उसके आने से घर में सन्नाटा सा छा गया।अम्मा ने उसे सिर से पाँव तक घूर कर देखा।
साँवला रंग, तीखे नाक-नक्श ,गाल पर मचलते बालों का लट, कानों में लटकन, छींटदार सलवार कुर्ता …स्टाइल से ली गई आडी़ तिरछी चुन्नी ऊंची ऐडी़ की सस्ती चमकदार सैंडल… बात-बात पर खिलखिलाती धवल दंतपंक्तियां।
सीधी सादी अम्मा का सिर घुम गया।
“मैडम, मुझे मेरा काम बताईयेगा “।
“मैडम नहीं मुझे अम्मा कहो… मेरी बेटी से भी कम उम्र है तुम्हारी… मुझे सभी बच्चे अम्मा ही कहते हैं “।
“तुम्हारा नाम क्या है…! “
“जी बिंदिया…! “
लड़की की अदाकारी अम्मा को पसंद नहीं आया… यह फैशनेबल नाजुक सी लड़की …उनका चूल्हा-चक्की संभाल पायेगी।
रसोई में जूठे बर्तनों का ढेर लगा था। बारह से पंद्रह लोगों का परिवार… बर्तन, झाडू-पोंछा ,मैले कपड़े… खाना नाश्ता… अब यह कितना कर पायेगी यह समय ही बतायेगा… अम्मा ने काम समझाकर लंबी सांस ली।
एक पार्ट टाइम सेविका के सहारे अम्मा अपने सशक्त कंधों पर गृहस्थी चलाती आई हैं।
इस कहानी को भी पढ़ें:
यहाँ अपने युवा होते कॉलेज जाने वाले प्रतियोगिता की तैयारी करने वाले बेटा बेटी.. गाँव वाले भाई के बेटा बेटी…रिश्तेदारों के बेटे बेटी कोई न कोई कोर्स करने के लिए यहां आते-जाते रहते हैं… चूंकि यहाँ पठन-पाठन की सुविधा है… अम्मा का अनुशासन है… पुरखों की बनाई हुई पुराने तरीके का चार-पांच कमरों का मकान है… खुला आँगन, छत सामने अहाते में फलदार हरे-भरे वृक्ष लगे हुये हैं… बडा़ सा कुआं है जिसका जल कभी नहीं सुखता।
यह जगह घने शहर के बीचो-बीच में है …कई बिल्डर फ्लैट के लिए इस पुराने मकान पर आंखें गडा़ये बैठे हैं… फ्लैट निर्माण हेतु मुंहमांगी कीमत देने को तैयार… लेकिन अम्मा के सामने इनकी एक नहीं चलती।
मिलने-जुलने वालों का आना-जाना लगा रहता था। कोई इलाज या कोई किसी अन्य काम से शहर आते ही रहते थे।
अम्मा यहां रहकर पढने वाले बच्चों और अपने बेटा बेटी का एक समान ख्याल रखती थी। रात में सोते समय वे एक कतार से दूध का गिलास लगाती… क्या मजाल एक घूंट भी इधर-उधर हो जाये।
किसकी कब परीक्षा है? कौन घर देर से लौटा… किसकी संगत कैसी है? अम्मा की तेज निगाहों से कुछ भी नहीं छूट पाता था… सभी पर समान वात्सल्य लुटाती अम्मा बच्चों को भी अति प्रिय थी।
उम्र की ढलान पर अम्मा में पहले वाली चुस्ती फुर्ती नहीं रही। इसबार वे डेंगू के चक्कर में क्या पड़ी कि सबकुछ उलझ-पुलझ गया। लड़के लड़कियों ने कोशिश किया कि सबकुछ संभाल ले। लेकिन अम्मा की बराबरी न कर पाये उसी का सहज परिणाम है फूल टाइम घर के काम के लिये बिंदिया का पदार्पण।
अम्मा के बीमार पडने पर लड़कियां जैसे-तैसे खाना बना लेती… अम्मा को फल काटकर दे देती, “अम्मा दवा खा लो और जल्दी ठीक हो जाओ। “
अम्मा अपनी बेबसी पर रुआंसी होकर सभी से बोली, “तुमलोग काम आपस में बाँट लो, कोई सब्जी काटो, कोई आटा गूंधो, कोई साफ-सफाई का काम… घर गृहस्थी के काम में कैसी शर्म। “
उन्हें अपने पकाये भोजन में अम्मा के सुघड़ हाथों का स्वाद नहीं आ पाता। आज तक सभी बच्चों को सभी प्रकार की सुविधायें बिना किसी विशेष परिश्रम के प्राप्त हो रहा था। सुबह से शाम तक उनकी फरमाइसें निर्विघ्न पूरी हो रही थी। उसमें अम्मा की बिमारी ने बाधा उत्पन्न कर दिया फलतः बौखलाहट में ही सेविका ढूंढी गई… बिंदिया के रुप में।
जहाँ बच्चे बिंदिया के आने से प्रसन्न हुये कि “चलो अब बर्तन मांजने रोटियां बनाने से फुरसत मिली! “
