दिव्या एवं प्रियंक बचपन से अपनी मां को दादी,बुआ एवं पापा द्वारा प्रताड़ित होते देख बड़े हुए थे। पापा बहुत अधिक गुस्सेल एवं पुरुषोचित दंभ से भरे हुए थे। उनके सामने मम्मी का व्यक्तित्व बहुत ही बौना था।एक स्त्री एवं उनकी पत्नी होने से उनका अस्तित्व, पहचान सिर्फ पापा से ही थी। पापा की पत्नी, पांडे परिवार की बहू यही उनकी पहचान थी। यहां तक कि वे अपना नाम भी भूल चुकीं थीं जो उनके माता-पिता ने प्यार से रखा था।जो उनकी पहचान था। कारण शादी के बाद वे केवल पांडे की बहू, निरंजन की दुल्हन थीं। सोसायटी में मिसेज निरंजन या मिसेज पांडे थीं।
ऐसा नहीं था कि वे पढ़ी-लिखी नहीं थीं। ग्रेजुएशन कर रखा था। अपने मम्मी-पापा की परी ,लाडली बेटी थीं। बहुत ही लाड़-प्यार से उनका लालन-पालन हुआ था।वे नौकरी कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थीं। किन्तु जैसा की हमारे समाज में होता है माता-पिता को जहां अच्छा घर -वर मिला वे बेटी की शादी कर उसका भविष्य सुनिश्चित कर देना चाहते हैं और यही सुमन जी के साथ भी हुआ। ग्रेजुएशन के बाद ही शादी कर दी। अच्छा पढा लिखा परिवार है कुछ पढ़ाई एवं नौकरी वहां जाकर कर लेना।
न तो माता-पिता को मालूम था न
सुमन को कि यह शादी उन्हें भविष्य में किस गर्त में धकेलने जा रही है। पहले जो सब अच्छा दिख रहा था वह सब अच्छा नहीं था।वे लोग चाशनी में लिपटी जबान से बातें कर रहे थे,असल में वे कर्कश, गुस्सैल स्वभाव के थे। पर कैसे पता करते असलियत।
माता-पिता ने खूब धूम धाम से शादी कर दी। घर में पहली शादी थी सो बहुत उत्साह एवं क्षमतानुसार दान दहेज देकर शादी हुई। पिता का दिल उमड़ा जा रहा था उन्हें लगता जितना दे रहे हैं कम है अपनी लाड़ली को सो वे अधिक से अधिक सामान दिए जा रहे थे।बस वे यही चाहते थे कि उनकी परी बेटी खुश रहे।
हजारों हजार सपने मन में संजोए वह ससुराल आ गई। खूब आवभगत, स्वागत हुआ। अब उसे ऐसा लगता है कि यह सब बकरे को हलाल करने के पहले की
तैयारी थी ।
पंद्रह बीस दिन तो बडे मजे से निकले, अब धीरे -धीरे कुटिलताएं सामने आने लगीं।सास का झिड़कना ताने शुरू हुए। ननद के अनगिनत कामों की फरमाइश। निरंजन की जबान फिसलने लगी वह तू तडाक से बात करने लगा।वह सबके इस बदलते व्यवहार से भोंचक्की थीं, केवल घर में ससुर ही थे जो तटस्थ रहते।
एक दिन ननद को नाश्ता देने में देर क्या हो गई घर में भूचाल आ गया।सास, ननद तो बोली हीं निरंजन ने भी उसे खूब खरी-खोटी सुनाई।
वह किचन में नाश्ता बना रही थी कि तभी सास के जोर जोर से चिल्लाने की आवाज आई। कहां मर गई मैं दर्द से परेशान हो रही हूं जल्दी तेल लेकर आ।वह किचन से बाहर आई और बोली मां जी दवाई दे दूं।
हां तू तो दवाई ही देगी ताकि तुझे हाथ न चलाना पडे। क्या कर रही थी अभी तक जा जल्दी से गर्म तेल ला कर मेरे पैरों की मालिश कर।
तभी निरंजन आया और फट पड़ा उस पर यहां बैठी आराम फरमा रही है नाश्ता कौन लगाएगा तेरा बाप।
