अंतहीन सिलसिला – सरिता अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

 डाक्टर ने विदिशा को बुला भेजा– विदिशा इस सरकारी अस्पताल में हेड नस॔ है,सीनियर है,काफी समझदार  है और हर तरह के केस को बहुत चतुराई से हैंडल करती है ।किसी रोगी के लिए नहीं ,उसकी मां के लिए विदिशा का मधुर व्यवहार जरूरी हो गया था ।

तीन दिन पहले 18 साल के एक युवक को अस्पताल लाया गया था ।उसने जहर खा लिया था क्योंकि उसकी कथा कथित प्रेमिका ने उसके साथ शादी करने से इनकार कर दिया था और दूर अपने मामा के घर चली गई थी। उसने डिप्रेशन में आकर जहर खा लिया। उसे लाने में कुछ देर हो गई, सो थोड़ा मामला सीरियस हो गया था । पर अब वह धीरे-धीरे होश में आ रहा था मगर न कुछ बोल पा रहा था ना ही किसी को पहचान रहा था दूसरे शब्दों में घर के किसी आदमी से बात नहीं करना चाहता था।

यह युवक जिसका नाम विजय था उसके मां-बाप ही किसी तरह अपने इकलौते बेटे को लेकर लाए थे। उसको एडमिट करने के बाद ही उसकी मां सीढ़ी के पास धरना देकर बैठ गई- जब तक विजय ठीक नहीं हो जाता- ना घर जाऊंगी ना ही कुछ खाऊंगी। रात को उसे डांट डपटकर हटाया गया क्योंकि रात में अगर पेशेंट सीरियस नहीं हो तो गार्जियन को रहने की अनुमति नहीं है।  मां बिचारी सोच में थी कि अपने ठाकुर जी को जो वचन दिया था वह पूरा  होते नही दिख रहा था ।रात को वह अस्पताल के गेट के पास ही बैठी रही , दरबार नस॔ सब समझाते रहे ,पर बेकार। दिन में फिर वह अंदर आकर बैठ गई। शाम होते होते वह बेहोश होकर गिर गई। तुरंत उसको भी एडमिट करके सलाइन चढ़ाई गई।

 विदिशा पहले विजय को देखने गई। उसका हाल-चाल पूछा, वह पहले से बेहतर था जहर का असर खत्म हो गया था पर वह सदमे में था शर्मिंदा भी था। विदिशा ने उसके साथ सहानुभूति दिखाई पुचकारा और उसकी इस हरकत के लिए थोड़ी डांट भी लगाई। जब उसे बताया की उसकी मां खाना पीना छोड़कर बैठी है और यही अस्पताल में एडमिट है ,तो वह उठकर बैठ गया ,उसकी दोनों आंखों से आंसू बहने लगे -बोला दीदी ,मुझे प्लीज  मेरी मां के पास ले चलो ,उसने विदिशा से प्रार्थना की।

मां को देखते ही वह मां से लिपटकर फूट-फूट कर रो पड़ा पास के बेड पर जो औरत थी उससे रहा नहीं गया ,जोर से बोली -क्यों रे छोकरे अब क्यों रो रहा है तेरे को  सोलह-अठारह साल जिसने अपने खून पसीने से पाल पोस  कर बड़ा किया उसका दर्द कभी नहीं दिखाई दिया ,उसका दुख तेरे को नहीं छूता था। वह कल की छोकरी चार दिन के साथ से ही इतनी प्यारी हो गई कि तू उसके लिए मरने को तैयार हो गया। कभी मां-बाप के दुख में भी जहर खा सकता है क्या?

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विदिशा ने दौड़कर उस महिला के मुंह पर हाथ रख दिया- दीदी अभी यह बिल्कुल ठीक नहीं हुआ है जरा धीरे बोलो ।

जनरल वार्ड की एक और महिला उठकर सामने आई – अरे धीरे क्या बोले! तुम लोगों की दया पर जीते हैं क्या ? हम लोगों का दुख तो इन बच्चों को नजर नहीं आता ,बस प्रेम की भाषा बड़ी जल्दी सीख जाते हैं । कैसे आधा पेट खाकर हम इन्हें पालते हैं ,खुद नहीं खाते इन्हें खिलाते हैं। कभी जान पाते हैं