इस कहानी को भी पढ़ें:
वहीं अम्मा इस छैल-छबीली बिंदिया को चौबीस घंटे घर में रखने के नाम पर सोच में पड़ गई… “इसको रखना किसी आफत को निमंत्रण देना तो नहीं है। “
रात में रोटियां कम पड़ गई, “बिंदिया कुछ और रोटियां सेंक दो “बिटिया ने कहा।
“इससे अधिक मैं नहीं सेंक सकती… रोटियां बेलते-बेलते मेरी कलाई टूटने लगी है “टी वी के सामने बैठी बिंदिया का दो टूक जवाब… सभी एक साथ चौंक पड़े।
पढाई करते बच्चों से सिनेमा सीरियल का बेतुका प्रश्न बिंदिया पूछ बैठती जिससे उनकी एकाग्रता में बाधा पहुंचता।
बिंदिया का ध्यान घर के कामों में कम और बनाव-श्रृंगार में अधिक था। सफाई के बहाने इठलाती मचलती लड़को के कमरे में घुस बात बेबात ठहाके लगाने लगती। उसकी उच्छृंखलता लडकों को पेशोपेश में डाल देती। अम्मा की घूरती निगाहें लडकों पर घडो़ पानी डाल देता। फलतः वे बिंदिया को तवज्जो नहीं देकर… दूर ही रहने का प्रयास करते।
लडकों के बीच घुसपैठ करने का वह पूरा प्रयत्न करती। जिस आराम मानसिक शांति और घर के काम के लिये उसे रखा गया था… उसका उलटा ही हो रहा था।
बिंदिया बडी़ शान-शौकत से बनी-ठनी रहती… बढिया साबुन, शैम्पू, तेल कपड़ा… महीने की मोटी तनखाह उपर से।
धीरे-धीरे पूरे घर में बिंदिया का राज हो गया। अम्मा के पास से फुदकती लडकों के बीच… वहाँ भाव नहीं मिला तो लड़कियों के प्रायवेशी में ताक-झांक।
घर में कोई उसको महत्व नहीं देता तब वह जैसे-तैसे घर का काम निपटाकर छत पर भागती।
किसी न किसी बहाने से सज-संवर कर बाहर निकल जाती। पास-पडोसी में हलचल सा मच गया। मनचलों की बन आई।
अम्मा के एक तिरछी नजर पर जहाँ लड़के-लड़कियां सहम जाते थे वहाँ इस ढीठ लड़की पर कोई असर नहीं।
ऊंच-नीच अम्मा समझाती तब वह मुँहफट जबाब देती,”मेरे काम में कमी हो तो बताओ मेरे रहन-सहन पर टोका-टोकी मुझे पसंद नहीं है “!
इस कहानी को भी पढ़ें:
शायद यह धृष्टता वह इसलिए करती थी कि उसे गलतफहमी थी कि उसके बगैर काम नहीं चलेगा। उसके नखरे सहन करना ही होगा। अम्मा भी स्वस्थ हो चुकी थी।
आखिरकार गृहस्वामी और बच्चों से मंत्रणा कर अम्मा ने बिंदिया का हिसाब कर ही दिया और जहाँ से वह आई थी वहीं उस बिंदिया रुपी बला को वापस भेज… राहत की सांस ली…अब चाहे घर का काम जैसे भी हो… इस छैल-छबीली से मुक्ति मिले…रोज-रोज का सिरदर्द समाप्त हो।
दूसरे दिन प्रातः अम्मा रसोई में सब्जी पका रही हैं… बेटियां आटा गूंध रोटी की तैयारी कर रही है। लड़के जो घर के कामों को हेय दृष्टि से देखते थे अपना पूर्वाग्रह छोड़ घर, कपड़ों की सफाई में लगे थे। बिंदिया की बिदाई से सभी ने सुकून महसूस किया।
एक बार पुनः लडकों की हंसी और लड़कियों की गप्पबाजी से घर गुलजार हो गया। सदैव तटस्थ रहनेवाले बाबूजी भी रसोई के दरवाजे से झांकते हुये पूछ बैठे, “मेरे लायक कोई सेवा”अम्मा के साथ सभी हंस पड़े।
“चलो एक फायदा हुआ बिंदिया ने सबको अहसास करा दिया कि अपना काम अपने हाथों से करने में ही भलाई है… पूर्णकालिक सेवक… सेविका के नाज-नखरे ,हाव-भाव बर्दाश्त करना उतना ही कठिन… घाट-घाट का पानी पिये हुओं को अपने पारिवारिक परिवेश में ढालना टेढी खीर है।”
आज किसी ने भी अम्मा की खरी-खरी पर असहमति नहीं जताई।
“अपना काम आप करेंगे “वाले अंदाज में सभी तत्परता से साफ-सफाई में लगे रहे। “पढाई के साथ अपना काम भी”अम्मा ने संतोष की सांस ली।
सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा©®