अप्रत्याशित प्रश्न और उत्तर – बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

      मम्मी-मम्मी, एक बात तो बताओ जब मेरे पापा है ही नही तो आप सिंदूर क्यो लगाती हो?दादू नही रहे तो दादी सिंदूर कहाँ लगाती हैं, पड़ौसी काका पिछले महीने ही स्वर्ग सिधारे हैं तो काकी ने सिंदूर लगाना बंद कर दिया पर मम्मी,मैंने तो पापा को देखा तक नही,उससे पहले ही वे चले गये तो तुम्हारी मांग में सिंदूर क्यूँ लगा होता है, मम्मी?

      अपने छः वर्षीय मुन्ना बेटा के इस अप्रत्याशित प्रश्न को सुन रागी अंदर तक हिल गयी।उसने अचकचाकर मुन्ना को अपनी छाती से चिपका लिया।ऐसे ही सोचते सोचते रागी खो गयी अपने अतीत में——-

          ट्रैन ने रफ्तार पकड़ ली थी।अब जाकर रागी अपनी सांसों को स्थिर कर पायी। घर से वह दिल्ली की ट्रेन पकड़ने को चली तो जल्दी थी,पर मार्ग में जाम मिलने से वह मुश्किल से ही ट्रेन पकड़ पायी,रेंगती ट्रेन में वह चढ़ पायी।सांस फूल गया था,धड़कन तेज हो गयी थी,अपनी बर्थ पर पहुंच उसने ठंडी आह भरी।धीरे धीरे रागी सामान्य हो गयी।अब उसने अपने चारों ओर का जायजा लिया तो उसने अपनी बर्थ के आस पास तीन चार लड़कों को पाया,वे अपनी बर्थ पर थे।औरत को एक ईश्वरीय देन होती है,मर्द की कुत्सित नजरो को पहचान लेने की।

उसने एक झटके में ही अपने सामने बैठे दो लड़कों की खराब निगाहों को पहचान लिया।वे लगातार रागी को कामुक दृष्टि से घूरे जा रहे थे।उनकी नजरो को रागी अपने शरीर मे धंसते महसूस कर रही थी,पर करे तो क्या करे,न अपनी बर्थ छोड़ सकती थी,न उन्हें वहां से हटा सकती थी।रागी चुपचाप खिड़की के बाहर देखने लगी।तभी

उसे पैर पर किसी दूसरे के पैर का आभास हुआ।देखा कि सामने वाला लड़का अपने पैर से उसके पैर को सहलाने का प्रयास कर रहा था।रागी ने अपने पैर खींच लिये।इतने में एक लड़का रागी के बराबर में आकर बैठ गया।और रागी के हाथ पर अपना हाथ रख दिया।रागी सहम गयी।बाकी सब अपने मे मस्त थे,रागी डरी सहमी सी अपनी सीट पर सिकुड़ कर बैठी थी।उसने आंखे बंद कर ली।रागी को चुप देख उन दोनों लड़को का हौसला बढ़ता जा रहा था।

उनकी हरकते एक प्रकार से जबर्दस्ती पर उतर आयी थी।विवेक शून्य रागी को झटका लगा जब किसी ने उसका हाथ पकड़ कर झिंझोड़ा।डरी डरी रागी ने आंख खोल देखा कि एक  अन्य लड़का उसको झिंझोड़ कर जोर से बोल रहा था कि मैडम ये दोनों शोहदे आपको परेशान कर रहे है,छेड़ रहे हैं, तो आप विरोध क्यो नही कर रही?कैसी डरपोक हो?मैं यही देख रहा था कि आज के जमाने मे भी कोई लड़की इतनी भीरू कैसे हो सकती है?रागी बस उसका चेहरा देखती रह गयी,उसके मुंह से आवाज तक नही निकली।

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        वही लड़का बोला मैडम देखो इनको मैं अभी मजा सिखा सकता हूँ,पर जीवन मे आपको कौन कौन सहायता को आयेगा।आप तुरंत 139 डायल कर इनकी शिकायत करो।वे लड़के माफी मांगने लगे।पर उसने फोन डायल करने की फिर जिद की।रागी ने आखिर फोन कर दिया।कुछ देर बाद रेलवे पुलिस आ गयी और उन दोनों शोहदों को पकड़ कर ले गयी।रागी ने धीमी आवाज में उस लड़के से थैंक्यू बोला।तो उसने कहा कि मेरी ये साइड की बर्थ है,मैं उन्हें नोट कर रहा था कि वह आपको छेड़ रहे हैं, पर मुझे गुस्सा आप पर था,