यह लोग कि हम कब  कब आधा पेट सोए थे कब खाली पेट सोते हैं ! -बोलते बोलते ही वह महिला भड़भडाकर रो पड़ी -यह देख रहे हो तुम लोग ,सामने मेरी बेटी प्रेमा है। कितने शौक से अपनी जमा पूंजी सब खर्च करके इसकी शादी की ।जितनी हिम्मत नहीं थी उससे ज्यादा दिया ,

सरकारी नौकरी वाला लड़का खोज कर ससुराल भेजा।सास ससुर सभी अच्छे हैं उनसे इसे शिकायत नहीं थी ,पर छह महीने बाद यह मायके आई ,तो रोज घूमने चल देती सहेलियों के साथ। एक हफ्ते बाद ही जमाई अचानक चला आया ,पर बाहर ही किसी लड़के से हंसी मजाक कर रही थी

सब देखकर, बातों बातों में झगड़ा हुआ और जमाई छोड़कर चला गया ।जाते हुए बोल गया इसे इसके इसी प्रेमी से शादी कर देते तो अच्छा होता ,मेरी क्या जरूरत थी। हम तो कुछ बोल ही नहीं पाए चक्कर पूरा समझ आया भी नहीं, इसके पहले ही रात को इसने गले में फांसी लगा दी।

स्टूल गिरने की आवाज सुनकर दौड़कर प्रेमा को पकड़ा -गले में रस्सी पूरी बंधी नहीं थी गले के एक कोने में अटक गई थी।वह बच गई ,पर आधे गले पर जो फंदा कसा था इससे उसकी आवाज चली गई ।छटपटाती रही आज छह महीने हो गये, यहां आकर डॉक्टर दिखाते हैं यहां गले की एक्सरसाइज और मसाज होता है दवाइयां खिला रहे हैं ,अब थोड़ी सी आवाज निकली है। भगवान जाने कितने दिन में ठीक होगी ।

    विदिशा बोली आप सब शांत हो जाइए इन लोगों को आप लोगों का दुख भी समझ आ गया है और सबक भी मिल गया है कि मौत इतनी आसान नहीं है यह लोग भाग्यवान है कि हाथ पैर नहीं टूटे पैरालिसिस नहीं हुआ जो भी हुआ था ,वह मां-बाप ने ही  ज्यादा सहा -कड़वाहट तो मन में आएगी ही।

अभी देखी वह 11 साल के बच्चे के लिए यह बेड साफ हुआ है 

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थोड़ा बोलते बोलते ही स्ट्रेचर पर एक नर्स बच्चे को ले आई -सर में कई टांके लगे हैं पैरों में हल्की मोच है हाथों में भी खरोंचे हैं, मां आंसू बहाती जा रही है और बड़बड़ाती जा रही है- मोबाइल ही चाहिए था -दे देते हम, पर अपने सामने तो बच्चा बिगड़ता देखा नहीं जाता ।थोड़ा पूछने पर ही मां बिखर गई -पढ़ाई लिखाई छोड़कर सारा दिन मोबाइल चाहिए ,खाने पीने का होश नहीं ,बस मोबाइल से ही चिपका रहता है ,

बस! एक थप्पड़ लगाकर मोबाइल छीन कर फेंक दिया- तो बरामदे में जाकर नीचे कूद गया, वह तो भगवान का शुक्र है कि नीचे दुकान के टीन शेड से टकराकर सड़क पर कूड़े के ढेर पर गिरा ।बच गया ।वरना तीसरी मंजिल से तो हड्डी पसली का पता नहीं चलता। बच्चा इंजेक्शन और दवाओं की गफलत में  बेहोशी में था मां मां पुकार रहा था। पास बैठकर मां उसके हाथ पैर सहलाती रोती जा रही थी।

विदिशा ने विजय से कहा  हां तो विजय बाबू- यह महिला वार्ड है आपको बाहर जाना है। समझ तो कुछ आया ही होगा कि जीना मरना अपनी मर्जी से नहीं होता है फालतू बातें ना सोच कर कुछ करिए ,काम में लगेंगे तो यह सब कचरा दिमाग में नहीं भरेगा। हम तो आप लोगों को ज्यादा कुछ बोल नहीं सकते ,हक नहीं है ,पर अपने जन्मदाताओं का दुख थोड़ा बाटेंगे तो हमें खुशी होगी।

