“चाय गिरने कालीन खराब होने की चिंता है। एक बार भूले भी ये नहीं पूछ सकते कि कहीं तुम्हारे हाथ में जलन तो नहीं आ रही।” अचानक ही विनया की ऑंखों में ऑंसू आ गए। जिसे बमुश्किल उसने बहने से संभाला और एक नजर मोबाइल में नजर टिकाए मनीष पर डाल कर चाय पीने लगी।
रिश्तों का समीकरण भी कैसा होता है ना। बंधन में बंध तो जाते हैं लेकिन मेरा तेरा नहीं भूलते हैं। किसे दोष दूं मैं, मम्मी–पापा ने तो हमेशा कहा था मुझे कोई पसंद हो बताना। लेकिन कभी कोई पसंद नहीं आया। मम्मी–पापा ने भी तो मनीष को बहुत जाॅंच परख कर पसंद किया था। फिर….सच ही कहती हैं मम्मी, किसी के साथ पूरा जीवन भी बीत जाए ना तो भी उसकी बहुत ही बातों के प्रति हम अनभिज्ञ ही रहते हैं, तो दो चार महीने में मम्मी–पापा कितना क्या जान सकते थे। चाय खत्म होने के बाद भी विनया चाय का प्याला हाथ में लिए प्याले को घूरती हुई सोच रही थी।
“मैडम, आज क्या यूॅं ही बैठे रहने का विचार है। मुझे ऑफिस के लिए भी निकलना है। मेरी नीली शर्ट नहीं मिल रही है।” अपने कपड़ों का अलमीरा खोले खड़ा मनीष वही से जोर से बोलता है और उसके बोलने पर विनया अपने सोच को झटकती उठ खड़ी हुई।
“मैं देखती हूॅं।” कहकर विनया अलमीरा के पास पहुॅंच कर अलमीरा में झाॅंकने लगी।
“यहाॅं नहीं है, जाकर मम्मी से पूछो।” मनीष विनया को अलमीरा में झाॅंकते देख झुंझला उठा।
“सच ही कहती हैं बुआ। अगर वो दोनों इस घर में ना हो तो इस घर का चलना असंभव है।” शर्ट लेने जाती विनया के कानों में मनीष की आवाज पड़ी।
“विनया की इच्छा तो हुई घूम कर कहे तो चले जाइए बुआ के यहाॅं ही रहने, फिर देखती हूॅं माॅं की तरह कौन ध्यान रख सकता है। बचपने तक तो समझ आती है, अभी भी ये लोग अपनी ऑंखें बंद करके बैठे हैं। कैसे बेटे हैं ये।” विनया अपने दिमाग को चाह कर भी विराम नहीं दे पा रही थी।
“कहीं मैं ही ओवरथिंकर ना हो जाऊॅं। मेरे लिए खुद को संभाले रखना बहुत जरूरी है।” मनीष के ऑफिस जाने के बाद अपने कमरे में योग करती विनया खुद से बातें कर रही थी।
अपनी गति से समय पग बढ़ा रहा था और अब विनया का सुबह जग कर बालकनी में खड़ी होकर ताजी हवा लेने का नियम सा बन गया था और इस एक सप्ताह के प्रत्येक दिन वो अखबार वाले को घर आते चाय नाश्ता करते और अंजना से बातें करते, फिर ससुर जी का “मुझे ये सब पसंद नहीं है” कहना और जवाब में अंजना का छोटा सा “जी” देखती थी। जो अंजना मात्र वही काम करने का जतन करती दिखती थी, जो घर के लोगों को उचित लगता हो, वो अंजना इस मामले में अपने मन की कर रही थी,
ये सब चीजें उसे पेशोपेश में डाल रही थी। जानने की उत्कंठा प्रबल होती जा रही थी लेकिन उसे संपदा से बातें करने का अवसर ही नहीं मिल रहा था,l। अव्वल तो संपदा घर पर नहीं होती थी, यदि होती भी थी तो प्रायवेसी के नाम पर अपना कमरा बंद किए रहती थी। चाहती तो सुलोचना से भी पूछ सकती थी लेकिन वो खुद का घर के लोगों से संवाद बढ़ाना चाहती थी। लेकिन फिलहाल इस पंद्रह दिनों में वो असफल रही थी और अब तो घर का मौसम बिल्कुल ही बदलने वाला था
