“माँ… जानती हो आज मेरे पास एक अजीबोगरीब मुकदमा आया था…”,मनीष शाम को कोर्ट से लौट कर माँ के साथ चाय पीने के दौरान अचानक बोला तो माँ की नजरें उसकी ओर उठ गई।
“हाँ…माँ…आज एक ऐसा मुजरिम मेरे सामने आया जिस पर शराब पी कर किसी की हत्या करने का आरोप था।पर जानती हो जब सरकारी वकील ने उससे कारण पूछा तो उसने अपने पिता को कटघरे मे खड़ा कर दिया”।
“मैं… समझी नहीं..”,
“उसने बताया कि उसके पिता सदैव बिगड़े नवाब रहे…उसके दादा जी कभी गाँव के ज़मींदार रहे थे अतः ज़मीन ज़ायदाद की कमी नहीं थी। नौकरी की ज़रूरत महसूस नहीं हुई और आवारागर्दी के साथ दारू गोश्त और इधरउधर रंगरेलियां उनका हमेशा से शौक रहा।उनकी इसी आदत से परेशान हो कर उसके बचपन मे ही माँ उसके दो साल के भाई को लेकर अलग हो गई थीं।चूंकि वो बड़ा बेटा था और पिता का ज़बरदस्त लाड़ला भी पिताजी ने किसी भी हालत मे उसे माँ के साथ भेजने से इंकार कर दिया।
माँ के जाते ही वो और स्वतंत्र हो गये और उसकी भी हर जायज़ नाजायज ज़िद पूरी करने लगे….हालात ये हुए कि युवावस्था की देहरी पर क़दम रखते ही वो भी बाप की राह चल पड़ा था।
उसने सीधे सीधे कहा,” जज साहब…बचपन तो गीली मिट्टी की तरह होता है जिस मूरत मे माँ बाप डाल देते हैं बच्चा उसी मूरत मे ढल जाता है…तो जब वही बच्चा बड़ा हो कर वही सब कुछ करता है जो उसने माँ बाप को करते देखा तो वो क्यों मुज़रिम करार दिया जाता है…जिसने वो मूरत गढ़ी उसे क्यों नहीं?”
“ .जज साहब,..मैं कबूल करता हूँ कि मैं शराब पी कर कोठे पर गया और जब गुलाबो बाई की बारह साल की बेटी के साथ मुन्ना लाल ने गलत हरकत करने की कोशिश की तो मेरा खून खौल उठा और उसे रोकने की चेष्टा में कब मेरे हाथ से उसका खून हो गया मुझे ख़बर नहीं….पर जब मैने अपनी सोलहवीं सालगिरह पर पहली बार शराब पी थी तो पिता ने क्यों नहीं रोका मुझे?उल्टा उन्हें गर्व हुआ था कि उनका बेटा अब बड़ा हो गया है”।
“माँ…आपको क्या हुआ?तबियत तो ठीक है”,अचानक माँ का पीला पड़ा चेहरा देख कर मनीष घबरा गया
“कुछ नहीं….मैं ठीक हूँ… हाँ…तुमने क्या नाम बताया उसका…”,मीनल ने ख़ुद को संभालते हुए पूछा
“शायद….दिनेश था…दिनेश राठौर…निवासी… मीरपुर..”
एकबारगी मीनल का दिल बैठ सा गया… जिसकी उसे पच्चीस साल तक रात दिन आशंका रही थी वही आज सच बन कर उसके सामने था। किसी बहाने से वो उठ कर अपने कमरे मे आ गई।
‘दिनेश….यानि उसका अपना बेटा.. दिन्नू…वो बेटा जिसके होने पर उसमे पहली बार मातृत्व का भाव जागा था…जिसको सीने से लगा कर वो खुशी के सातवें आस्मान पर पँहुच जाती थी और….जिसको छोड़ के आने के बाद भी कोई दिन ऐसा नहीं बीता जब उसे उसकी याद नहीं आई हो….आज वही बेटा शराब के नशे मे कत्ल के इल्ज़ाम मे अपने ही छोटे भाई की अदालत मे खड़ा है’। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे ।
इन पच्चीस वर्षों मे उसने मनीष को भनक भी नहीं लगने दी थी कि उसका पिता जिन्दा है और उसका एक बड़ा भाई भी है।पति से अलग होने के बाद कुछ दिन वो मायके मे रही और जब उसे सरकारी स्कूल मे नौकरी मिल गई तो उसने अपना तबादला ऐसे शहर मे करा लिया जहाँ उसकी पिछली ज़िन्दगी उसका पीछा न कर सके।उसने ख़ुद को विधवा घोषित कर मनीष को पिता से मिलने की सारी संभावनाओं पर विराम लगा दिया था।
मनीष को अच्छे संस्कारों के साथ उसने अच्छी शिक्षा भी दी।आज वह जज की कुर्सी पर था।पिछले महीने ही उसका तबादला मीरपुर के पास के जिले मे हुआ था।
‘पर आज….वक्त उसे इस मोड़ पर खड़ा कर देगा ये तो उसने कभी सोचा भी नहीं था….क्या करे वो…क्या वो दिन्नू को उसकी किस्मत पर छोड़ दे?….पर सही कहा था दिन्नू ने…इसमें उसका क्या कसूर?कसूर तो उसकी परवरिश का है… तो क्या वो मनीष को सब कुछ बता दे..?….पर पता नहीं अब उस पर इस का क्या असर होगा… ‘।उसे याद आया चलते समय उसके पति ने बड़े घमंड से कहा था,”एक दिन देख लेना मेरी और अपनी परवरिश का अंतर… हम ख़ानदानी रईस हैं तुम्हारी तरह सरकारी मुलाजिमों के घर के नहीं”।
