राधिका का जीवन हमेशा से हिंदी भाषा और संस्कृति से जुड़ा रहा था। स्कूल, कॉलेज में पढ़ते हुए, वह जब भी कुछ महसूस करती, उसे शब्दों में ढालने के लिए हिंदी ही उसका प्रिय साधन बनती। वह अपनी कविताओं और लेखन के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त करती।
हिंदी को वह अपनी आत्मा मानती थी, और यह भाषा उसके लिए केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि अपने देश, अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति का प्रतीक थी।
साधारण मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार में पली-बढ़ी राधिका जैसे ही बीए अंतिम वर्ष में पहुंची, उसके माता-पिता और दादा-दादी को उसके विवाह की चिंता सताने लगी। उसके ताऊजी और पिताजी ने तो वर की खोज भी आरंभ कर दी।
दूर के किसी रिश्तेदार के माध्यम से दान-दहेज के विरुद्ध विचारधारा वाले उच्च घर-परिवार में उसका संबंध तय हो गया। राधिका ने अनुरोध किया कि विवाह उसकी परीक्षाओं के बाद ही हो, जिसे सबने सहर्ष स्वीकार किया। लेकिन परीक्षाएं समाप्त होते ही वह आरव की दुल्हन बनकर उसके घर आ गई।
कहते हैं कि विवाह तो वहीं होता है जहां संयोग लिखा होता है। राधिका एक ऐसे परिवार में आ गई, जहां हिंदी का कोई स्थान नहीं था। आरव, उसका पति, एक अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा-लिखा लड़का था, और उसका परिवार अंग्रेजी को लेकर बहुत गर्व महसूस करता था।
उनके लिए हिंदी एक पुरानी, पिछड़ी और साधारण भाषा थी, जिसे वे अपनी शिक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा के स्तर के हिसाब से निम्न मानते थे। राधिका को इस असंगतता का अहसास पहले दिन से ही होने लगा था।
आरव के पिता वरूण पटनायक कार्पोरेट में उच्च पद पर थे। विवाह के कई वर्षों तक उनकी कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने एक अनाथालय से आरव को गोद ले लिया। आरव को माता-पिता का भरपूर लाड़-प्यार मिलने लगा और उसे एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी माध्यम स्कूल में प्रवेश दिलवाया गया।
लेकिन कुछ वर्ष बाद पटनायक दंपत्ति की एक बेटा और एक बेटी स्वयं की दो संतानें हो गईं, जिससे आरव उपेक्षित होने लगा और घर में दोयम दर्जे के प्राणी के रूप में ही बड़ा हुआ। कुछ ही समय में राधिका ने समझ लिया कि आरव के लिए उसके जैसी मध्यमवर्गीय लड़की को क्यों चुना गया है।
शादी के बाद, राधिका ने खुद को इस परिवार में समायोजित करने की पूरी कोशिश की। पूरा परिवार स्वयं को अभिजात्य समझता था, और उनका व्यवहार भी उसी अनुसार था।
धीरे-धीरे राधिका को यह महसूस होने लगा कि यदि उसने अपनी भाषा और अपनी पहचान को परिवर्तित नहीं किया तो वह हमेशा इस परिवार में बाहरी महसूस करेगी। लेकिन राधिका ने विचार कर तय किया कि वह अपने आदर्शों से समझौता नहीं करेगी।
पहले कुछ दिनों तक तो सब कुछ सामान्य था, लेकिन एक दिन उसके देवर और ननद, जो एक उच्च श्रेणी के अंग्रेजी बोलने वाले व्यक्ति थे, ने राधिका से पूछा, “भाभी, आप हिंदी में क्यों बोलती हो? किसी को अच्छा नहीं लगता। हिंदी तो अनपढ़ों की भाषा है। यहां सब अंग्रेजी बोलते हैं, आपको भी उसी में बात करनी चाहिए।”