विदिशा आते-आते सोच रही थी हम लोग रात दिन उन लोगों की जिंदगी बचाने में लगे रहते हैं जो छोटी-छोटी चोट या धक्के से जीने मरने की बातें सोच लेते हैं। लोग आते हैं इलाज कराते हैं- ठीक होते हैं तो खुश होकर जाते हैं ।केस बिगड़ता है तो गालियां भी देते हैं जैसे हम भगवान हैं हर मर्ज का इलाज कर सकते हैं पर जानबूझकर या अनदेखा करके केस बिगाड़ देते हैं ।

अभी चार दिन पहले ही तो उस जवान लड़की की लाश यहां से निकली है। अच्छी कंपनी में नौकरी करती थी पर आत्महत्या क्यों की -क्योंकि वह अपना काम शांति  से  करती थी ,किसी तीन पांच में नहीं रहती थी ना ही किसी को भाव देती थी पर मैनेजर से परेशान थी ।छोटी-छोटी गलती पर या कुछ देर होने पर, बहाने मिलने पर, वह बुरी तरह डांटता और अपमान करता था ।ऑफिस के लोग भी मजा लेते थे। हालांकि वह बहुत सुंदर नहीं थी पर काली भी नहीं थी। पीछे-पीछे काली मां बोलकर सब हंसते थे इन सब रोज की झिड़कियों से परेशान होकर उसने जहर खा लिया।

वह चार दिन छटपटाती रही ।बहुत कोशिश की गई उसके लिए।

विदिशा को उससे बहुत लगाव हो गया था उसे दुलारती समझाती थी ।उसकी बड़ी बहन ऑफिस में काम करती है वह भी वाॅस की बदमिजाजी की  बातें बताती है ।इसी से विदिशा को शायद उसका दर्द छू गया ।उसके मरने पर विदिशा की आंखों से आंसू निकल आए खूब रोयी चुपचाप से।

वह अक्सर सोचती है हम लोग रात दिन इन लोगों की जिंदगी बचाने में लगे रहते हैं जो छोटी-छोटी चोट या धक्के से जीने मरने की बातें सोच लेते हैं। इन लोगों ने रोड पर तड़प कर मरते लोगों को नहीं देखा क्या!,अपाहिज होकर जीने के लिए संघर्ष करते लोगों को नहीं देखा कभी?

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हम  अपनी छोटी बच्ची को उसकी दादी और  मेड के सहारे छोड़कर यहां काम करते हैं ,कभी नाइट ड्यूटी कभी सारा दिन, कभी-कभी दो दिन एक साथ,जिससे जिंदगी की गाड़ी चलती रहे ,बच्चे की परवरिश सही ढंग से हो – इतना हम कमा सकें ।आज तो एक और चिंता मन में बैठ गई है। एक दिन की छुट्टी लेकर किसी तरह बच्ची को कुछ कहानी ,कुछ कॉमिक्स के साथ कुछ खिलौने भी खरीद दें जिससे मोबाइल का आकर्षण उनसे दूर रहे। उनकी दादी को भी अच्छी तरह से समझना होगा,आने वाले खतरे से सावधान करना होगा।वह बहुत समझदार हैं,थोड़े में ही सब समझती हैं।बीच बीच में हस्पताल की बातें भी बताते हैं – इससे मेरी परेशानी और तनाव भी अच्छी तरह समझती हैं।

काश हम लोग का यह संघर्ष लोग समझ पाते  ,और समझ पाते कि हम लोग कैसे तिल तिल करके जीते हैं और मरते हैं ,अपने काम के लिए भी और लोगों को बचाने के लिए भी।अपनी गृहस्थी  और लोगों की सेवा के लिए हमें अपने आप से कितना लड़ना पड़ता है।

काश लोग भी समझें कि आत्महत्या ही अंतिम रास्ता नही है,मित्रों,आसपास के लोगों और परिवार के साथ सम्पर्क बनाये रखने से डिप्रेशन कम होगा और मरने – जीने का यह सिलसिला रूक सकता है -कुछ कम हो सकता  है,धीमा पड़ सकता है।कोशिश का फल जरूर मिलता है।

लेखिका : सरिता अग्रवाल

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