के अंदर और बाहर लोग व्यस्त थे, कोई दान के लिए वस्त्र और खाद्य सामग्री सजा रहा था, तो कोई मेहमानों की आवभगत में लगा हुआ था।
प्रदीप स्वयं यह सुनिश्चित करने में व्यस्त था कि किसी भी चीज़ की कमी न हो। उसने खुद को जिम्मेदार और पिता के प्रति समर्पित पुत्र के रूप में दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ा।
“पंडित जी, देखिए, कोई कमी न रह जाए। मेरे पिता की आत्मा को शांति मिलनी चाहिए,” वह बार-बार जोर देकर कहता।
प्रदीप के पड़ोस में उसके पिता के पुराने मित्र, श्यामलाल जी, रहते थे। श्यामलाल जी और प्रदीप के पिता का रिश्ता बहुत गहरा था। वे दोनों एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी थे। लेकिन श्यामलाल जी ने अपने मित्र की जिंदगी में वह दर्द भी देखा था, जो उनके बेटे, प्रदीप, ने उन्हें दिया था।
उस दिन, जब श्यामलाल जी अपने घर से बाहर निकले, तो प्रदीप ने उन्हें देख लिया। वह आवाज लगाकर बोला, “चाचाजी, आइए, जरा देखिए, कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई? पिताजी के श्राद्ध में कोई खामी नहीं रहनी चाहिए।”
श्यामलाल जी प्रदीप के बुलावे पर उसके घर आए, लेकिन उनकी आंखों के सामने अतीत के वे दृश्य घूमने लगे, जब प्रदीप ने अपने पिता की उपेक्षा की थी।
प्रदीप के पिता एक सरल और सादगीपूर्ण व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी मेहनत करके परिवार को संभाला। प्रदीप जब बड़ा हुआ, तो उसने अपने पिता को बोझ समझना शुरू कर दिया।
उन्हें छोटी-छोटी बातों पर डांटना, उनका अपमान करना, और उनके लिए अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेना प्रदीप के व्यवहार का हिस्सा बन गया था।
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श्यामलाल जी को वह दिन याद आया, जब प्रदीप ने अपने पिता को बाजार भेजने के लिए उनका झोला पकड़ाकर कहा था, “पिताजी, यह सामान लाना जरूरी है। मैं बहुत व्यस्त हूं। आप जाकर ले आइए।”
उस समय प्रदीप के पिता ने धूप में पैदल चलकर बाजार से सामान लाया था। वह हांफते हुए घर लौटे थे, लेकिन उनकी पीड़ा को किसी ने नहीं समझा।
श्यामलाल जी को वह दिन भी याद आया, जब प्रदीप ने अपने पिता से कहा था, “पिताजी, आपको हमेशा छाते की जरूरत क्यों पड़ती है? धूप में चलना चाहिए। शरीर स्वस्थ रहेगा।”
उस दिन उनके मित्र के चेहरे पर जो लाचारी थी, वह श्यामलाल जी के दिल को चीर गई थी।
आज जब प्रदीप ने उन्हें घर बुलाया, तो श्यामलाल जी के मन में अतीत की ये सभी बातें उभर आईं। उन्होंने देखा कि श्राद्ध के लिए दान का सामान करीने से सजाया गया था। कपड़े, बर्तन, चावल, दाल, और मिठाई सब कुछ व्यवस्थित था।
लेकिन उनके दिल में एक सवाल उठा—क्या यह सब सच में प्रदीप के पिता की आत्मा की शांति के लिए है, या समाज में दिखावा करने के लिए?
प्रदीप के कहने पर श्यामलाल जी ने दान के सामान की ओर देखा। उनकी आंखों में आंसू भर आए। उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा, “प्रदीप, तुमने वह झोला तो रखा नहीं, जिसे पकड़ाकर तुमने अपने पिताजी को धूप में बाजार भेजा था। और यह छाता भी हटा दो। उन्हें छाते की आदत तो कभी थी ही नहीं। वे तो धूप और बरसात दोनों में बिना शिकायत चलने के आदी थे।”
इतना कहकर, श्यामलाल जी ने डबडबाई आंखों से वहां खड़े लोगों की ओर देखा। उनकी आवाज में दर्द और गुस्सा था। वह बिना और कुछ कहे, घर से बाहर निकल गए।
श्यामलाल जी की बातों ने प्रदीप को असहज कर दिया। वह सोच में पड़ गया कि उनके शब्दों का क्या मतलब था। “चाचाजी तो हमेशा से अजीब बातें करते हैं,” उसने मन में सोचा। लेकिन श्यामलाल जी की बातें उसके दिल को कचोटने लगीं।
श्राद्ध का कार्यक्रम पूरा हो गया। रिश्तेदार और पड़ोसी प्रदीप की तारीफ कर रहे थे कि उसने अपने पिता के लिए कितना कुछ किया। लेकिन प्रदीप को यह समझ नहीं आ रहा था कि क्यों वह भीतर से संतुष्ट नहीं था।
वह बार-बार अपने पिता के चेहरे को याद कर रहा था। उसे याद आया, कैसे उसके पिता उसे स्कूल छोड़ने जाते थे, कैसे वह उसके लिए नई किताबें खरीदते थे, और कैसे उन्होंने अपनी जरूरतें कम करके उसके लिए हर खुशी जुटाई थी।
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लेकिन जब उसके पिता ने बुढ़ापे में उससे थोड़ा सहारा मांगा, तो उसने उनकी उपेक्षा की।
रात को, जब सब सो गए, तो प्रदीप अपने पिता की तस्वीर के सामने बैठ गया। उसने तस्वीर को देखा और कहा, “पिताजी, मैंने आपको जीते जी वह सम्मान नहीं दिया, जो आपको मिलना चाहिए था। मैं केवल दिखावे के लिए यह श्राद्ध कर रहा हूं, लेकिन आपकी आत्मा को क्या यह सच में शांति देगा?”
उसकी आंखों में आंसू भर आए। उसे एहसास हुआ कि असली श्रद्धांजलि अपने प्रियजनों को जीते जी सम्मान और प्यार देना है।
यह कहानी हमें सिखाती है कि अपने माता-पिता के प्रति हमारी जिम्मेदारी केवल उनकी मृत्यु के बाद श्रद्धांजलि देने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। असली श्रद्धांजलि उन्हें जीते जी प्यार, देखभाल, और सम्मान देकर ही दी जा सकती है।
प्रदीप का उदाहरण हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारा व्यवहार हमारे माता-पिता के प्रति सही है। क्या हम उन्हें वह सम्मान दे रहे हैं, जिसके वे हकदार हैं? यदि नहीं, तो हमें अपने व्यवहार को बदलने की जरूरत है, ताकि बाद में पछताने का मौका न मिले।
मूल लेखिका :
आशा श्रीवास्तव