यह बात राधिका के दिल में गहरे तक चुभ गई। वह जानती थी कि उसकी भाषा को कभी न कभी तुच्छ समझा जाएगा, लेकिन यह अपमान इतना तीव्र था कि उसे एक सर्द आंच की तरह महसूस हुआ। उसने एक हल्की सी मुस्कान के साथ जवाब दिया, “मुझे हिंदी बहुत प्यारी है। यह मेरी मातृभाषा है, और मैं इसे अपने जीवन का हिस्सा मानती हूँ।”
पर उसके देवर और ननद उसकी बातों का मजाक उड़ाते रहे। एक दिन राधिका की सास, श्रीमती पटनायक, जो गंभीर व्यक्तित्व की महिला थीं, ने भी राधिका को इशारों में कह दिया, “तुम्हारी हिंदी बहुत अच्छी है, लेकिन अगर तुम थोड़ा अंग्रेजी सीख लो तो अच्छा होगा। हम चाहते हैं कि तुम भी दूसरों के सामने परिवार की सदस्य लगो। हिंदी को अब कोई नहीं समझता।”
राधिका के मन में यह शब्द जैसे छुरा घोंपने के समान थे। उसे यह महसूस हुआ कि उसकी जड़ें, उसका अस्तित्व, उसकी पहचान को छीनने की कोशिश की जा रही है। वह अंदर से टूट गई, लेकिन उसने किसी को यह नहीं दिखाया। वह चुपचाप सहती रही।
एक दिन राधिका की आहत भावना चरम पर पहुँच गई जब उसकी ननद वान्या का जन्मदिन था। एक खास दावत का आयोजन किया गया। वहाँ वान्या के बहुत से मेहमान आए थे, और राधिका को उन सभी के सामने कुछ सुनाने के लिए कहा गया, क्योंकि वह कविता में काफी अच्छी थी। राधिका ने सोचा, यह एक अवसर है, वह अपनी आत्मा की बात कुछ शब्दों में व्यक्त करेगी। उसने एक खूबसूरत कविता लिखी थी, जो हिंदी में थी, और उसे पढ़ने का निर्णय लिया।
वह मंच पर खड़ी हुई और कविता पढ़ने लगी। पहले कुछ क्षणों तक सब शांत रहे, लेकिन जैसे ही कविता की पंक्तियाँ खत्म हुईं, कमरे में सन्नाटा छा गया। किसी ने भी उसकी सराहना नहीं की।
कुछ देर बाद सबकी उपस्थिति में ही, आरव की बहन वान्या ने तंज कसते हुए कहा, “यह क्या था, राधिका? आपको भाभी कहने में तो मुझे शर्म आने लगी है। माना कि कुछ लोग अब भी हिंदी में बात करना पसंद करते हैं, लेकिन आप तो इसे हमारा मजाक बनवाने, हमारे घर में ले आईं! अगर आप आगे से हमसे दूर रहो तो बहुत अच्छा होगा।”
यह शब्द राधिका के लिए किसी कड़े थप्पड़ से कम नहीं थे। उसकी आँखों में आंसू थे, लेकिन वह किसी के सामने यह नहीं दिखाना चाहती थी। उस क्षण में उसे समझ में आ गया कि यहाँ उसकी भाषा, उसका प्रेम और उसका आत्मसम्मान, कुछ भी महत्व नहीं रखता। उसे महसूस हुआ कि इस परिवार में उसकी कोई भी पहचान नहीं थी। वह अपमानित, असहाय, और हताश महसूस करने लगी।
वह रात राधिका के जीवन का सबसे कठिन पल थी। उसने सोचा कि क्या उसे अपनी मातृभाषा, अपनी संस्कृति और अपनी पहचान से समझौता करना पड़ेगा, ताकि वह इस परिवार में अपनी जगह बना सके? लेकिन दिल के एक कोने से जवाब आया—“नहीं!” उसे यह अहसास हुआ कि अगर वह खुद को और अपनी जड़ों को छोड़ देगी तो वह खुद से ही धोखा करेगी।
अगले दिन, राधिका ने आरव से बात की। वह धीरे से, गंभीर मन से बोली, “आरव, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है। मुझे लगता है कि मेरी भाषा, मेरी हिंदी, मेरी पहचान और संस्कृति का अपमान किया जा रहा है। मुझे यह समझ में आ रहा है कि तुम्हारा परिवार मुझे कभी स्वीकार नहीं कर पाएगा, अगर मैं अपनी जड़ों से जुड़ी रहूँ। लेकिन क्या तुम चाहोगे कि मैं अपनी पहचान को नकार दूं?”
