अपनापन – विनय कुमार मिश्रा

अपने किराने की दुकान पर मैं,उस शराबी के खरीदे सामान के दाम को, अपने कैलकुलेटर पर जोड़ ही रहा था कि उसने लड़खड़ाते जुबान से बोला

“सात सौ सैंतीस रुपये”

मुझे आश्चर्य हुआ। वो आधे होश में था और उसके लिए हुए छोटे मोटे सामान की संख्या लगभग पंद्रह थी। उसके लिस्ट के हर सामान के आगे मैंने खुद से दाम जरूर लिख रखे थे जिससे मुझे कैलक्यूलेटर से जोड़ने में आसानी हो। पर सिर्फ दो मिनट देख कर एक शराबी..! मुझे हँसी आ गई। मैंने एकबार फिर से दाम जोड़ कर देखा तो सात सौ सैंतीस ही निकला।

इस आश्चर्य से निकलता की एक लगभग पच्चीस साल की बेहद आधुनिक लड़की उस फटेहाल और बेतरतीब शराबी को गौर से देख रही थी। इस बात में भी आश्चर्य ही लगा कि उसमें ऐसी देखने वाली कौन सी बात है। वो शराबी बिना उसकी तरफ देखे बढ़ने ही वाला था कि

“आप मैथ्स वाले विष्णु वर्मा सर हैं ना?”

“हाँ.. मगर तुम कौन हो?” लड़की ने झुक कर उस शराबी के पैर छू लिए

“मैं राधिका हूँ सर..यही पास के झुगी में रहती थी और आपके ट्यूशन में पढ़ा करती थी।आपने मेरी ज़िंदगी बदल दी पर आपने खुद का क्या हाल बना रखा है.. कितने दुबले हो गए हैं.. पहचान में ही नहीं आ रहे हैं”

वो अब उससे नज़रे चुरा रहा था और हाथों में लिए शराब की बोतल भी। बिना कुछ बोले जाने लगा। लड़की ने हाथ पकड़ लिया

“मैम कुछ नहीं कहती?, सौरभ कहा है?”

उस शराबी की आँखों में आँसू उतर आएं

“वो दोंनो नही रहे..अपनी आँखों के सामने दम तोड़ते देखा है उन्हें, उस एक्सीडेंट का मंजर मेरी आँखों से जाता नहीं”


नशे से लाल हुई उन आँखों मे मुझे एक पिता और एक पति का दर्द बहता नज़र आया। लड़की ने उसे वही मेरे दुकान के आगे रखे बेंच पर बिठा लिया

“आपको इस हाल में देख क्या वो खुश होंगे सर? जानती हूँ उनकी जगह कोई नहीं ले सकता पर क्या एक गुरु के लिए उनके शिष्य बच्चों से कम होते हैं? क्या मैं आपकी बेटी जैसी नहीं?”

उस शराबी ने उस लड़की का हाथ झटक दिया

“नहीं.. इस दुनिया में अब मेरा कोइ अपना नहीं”

और शराब के बॉटल का ढक्कन खोलने लगा। इससे पहले कि मैं उसे अपने दुकान के सामने पीने से रोकता

“जा रही हूँ सर, पर बहुत रो रहे होंगे वे दोनों आपको देख कर, वे सिर्फ उस दिन नहीं बल्की रोज आपको इस हाल में देख मरते होंगे। काश कि आप पहले की तरह मुझ जैसे बच्चों की ज़िंदगी में खुशियां लाते तो आपको उन बच्चों में आपका सौरभ और उनकी सफलताओं में आपकी पत्नी दिखती!”

लड़की मुश्किल से कुछ ही कदम गई थी कि

“राधिका!..तुमने ठीक कहा, एक गुरु के लिए उनके शिष्य भी बच्चे ही होते हैं, तुम बेटी जैसी नहीं..बेटी ही हो”

वो लड़की मुस्कुराते हुए वापस आ रही थी और वो अपने हाथों में लिए शराब को वहीं जमीन पर उड़ेल रहा था

मैंने रोका नहीं.. बह जाने दिया उस बुराई को और खुद के आँसू को भी..!

विनय कुमार मिश्रा

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