शुभांगी अपने भाई से छोटी थी। मातापिता की आँख का तारा वह अपने भाई एवं चाचा के दोनों बेटों की इकलौती दुलारी सी गुडिया थी। सब भाई उसे बहुत प्यार करते थे। जरा सा रुठ जाने पर उसे मनाते तरह तरह के प्रलोभन देकर उसे हँसाने का प्रयास करते ।वह इतनी सुन्दर और प्यारी थी कि बरबस किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती। उसकी बाल सुलभ बातें खत्म ही नहीं होतीं।घर में चहकती. खिलखिलाती घूमती रहती।
चाचा-चाची जब उनके घर आते उसके लिए सुन्दर सुन्दर ड्रेसेज, खिलौने उपहार स्वरुप लाते। उसे बहुत प्यार करते। उसके प्रश्नों को सुनकर हंसते हंसते लोटपोट हो जाते। उसके माता पिता कभी एक कतरा आंसू भी उसकी आँखो से न आने देते।
समय का फेर कोरोना महामारी आई और उसके मम्मी पापा को निगल गई। पीछे रह गए दोनों छोटे बच्चे जो समझ नहीं पा रहे थे अब क्या करें । वह वक्त ऐसा था कि कोई नाते रिश्तेदार भी उनके पास नहीं पहुँच पाया। जैसे तैसे छः माह सरकारी तंत्र के सहारे गुजरे, फिर एक दिन उनके नाना-नानी चाचा-चाची आए और अपना अपना हक जताने लगे कुछ सोचकर चाचा-चाची शुभांगी को अपने साथ ले जाने के लिए यह कहकर तैयार हो गए कि शुभांगी उनके दिवगंत भाई की धरोहर है
उसकी रक्षा करना उनकी नैतिक जिम्मेदारी है, वे दो बच्चों का खर्च नहीं उठा सकते इसलिए शुभांगी को वे ले जाते हैं और शुभम को नाना नानी ले जाऐं। जबकि नाना नानी दोनों बच्चों को अलग नहीं करना चाहते थे सो वे दोनों बच्चों को ले जाने को तैयार थे। किन्तु चाचा-चाची ने यह नहीं होने दिया और वे शुभांगी को ले गए। मम्मी-पापा को तो मौत ने दूर कर दिया था, अब भाई-बहन भी बिछुड गए। वे एक दूसरे से अलग होते बहुत रोए, साथ रहने को कहा पर चाचा-चाची नहीं माने।
शुभम नाना नानी के साथ आगया।मामा ने उसका स्कूल में दाखिला अपने बच्चों के साथ ही करा दिया। किन्तु मामी को वह फूटी आंख नहीं सुहाता। वह अपने बच्चों और उसमें भेद भाव करती, पहले तो शुभम विरोध करता, जिद करता फिर धीरे-धीरे उसने परिस्थितीयों से समझौता कर लिया। नाना-नानी उसके उदास, कुम्हलाए मुख को देख कर दुःखी होते किन्तु वे क्या कर सकते थे, वे तो स्वयं ही बेटे बहू पर निर्भर थे। बच्चे को सीने से लगा अपने बेटी दामाद को याद कर रो लेते।समय गुजर रहा था और उसने हालातों से समझौता करना सीख लिया था।
उधर शुभांगी पर तो मानो दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा था। कुछ दिनों तो उसे ढंग से रखा, फिर चाचा-चाची का असली चेहरा सामने आ गया।वे उसे घर के काम कराने की नीयत से लाए थे।
धीरे धीरे उस मासूम के कंधों पर काम का बोझ डाल दिया। जिस बच्ची ने कभी एक गिलास पानी भी हाथ से लेकर नहीं पिया था वह ढेरों बर्तन मांजती, झाडू पोंछा करती , रसोई में काम करवाती। इतना करने पर भी काम सही न होने पर चाची से थप्पड़ खाती । जिस बच्ची को मम्मी ने कभी फूल से भी न छुआ था