आरव थोड़ी देर चुप रहा, फिर उसने कहा, “राधिका, मैं समझता हूँ तुम्हारा दर्द, और मैं यह भी जानता हूँ कि अगर तुम अपनी पहचान और भाषा से समझौता करोगी, तो तुम कभी खुश नहीं रह पाओगी। लेकिन परिवार में मेरी स्थिति अब तुमसे छिपी नहीं है। यहाँ कोई समझने वाला नहीं है। पर मैं मम्मी-पापा का हमेशा ऋणी रहूँगा, जिन्होंने मुझे अनाथालय से निकालकर अच्छी जिंदगी दी है।”
आरव ने आगे कहा, “पर इस सब का यह अर्थ भी नहीं है कि मैं तुम्हारे साथ नहीं हूँ। मुझे तो लगता है कि तुम परिवार से अपेक्षाएँ छोड़ दो। तुम हिंदी भाषा में इतनी पारंगत हो, मुझे तुम पर गर्व है। मैंने सुना है कि तुम हिंदी में बहुत अच्छा लिखती हो। अपनी लेखन कला को आगे ले जाओ, मैं हर तरह से तुम्हारा सहयोग करूंगा।”
राधिका के आंखों में अब खुशी के आंसू थे। उसने महसूस किया कि वह खुद से, अपनी संस्कृति से और अपनी भाषा से समझौता नहीं करेगी। उसे आरव का समर्थन मिल चुका था, और यह उसके लिए जीवन का सबसे बड़ा वरदान था।
राधिका ने नए आत्मविश्वास के साथ खड़े होकर एक नया कदम उठाया। उसने हिंदी में लेख, कहानियाँ और कविताएँ लिखनी शुरू कर दी। उसकी रचनाएँ साहित्यिक मंचों पर प्रकाशित होने लगीं। धीरे-धीरे उसके पाठकों की संख्या बढ़ने लगी।
इसके साथ-साथ, उसने अपने साहित्यिक प्रयासों को और तेज़ कर दिया। उसने कुछ नए लेख और कविताएँ लिखीं, जो सम्मानित हिंदी पत्रिकाओं और प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए।
धीरे-धीरे, राधिका की कविताएँ और कहानियाँ देशभर में प्रसिद्ध होने लगीं। उसके काम को साहित्यिक समाज ने सराहा, और वह बहुत जल्द हिंदी साहित्य के क्षेत्र में एक मशहूर नाम बन गई।
राधिका का लेखन अब न केवल हिंदी साहित्य की सेवा कर रहा था, बल्कि उसने यह साबित कर दिया था कि किसी भी भाषा को तुच्छ नहीं समझा जा सकता। आरव तो प्रसन्न हुआ ही, उसकी सफलता ने उसके परिवार के अन्य लोगों को भी सिखाया कि अपनी मातृभाषा हिंदी का सम्मान ही असली गर्व है।
आरव का परिवार अब उसकी कामयाबी को देखकर न केवल उसका आदर करने लगा, बल्कि उन्हें यह समझ में आ गया था कि उसकी हिंदी कितनी समृद्ध है।
कुछ सालों में, राधिका ने हिंदी साहित्य के एक प्रमुख स्तंभकार के रूप में भी अपनी जगह बना ली। अब आरव के साथ-साथ पूरा परिवार उसका मनोबल बढ़ाने लगा था। उसकी रचनाएँ अब राष्ट्रीय स्तर पर पढ़ी और सराही जाती थीं। उसने अपनी कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास से अपने अपमान को एक वरदान बना दिया था।
जब हिंदी दिवस पर हिंदी के प्रचार-प्रसार में अमूल्य योगदान के लिए राधिका को सम्मानित किया जा रहा था, तो उसके पति आरव, सास-ससुर, देवर-ननद सब अग्रिम पंक्ति में बैठे, तालियाँ बजाते हुए गर्वित हो रहे थे।
धीरे- धीरे संपूर्ण परिवार एक सूत्र में बंध गया था। अंग्रेजी के साथ-साथ सबने प्रेम और सम्मान से हिंदी भाषा को अपना बना लिया था। और सबसे बड़ी बात तो आरव और राधिका अब घर में दोयम दर्जे के सदस्य नहीं, बल्कि सबकी आंखों के तारे और प्रेरणास्रोत बन गए थे।
राधिका ने यह सिद्ध कर दिया कि कभी-कभी सबसे बड़ा अपमान हमें अपनी सबसे बड़ी सफलता की ओर ले जाता है, और यही अपमान राधिका के जीवन का सबसे बड़ा वरदान बन गया था।
– सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
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