क्यूंकि बड़ी बुआ और मंझली बुआ घर संभालेनी आ रही हैं। उसे याद हो आया दोनों के रहते घर में अजीब सा लिजलिजापन, नकारात्मकता का बसेरा हो जाता है। यूॅं लगता है मानो चारों ही एक दूसरे के प्रतिद्वंदी हो गए हो और अंदर ही अंदर एक अंतरद्वंद्व भी पाल रहे हो। खैर जो भी उनके आने से पहले कम से कम संपदा दीदी को एक कदम माॅं की ओर चलाना होगा। जिस दिन माॅं के चेहरे की स्वभाविकता वापस लौट आएगी, स्वयं ही घर की हर समस्या का समाधान निकल आएगा। पिलर की ही नींव कमजोर हो गई है तो घर की मजबूती में सेंध तो लगेगी ही। तरह तरह के विचारों से दो चार होती विनया संपदा के कमरे की ओर देखती है और दरवाजा खुला देख अभी के अभी बात करने का सोच कमरे में प्रवेश कर गई।
“भाभी नोंक तो कर देती।” संपदा अपने कमरे की साफ सफाई कर रही थी और अचानक विनया को आया देख बोल पड़ी।
“सॉरी दीदी, वो ध्यान नहीं रहा। आज इस समय आप घर पर, कॉलेज नहीं है क्या।” विनया संपदा के स्टडी टेबल पर रखे किताबों में से एक किताब के पन्ने पलट कर देखती हुई पूछती है।
“नहीं भाभी, आज क्लासेज नहीं हैं।” संपदा एक नजर विनया की ओर देखकर कहती है।
“तो आज मेरे मायके चलें क्या दीदी। उस दिन के बाद माॅं को देखने भी नहीं गई।” अचानक ही विनया के मुॅंह से निकल गया।
“मैं, मैं क्यूं भाभी, आप हो आइए।” संपदा विनया की बात पर अपने हाथ को रोकती हुई कहती है।
“बस ऐसे ही दीदी, इसी बहाने हम दोनों भी थोड़ा समय एक साथ व्यतीत कर सकेंगे।” विनया संपदा के सवाल पर अकचका कर कहती है।
“बुआ से पूछ कर बताती हूॅं भाभी।” टेबल पर से मोबाइल उठाती हुई संपदा कहती है।
“बुआ से, आपको तो माॅं से पूछना चाहिए ना दीदी।” संपदा को नंबर डायल करते देख विनया कहती है।
“माॅं को ये सब कहाॅं समझ आएगा भाभी, उनके लिए तो उनका कमरा और किचन ले देकर यही रहा है। पति, बच्चे तो उनके लिए कभी मायने रखते ही नहीं हैं। कहाॅं हैं, हैं भी कि नहीं, माॅं को कभी कोई मतलब नहीं रहा है इससे। बस वो अखबारवाले के लिए चाय नाश्ता लेकर हाजिर हो जाएंगी। उसके हाल चाल को जानने की उत्सुकता होती है उन्हें, लेकिन मजाल है जो हम लोगों से कभी बातें कर लें।” संपदा मुॅंह बनाकर कह रही थी
और विनया संपदा की नाराजगी सुनती सोच रही थी क्या एक दूसरे से बात नहीं करने की अंतर्व्यथा सबके अंदर है। क्या चारों एक दूसरे से बातें करना चाहते हैं लेकिन संकोच की एक अदृश्य दीवार इन चारों को जकड़े हुए है। क्या इसीलिए मनीष भी हर पल काट खाने को दौड़ते हैं क्योंकि मम्मी पापा जब मनीष से मिल कर आए थे तो बहुत प्रसन्न थे कि बहुत ही हॅंसमुख और सुलझे हुए हैं। अगर ऐसा है कि चारों के हृदय में एक दूसरे के लिए भावनाएं हैं लेकिन बताने के लिए शब्द नहीं है तो मेरा काम आसान हो जाएगा। मुझे तो सिर्फ शब्द बनना होगा, वाक्य तो ये लोग खुद बना लेंगे।