यह सुन उसकी आंखों में आंसू आ गए। मां जी इन्हें नाश्ता देकर आती हूं कह वह किचन की ओर दौड़ पड़ी।
ये तो एक बानगी है ऐसी ही बातें रोज कुछ न कुछ होतीं और उसे ताने सुनने पड़ते गालियां सुननी पड़ती। माता-पिता को बीच में लाकर उनके लिए अपशब्द बोले जाते,वह बहुत दुखी होती सोचती कहां मैं अपने घर में कितनी सुखी थी ओर कहां इस नर्क में आ गई। इससे तो पापा शादी न करते तो मैं कितनी खुश थी। ऐसी शादी से तो कुंवारा रहना ही बेहतर है।
जब कभी मायके की याद आती तो जाने को कहती तो एक ही जबाब मिलता तू वहां जाकर आराम करेगी यहां काम करने क्या तेरी मां आएगी।भूल जा मायके को
अब यही तेरा घर है चुपचाप सबकी सेवा कर।
ज्यादा रोने धोने पर सास बोली जा दो दिन में वापस आ जाना निरंजन को साथ भेज रहीं हूं और ध्यान रखना घर की कोई बात वहां न करना। वहां जाकर निरंजन साये की तरह उसके साथ लगा रहा।मम्मी-पापा ने निरंजन की खातिरदारी में पलक पांवड़े बिछा दिए। कैसी विडम्बना थी जिस जमाईं की वे खातिरदारी में जुटे थे उसके घर में उनकी बेटी की हैसियत एक नौकरानी से भी बदतर थी।
मां को जरूर उसका उतरा चेहरा देख उससे बहुत कुछ जानने पूछने की इच्छा हो रही थी किन्तु उसे बताने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था निरंजन जो हर समय उसके साथ था।
इसी तरह दस साल बीत गए वह दो बच्चों की मां भी बन गई। बच्चों के होने के समय भी उसे कोई राहत नहीं मिली।वही शारीरिक, मानसिक वेदना से गुजरते उसने बच्चों को जन्म दिया। अकेले ही काम के साथ सम्हाला। निरंजन अब बहुत ज्यादा पीने लगा था सो मारपीट भी शुरू हो गई थी। बच्चे इसी माहौल में बड़े हो रहे थे। मां को पिटते देख वे सहम जाते और छिपकर सब देखते। कुछ बड़े हुए तो समझने लगे। उनके मन में पिता के प्रति आक्रोश बढ़ता ही जा रहा था। पिता उन पर भी हाथ उठा देते जब तब गालियां देना उन्हें अच्छा तो नहीं लगता किन्तु छोटे थे सो क्या करते।मन मार कर रो धो कर रह जाते। किन्तु उनके मन में पिता के प्रति उतना ही सम्मान घटता जा रहा था। निरंजन सोचता बच्चे मेरा कितना सम्मान करते हैं मेरे आगे मुंह खोलने की हिम्मत भी नहीं करते। किन्तु सच तो यह था कि वे उससे नफ़रत करने लगे थे।
कभी मां के आंसू पोंछते प्रियंक एवं उसकी बहन दिव्या कहते मां हम कहीं चलें दूसरी जगह।
मां गहरी निश्वास छोड़ते कहतीं बेटा यदि दूसरा आसरा होता तो मैं क्यों इतना सब सहती। तुम्हारे नाना,मामा की स्थिति भी ऐसी नहीं है कि वे हम तीन लोगों को पाल सकें। मैं भी काम नहीं करती खर्च कैसे चलेगा। और फिर मैं अपने कारण तुमसे तुम्हारे पिता का साया नहीं छीनना चाहती।
बच्चे मां थोडे दिनों की बात है अब हम बड़े हो रहे हैं बस नौकरी लग जाए फिर आपकी आंखों में आंसू नहीं आएंगे। आपको जिन्दगी का हर सुख हम देंगे।हम कहीं अलग पापा से दूर चले जाएंगे जहां अपने हिसाब से आजादी से अपना जीवन जिएंगे। हमें ऐसे पिता के साये की जरूरत नहीं है।