क्यो आप विरोध नही कर रही हो।खैर– मेरा नाम विक्रम है,और मैं दिल्ली अपने घर जा रहा हूँ।सेना में जाने की तैयारी है।मेरा नाम रागी है,मैं भी दिल्ली ही जा रही हूं।पढ़ाई पूरी कर ली है,आगे अब जॉब ढूढ़नी है।दिल्ली तक आते आते दोनो आपस मे काफी खुल गये थे।दोनो ने ही एक दूसरे से मोबाइल नंबर भी ले लिये।

       दिल्ली आने के बाद दोनो की पहले औपचारिक फोन वार्ता होने लगी जो धीरे धीरे प्रेम वार्ता में परिवर्तित हो गयी।दोनो कभी पार्क में मिलते या फिर किसी मॉल में घूमने चले जाते।आखिर दोनो ने जीवन नौका को साथ ही खेने का निर्णय कर ही लिया।

          लाल कपड़ो में लिपटी सकुचाई गुड़िया सी रागी विक्रम की दुल्हन बन लगभग छः वर्ष पूर्व इसी घर मे आयी थी।भव्य स्वागत हुआ था रागी का।विक्रम की माँ तो अपनी बहू पर न्यौछावर हुई जा रही थी।रागी थी भी खूब सुंदर और संस्कारित।विद्यार्थी जीवन से ही विक्रम और रागी एक दूसरे को प्यार करने लगे थे।विक्रम का नियमित चयन जब सेना में हो गया तब विक्रम ने माँ को अपने प्रेम के बारे में बताया।प्रारम्भ में माँ को प्रेम विवाह नागवार गुजरा,आखिर उनके जमाने मे मुश्किल से ही इस प्रकार की शादी की बात सुनने को मिलती थी।पर विक्रम की माँ परिपक्व बुद्धि की महिला थी,वे विक्रम के मनोभाव को समझ गयी और इस शादी के लिये मान भी गयी।

      शुभ मुहर्त में विक्रम और रागी की शादी हो गयी।दोनो को मंजिल मिल चुकी थी।दोनो एक दूसरे के प्यार में डूबे रहे।माँ को प्यारी सी बहू मिल चुकी थी,अब उनकी आकांक्षा दादी बनने की रह गयी थी।आखिर एक दिन अपने पावँ भारी होने की खुशखबरी भी रागी को दे दी।तब शादी को मात्र छः माह ही हुए थे। एक दिन विक्रम को कश्मीर में एक आतंकवादी ऑपरेशन के लिये बुलावा आ गया।विक्रम चला गया,बिलखती माँ को ,गर्भवती पत्नी को छोड़कर। दो माह बाद ही विक्रम के आतंकवादी ऑपरेशन में वीरगति प्राप्त करने की सूचना भी आ  गयी।

घर मे कुहराम मच गया।रागी तो मानो पत्थर की हो गयी।अनहोनी तो हो चुकी थी।रागी  विक्रम के साथ की आदि हो गयी थी,वह अपने अस्तित्व को बिना विक्रम के समझ ही नही पा रही थी,विक्रम ने ही तो उसे जीना सिखाया था।

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         विक्रम की शहीदी के तीन माह बाद ही रागी की गोद मे मुन्ना आ गया।बिल्कुल विक्रम पर गया था मुन्ना।रागी तो छोटे विक्रम को सीने से लगा रो पड़ी।बोली माँ देखो तो हमारा विक्रम आ गया।रागी का पूरा ध्यान मुन्ना पर ही था,रागी ने अपनी मांग को सूना नही रखा।माँ रागी के दुख को भी और मनोभावों को समझती थी,इस कारण उन्होंने कभी विरोध नही किया।रागी ने दूसरे विवाह को भी सिरे से नकार दिया था,उसका कहना था,मेरा विक्रम है तो मेरे पास,बस उसने अपना आकार बदल लिया है।अब वह मुन्ना के रूप में आ गया है।

      मुन्ना छः वर्ष का हो गया था, कुछ कुछ बाते समझने लगा था,तभी तो उस दिन उसने अपनी मां से पूछ लिया,माँ जब पापा नही है तो तुम सिंदूर क्यो लगाती हो? मुन्ना को छाती से चिपका कर बोली बेटा मैं तेरे पापा के जाने के बाद सिंदूर लगाती हूँ, तेरे नाम का,अपने मुन्ना के नाम का,अपने बेटे के नाम का।हतप्रभ मुन्ना माँ को देखता रह गया।उधर माँ ये सुनकर अपने आंसुओ को रोक नही पा रही थी।

बालेश्वर गुप्ता,नोयडा

मौलिक एवम अप्रकाशित।

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