“सही याद दिलाया आपने दीदी, मैंने सोचा था आपसे पूछूंगी कि ये अखबार वाले कौन हैं? माॅं के कोई रिश्तेदार हैं क्या।” विनया सावधानी से संपदा को कुरेदती हुई पूछती है।
“माॅं से ही पूछ लेती आप कि वो कौन हैं, ये बुआ भी ना, दोनों में से कोई रिसीव नहीं कर रही हैं।” संपदा झुंझला कर मोबाइल बिस्तर पर रखती हुई कहती है।
“माॅं से पूछ लीजिए ना दीदी, तो मैं घर फोन कर मम्मी को बता दूंगी कि हम दोनों का लंच आज वही होगा। नहीं तो उन दोनों सास बहू का कोई पता नहीं चलता, कब कहाॅं सवारी लेकर निकल जाएं।” ऑंखों में ढ़ेर सारा अनुनय भर कर विनया कहती है।
“पर” संपदा पर संकोच हावी हो गया था।
“पर–वर कुछ नहीं दीदी, वैसे भी आज आप कुछ परेशान दिख रही हैं। थोड़ा आउटिंग करेंगी तो अच्छा लगेगा।” विनया संपदा का हाथ पकड़ती हुई कहती है।
“आपको मेरे माथे की लकीरें दिख गई भाभी लेकिन जिन्हें दिखनी चाहिए उन्हें तो कभी दिखती ही नहीं।” संपदा के चेहरे पर अपनी माॅं के लिए दुःख और कटाक्ष दोनों ही दृष्टिगोचर हो रहा था।
“तो माॅं से आप शेयर कर लेती ना दीदी।” विनया उसे सलाह देती हुई कहती है। आज पहली बार सम्पदा दिल खोलकर विनया से बातें कर रही थी और अब विनया इस अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी।
“एक बार और बुआ को कॉल करके देखिए दीदी या माॅं से पूछिए ना।” संपदा के साथ बाहर जाने की विनया की ललक अब और बढ़ गई थी।
संपदा बुआ का नंबर डायल करने लगी। संपदा का विश्वास जीतने के लिए विनया ने बुआ का नाम तो ले लिया था लेकिन मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि बुआ कॉल रिसीव ना करें और संपदा अंजना से परमिशन ले। वो जानती थी कि अगर संपदा की बात बुआ से हो गई तो जो संपदा अभी अपनी सी लग रही है तुरंत बेगानी हो जाएगी और फिर उसके साथ बाहर जाने का सवाल ही उत्पन्न नहीं होगा।
“ओह हो, पता नहीं बुआ कहाॅं हैं। वैसे तो मम्मी से पूछने की जरूरत नहीं होती है भाभी, कह दूंगी आपके घर जा रही हूॅं। वो तो बस एक लुक देंगी, और क्या?” संपदा आज अपनी माॅं पर पूरी तरह से गुस्सा थी लेकिन क्यों, विनया इसकी तह में जाना चाहती थी।
“नहीं नहीं दीदी, आपको उनसे पूछना ही चाहिए।” संपदा की किताबों को टेबल पर जमाती हुई विनया कहती है।
“हूं, देखती हूॅं।” कहकर संपदा अपने कमरे से निकल अंजना के पास जाने लगती है, जो कि रसोई में अपने कार्य में लगी हुई थी।
“मम्मी”….रसोई में पहुॅंच कर फ्रिज से पानी का बोतल निकालती खुद को एक मिनट का पॉज देकर बोलती है।
आरती झा आद्या
दिल्ली
2 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 8 ) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”