नेहा के इंजिनियरिंग की पढ़ाई का अंतिम पेपर अगले हफ्ते था। काॅलेज की पढ़ाई पूरी करने की खुशी से ज्यादा दुख था कि अब वह रोज अनवय से नहीं मिल पायेगी। अनवय और नेहा दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे। अपने जीवन साथी के रूप में वे किसी दूसरे की कल्पना भी नहीं कर सकते थे और वो वक्त भी आ गया जब दोनों को काॅलेज से अलग-अलग अपने घर जाना पड़ा। दोनों का प्लेसमेंट तो हो गया था ,लेकिन चार महीने बाद ज्वाइन करना था। इसी वादे के साथ ये अपने- अपने घर लौटे कि इन चार महीने में माता- पिता को समझाने की कोशिश करेंगे और उनकी रजामंदी लेंगे।
—————–
नेहा के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती थी। मुश्किल ही नहीं नामुमकिन लग रहा था पापा को मनाना। भाई भी पापा का ही साथ दे रहा था।
नेहा पुराने विचारों से ग्रसित और आधुनिकता के बीच झूलते एक ब्राह्मण परिवार की बेटी थी। जहाँ लड़कियों को काॅलेज की डिग्रियाँ दिलायी तो जाती थी, लेकिन इंजिनियर बनने से मना ही किया जाता था। नेहा काफी संघर्ष के बाद वहाँ तक पहुँची थी। उस समय भाई राजीव ने भी साथ दिया था, लेकिन आज भाई भी अन्तर्जातीय विवाह के खिलाफ था। सामाजिक ओहदे में भी जमीन आसमान का अन्तर था। नेहा के पिता एक काँलेज के प्रिंसिपल थे वहीं अनवय एक पोस्टमैन (डाकिया) का बेटा था। सामाजिक, पारिवारिक अन्तर जो भी हो पर दोनों के दिलों में प्यार की गहराई मापना मुश्किल था। ————-
——————-
नेहा दो दिन घर से काम करती थी और तीन दिन ऑफिस जाती थी। साथ में माँ भी रहती थी। पिता भी नौकरी से निवृत हो ही गये थे आना-जाना करते रहते थे। जब-तक बेटी की शादी हो नहीं जाती तब-तक तो साथ रहना ही पड़ेगा। लड़के की तलाश जारी थी।———
—————–
नेहा के सामने अब एक ही विकल्प था- या तो अनवय को भूल जाओ या परिवार को अनदेखा कर शादी कर लो।
प्यार कहाँ कुछ सोचने देता है।
दोनों बालिक थे अदालती शादी हो गयी। परिवार पर जैसे व्रजपात हो गया हो। एक तरह से जीते जी बेटी का अंतिम संस्कार कर सारे रिश्ते तोड़ डाले। नेहा रोई, गिड़गिड़ाई लेकिन पिता पर कोई असर नहीं हुआ। नेहा को भरोसा था कि आज नहीं तो कल पिता अपना ही लेंगे लेकिन वो वक्त नहीं आया। सामाजिक मान-सम्मान उन्हें सात महीने से अधिक जीने नहीं दिया और नेहा का मायका हमेशा के लिए समाप्त हो गया। ————–
आठ साल बाद नेहा की जिन्दगी में एक बार फिर तूफ़ान आया। नेहा की दोनों किडनी काम करना बंद कर दिया। अनवय पाँच साल के बच्चे के साथ काफी मुश्किलों का सामना कर रहा था। किडनी दानकर्ता की तलाश जारी थी ,लेकिन नेहा के पास वक्त बहुत कम था।
तभी एक दिन अचानक डाॅक्टर ने कहा-
“अनवय सर ! मुबारक हो। आपको डोनर मिल गया।”
“कौन है वह?”
“अभी सिर्फ फोन पर सूचना मिली है।”
जल्द ही ऑपरेशन की तैयारी होने लगी और ऑपरेशन सफल रहा। अनवय अब उस इंसान से मिलना चाहता था और उसे निश्चित की गयी राशि देना चाहता था, लेकिन डाॅक्टर ने कहा कि वह अपना नाम राजू बताया और उसे कोई रकम नहीं चाहिए थी। वह जैसे ही होश में आया अपने परिजनों के साथ अनुरोध कर जबरदस्ती चला गया।
अनवय और नेहा उस इंसान को जानने के लिए बेचैन हो गये। अस्पताल के कैमरे की जाँच करने का अनुरोध किया। एक जगह नेहा की निगाहें ठिठक गई। उस इंसान को पहचानने में नेहा की आँखे धोखा नहीं खा सकती। वैसे उस व्यक्ति ने अपना चेहरा ढककर अस्पताल में दाखिल हुआ था, फिर भी खून के रिश्ते पहचान में आ ही गया। नाम फ़र्जी था। नेहा ने भाई की कलाई पर वो निशान देख लिया था जो बचपन से था। आखिर अपने तो अपने ही होते हैं। वैसे भाई ने बाद में भी नेहा को पहचानने से भी इनकार कर दिया। कहने का मतलब कि सामाजिक, पारिवारिक रिश्ते टूटे थे, खून के रिश्ते नहीं।
स्वरचित
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।