उसके गाल अक्सर चाची के थप्पड़ों के निशान से लाल रहते। वह रोती,जिद करती स्कूल जाने को कहती तो चाची झिड़क देती करमजली मां बाप को तो खा गई. अब क्या रो-रोकर हमें भी भी खायेगी। क्यों घर में मनहूसियत फैलाती है। उस नन्हीं बच्ची की समझ में कुछ नहीं आता। वह सोचती पहले तो चाची उसे बहुत प्यार करती थीं अब क्या हो गया ।
उसके चचेरे भाई मां से कहते मम्मी शुभांगी को भी हमारे साथ स्कूल भेजो। मम्मी उन्हें डॉट कर चुप करा देती ।
वह मम्मी-पापा, भाई को याद कर बहुत रोती। उसके बाल मन पर ये सब बातें घाव बनकर अपनी छाप छोड़ रहीं थीं। उसके रोने पर चाची ने सख्त पाबंदी लगा दी थी। इतना काम लेने के बाद कभी दो मीठे बोल न बोलतीं । खाना भी उसे बचा खुचा देकर भूखा रखती।उसका खिलखिलता चेहरा बुझ गया ।वह हर समय आँखों में आंसू भरे भयभीत सी गुमसुम काम करती रहती सोचती भगवान मेरे गम्मी-पापा को क्यों बुला लिया ।वे हमें कितनी अच्छी तरह रखते थे, क्या अब ऐसे ही रहना पड़ेगा। भैया से कब मिलूंगी।
कई बार तो बिना खाये भूखी ही आंसू बाहती नींद के आगोश में चली जाती। उसके दुखों का कोई अन्त नहीं था।
तभी एक दिन चाची की दूर रिश्ते की बहन प्रिया उन से मिलने आई। वह सप्ताह भर अपनी बहन के यहाँ रुकीं। उस मासूम की हालत देख कर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने अपनी बहन को समझाने का प्रयास किया दीदी छोटी बच्ची है आप उसे इतना प्रताडित क्यों करतीं हैं, अभी तो यह उम्र उसकी खेलने खाने की है काम करने की नहीं।
इस पर वह बोली प्रिया तू नहीं जानती कि यह कितनी अभागिन है।इसकी छाया भी मैं अपने परिवार पर नहीं पड़ने देना चाहती किन्तु क्या करूं जेठ जी की धरोहर है सो पालना तो है ही अब क्या इसे मुफ्त में रोटी खिलाऊँगी। काम तो करना ही पड़ेगा इस पर खर्च करूं और नौकर पर भी।
उनकी यह बात सुनकर प्रिया के मन के एक विचार कौंधा और उन्होंने झट से अपनी बहन रुचि के आगे एक प्रस्ताव रखा। दीदी आप बुरा न माने तो एक बात कहूँ।
हां हां बोल न प्रिया इतना संकोच क्यों कर रही है।
दीदी क्या शुभांगी को आप मुझे दे सकतीं हैं। आपका उसके ऊपर का खर्च बच जायेगा और मैं बेओलाद एक बच्ची की मां बन जाँऊगी। आपको तो पता है कि हम बच्चे के लिए कितना तरस रहे हैं, अब अनाथालय से गोद लोने का मन बना लिया था क्यों न हम इसी बच्ची को अपना लें कम से कम जाने-माने परिवार से तो है। आप तसल्ली से सोच कर निर्णय कर लें तब तक में अपने पति से भो फोन पर बात कर लेती हूँ।
इधर चाचा चाची की कुटिल बुद्धि ने सोचना शुरु किया कि भैया की संपत्ति तो ले ही लेंगे और उसके पालने शादी व्याह के खर्च से भी बच जायेगे ।सो उन दोनों ने शुभांगी को प्रिया को देने का मन बना लिया। उधर प्रिया के पति भी इस बात के लिए राजी हो गये। और इस तरह शुभांगी प्रिया के साथ उनके घर आ गई। वह सहमी सी भयभीत रहती। उसकी आंखों में आशंकाओं के बादल मंडराते कि अब यहाँ क्या क्या करना होगा, कैसे रखेगीं। क्या क्या सहना पड़ेगा। वह हर समय गुमसुम चुप रहती, जो मिलता चुपचाप खा लेती कुछ न बोलती।