समय अपनी गति से चलता रहा और बच्चे पढ़-लिखकर मां की छत्रछाया में संस्कारीत हो खुले आसमान में उड़ान भरने को तैयार थे।
तभी एक दिन निरंजन का आदेशात्मक स्वर गूंजा दिव्या अब आगे नहीं पढेगी। मैं उसकी शादी करूंगा।
पर पापा मैं तो अभी नौकरी कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं।
अरे नहीं बेटा तुझे नौकरी करने की क्या जरूरत है, मैं तो तुम्हारे लिए ऐसा सुयोग्य राजकुमार ढूंढूंगा जो तुझे पलकों पर बिठा कर रखेगा।
हां पापा बरसों पहले नानू ने भी एक ऐसा ही राजकुमार अपनी परी बेटी के लिए ढूंढा था, और उन्होंने भी यही सपना अपनी आंखों में संजोया था कि वह उनकी लाडली बेटी को पलकों पर बिठा कर रखेगा।उनकी लाडली को नौकरी की क्या जरूरत।उस राजकुमार ने उस परी बेटी की क्या हालत की यह आपसे बेहतर कौन जानता है। रोज मर-मर कर जी है वह लाडली। मैं अपने साथ इतिहास दोहराना नहीं चाहती
बेटी की बात सुनकर निरंजन को काठ मार गया। मुंह से शब्द न निकले। उसके व्यवहार का बच्चों पर क्या असर पड़ेगा इस तरह तो उसने कभी सोचा ही नहीं।
तभी बेटा प्रियंक बोला पापा क्या आप चाहते हैं कि मां की तरह मेरी बहन भी ऐसे ही रोज पिटेऔर खून के आंसू रो रो कर अपना जीवन बिताए।
ये तुम दोनों क्या बोल रहे हो, जरूर तुम्हें यह सब तुम्हारी मां ने ही सिखाया होगा।
नहीं पापा मां को दोष न दें हम अब बडे हो गये हैं सोचने समझने की क्षमता रखते हैं। बचपन से मां को रोते, पिटते, गालियां खाते देखकर ही तो बडे हुए हैं। हमें आपने घर का वातावरण जैसा दिया वह देखकर हम सब सीख गये हैं।बस आप चिंता मत करिए थोडे दिनों की बात है मेरी पढ़ाई पूरी होने वाली है। नौकरी लगते ही हम अपनी मां को यहां से बहुत दूर ले जाएंगे जहां आपका साया भी उन पर नहीं पड़ेगा और उन्हें इतनी खुशी देंगें कि वे जीवन भर के कष्टों को भुला सकें।उनकी आंखों में एक कतरा भी आंसू का नहीं आने देंगे।आप अपनी जिन्दगी दादी और बुआ के कहेनुसार चैन से जीना।
अब निरंजन को गुस्सा आ गया बोला ये क्या बदतमीजी है। बड़ों से ऐसे बात करते हैं।
दिव्या हम क्या कह रहे हैं आपसे। पापा सम्मान उसी का किया जाता है जो सम्मान के लायक हो।अपना सम्मान कराना भी एक कला है। आपने कभी ऐसा कोई काम किया है जो हमारे मन में आपके लिए सम्मान की भावना पैदा करें। सम्मान तो हमारे मन में अपनी मां के लिए है जिन्होंने हजारों दुख , तकलीफ़ें झेलकर इस तरह के माहौल में भी अच्छे संस्कार भर हमें इस योग्य बना दिया कि हम सिर ऊंचा कर जी सकें। सम्मान पाने के लिए पहले कोई काम ऐसा तो करें कि सामने वाला आपके सामने नतमस्तक होने को मजबूर हो जाए। केवल यह कहने भर से कि मैं पिता हूं मेरा सम्मान करो सम्मान नहीं मिलता है। अपनी पगड़ी अपने हाथ में होती है।
शिव कुमारी शुक्ला
6-11-24
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित
अपनी पगड़ी अपने हाथ***कहानी प्रतियोगिता