उसे पता नहीं था कि उसके भाग्य ने पलटा खाया हैऔर सुखद समय वापस लौट आया है। दो चार दिन प्रिया जी एवं रजतजी ने चुपचाप उसका निरीक्षण किया। उन्हें उस मासूम पर दया आ रही थी कि उसका बचपन उससे छीन लिया गया था उनके स्नेह ,प्यार को शुभांगी दिखावा समझती क्योंकि चाची भी तो उसे पहले कितना प्यार करती थीं। प्रिया जी ने सबसे पहले उसका हुलिया संवारा फिर उसे प्यार से समझाया डरने की जरुरत नहीं है तुम हमारी बेटी हो।
उसे स्कूल में भर्ती करा उसकी पढाई शुरू कराई। वे उससे कोई काम नहीं करातीं उसे आश्चर्य हुआ। धीरे-धीरे वह वापस हंसने मुस्कराने लगी। मन लगा कर पढती। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था उसके मन पर पडे घाव भरते जा रहे थे। कहते है कि समय सबसे बडा मरहम है जो रिस्ते घावों को भर देता है। जब कभी वह उदास होती प्रिया जी उससे कारण पूछती तो एक दिन उसने बताया कि मम्मी – पापा से तो नहीं मिल सकती पर भाई की बहुत याद आती है वह मुझे कितना प्यार करते थे, पता नहीं कैसे होगें।
प्रिया जी ने अपनी बहन से फोन नम्बर लेकर उसके मामा से बात करी और भाई शुभम के बारे में पूछा। फिर वीडीओ काल से दोनों भाई बहन की बात कराई। पूरे तीन साल बाद एक दूसरे को देख कर विलख पडे ।उनका रोना थम ही नहीं रहा था। उनके इस मिलन को देख कर दोनों पति-पत्नीकी आँखों में भी आँसू आ गए। अब उन्होंने दोनों को मिलाने की सोची। मामा से बात कर वे शुभम को भी ले आए। आज दोनों बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे एक दूसरे के गले लग रोए जा रहे थे।
कालान्तर में शुभांगी एवं शुभम अपनी शिक्षा में तल्लीन हैं। उनके घावों पर जो उनके अपनों ने दिये थे समय की परत जम चुकी थी। वे अपने नए मम्मी पापा को बहुत प्यार और सम्मान देते थे जिन्होंने उनके जीवन को सवांर दिया था। वे खुश नसीब थे कि कुछ समय के थपेड़े खा कर अच्छे लोगों के बीच पहुँच गए तो उनका जीवन सफल होगया। किन्तु समय की चाल ने उन्हें अपनो से मिले परायेपन और परायों से मिले अपनेपन का एहसास करा दिया ।
शिव कुमारी शुक्ला शुक्ला
6-1-24
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित
यह कहानी तो एक बानगी है कोरोना काल में अनगिनत बच्चे अनाथ हुए, आज वे कहां हैं, कैसे जीवन व्यतीत कर रहें है कोई नहीं जानता।अपनों ने या तो मुँह फेर लिया या सम्पती के लालच में अपना तो लिया किन्तु जानवरों से भी बदतर व्यवहार उन बच्चो साथ किया जो परी कहानियों के राजकुमार ,राजकुमारी की तरह पल रहे थे। मुँह से निकलते ही उनकी हर फरमाइश पूरी होती थी । दुख क्या होता है उन्हें पता ही नहीं था। कुछ बच्चे खुशकिस्मत रहे होगें जो अच्छे रिश्तेदारों, लोगों के पास पहुंचे जिन्होंने उनका जीवन सवांरने में सहायता की उन्हें प्रेम से रख अपने पराये का भेद मिटा दिया। आज भी उन बच्चों को याद कर मन सोचने लगता है कि इतने बच्चों के साथ क्या हुआ होगा?