रात भर मीनल इसी ऊहापोह मे डूबती उतराती रही….पर सुबह होते ही उसने निर्णय ले लिया।’वह मनीष को सब कुछ बता देगी।’
सबकुछ सुन कर एकबारगी तो मनीष जैसे सकते मे आ गया… पर वो समझदार था…माँ की परिस्थिति का अंदाज़ा उसे हो रहा था ।हाँ उसने ये ज़रूर कहा
“माँ शायद अगर आप ये राज़ पहले मुझ पर खोल देतीं तो हो सकता है कि ये….” ,… पर उसकी बात पूरी होने से पहले ही मीनल बोल उठी,”मैं तुम पर तुम्हारे पिता की छाया भी नहीं पड़ने देना चाहती थी….मुझे डर था कि वो तुम्हें भी मुझसे छीन न लें”।
दूसरे दिन मनीष ने दिनेश के पिता से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो बिना किसी नानुकुर के वो कोर्ट मे आ गए।मनीष ने चपरासी से कह कर उन्हें अपने प्राईवेट चैम्बर मे बिठला दिया।
दिनेश का मुकदमा शुरू होने से पहले ही लंच मे वो उनसे मिला…ऐय्याशी ने उनके चेहरे को समय से पहले बूढ़ा कर दिया था… झुर्रीदार चेहरे पर काले रंगे बाल…आँखों मे सुरमा और पान तम्बाकू से पड़े पीले दाँत… हाँ सफेद झक कुरता और वैसा ही पाजामा…एकबारगी तो वो सोच ही नहीं पाया कि ये आदमी उसका पिता भी हो सकता है..उसने कभी अपने पिता की तस्वीर तो नहीं देखी थी पर बालमन ने अपने पिता की वासल्य और तेज् से ओतप्रोत जो छवि बनाई थी वो आज भी उसके मस्तिष्क की चदरिया पर ज्यों कि त्यों धरी थी।
“नमस्ते… जज साहब”, अचानक आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी तो वह अचकचा गया,
“ओह.. नमस्ते… बैठिये”,
“आप ने मुझे याद किया..”?
“आपको मालूम है आपके बेटे ने आप पर क्या इल्ज़ाम लगाए हैं?”उसने उनको ग़ौर से देखते हुए पूछा शायद कोई पाश्चाताप कहीं छिपा हो।पर उन्होंने बड़ी बेशर्मी से कहा,”जज साब,ये तो ख़ानदानी अमीरों के घर की पहचान है…पर मेरा बेटा बच तो जाएगा न…उससे ये क़त्ल किसी की इज़्ज़त बचाने के दौरान हुआ”,आगे के शब्द पनीले हो उठे थे जो उनकी बेटे के प्रति उनकी ममता दर्शा रहे थे।
“आपके एक ही बेटा है या…”,उसने जानबूझकर बात अधूरी छोड़ दी।
“एक और है..”
“वो भी ऐसा ही है क्या”,उसने लापरवाही से पूछा पर वह भभक उठे,”उसे साथ लेकर पच्चीस वर्ष पहले मेरी पत्नी घर छोड़ गई”
“ओह!…शायद बिना माँ के…इसकी परवरिश..”,मनीष ने कुछ कहना चाहा पर ठाकुर साब बीच में ही बोल पड़े,
“इसको ख़ानदानी संस्कार देने में मैनें कोई कमी नहीं की है….तभी तो वो एक तवायफ की बेटी के साथ भी किसी की ज़्यादती बर्दाश्त नहीं कर सका”।
“हूँ…तो ये हैं आपके संस्कार ..कि बेटा कोठे पे जा रहा है ,शराब पी रहा है और आप उसे रोकने की बजाय उसको बढ़ावा दे रहे हैं”,मनीष के स्वर में दुख के साथ व्यंग्य उतर आया।
“आपको इसे भी इसकी माँ के साथ भेज देना चाहिए था तब शायद इसकी ज़िन्दगी…”,
“तब कौन ये जज सा’बन जाता”,ठाकुर सा’ब बीच में व्यंग्य से बोल उठे,
“क्या पता हो ही जाता”,मनीष ने फाइल पलटते हुए जानबूझकर लापरवाही से कहा तो ठाकुर सा’ब तैश में भर उठे,
“मुझे मालूम है मेरा छोटा बेटा भिखारियों की तरह जी रहा होगा”।
“आपने कभी उसके हाल जानने या मिलने की कोशिश नहीं की”,मनीष ने उनका मन पढ़ना चाहा पर उन्होंने तेज़ी से बात पलट दी,
“उसका ज़िक्र छोड़िये.. मेरे इस बेटे की बात करिये।ये बच तो जाएगा न?”
“अब ये तो साक्ष्य ही बताएंगे।अभी क्या कहा जा सकता है।”मनीष ने चपरासी को बुलाने के लिए घंटी बजाई।
“बाबूजी को बाहर छोड़ आओ”,
पता नहीं एक जज के मुँह से बाबूजी शब्द या जिस कोमल लहजे में वो कहा गया था उसे सुनकर एक बारगी ठाकुर सा,ब भी चौंक से गये पर दूसरे ही क्षण वो अपनी अकड़ी चाल से बाहर निकल गए।
रात भर मनीष बहुत बारीकी से केस स्टडी करता रहा।हांलाकि अपना जुर्म दिनेश कबूल कर चुका था।पर भीतर से न जाने क्यों उसे लग रहा था कि भले ही मनीष कितना भी शराबी हो वह किसी की हत्या नहीं कर सकता।एक क्षण को तो उसे अपने भाई की साफ़गोई पर भी गर्व हो उठा पर दूसरे ही क्षण उसका मन अपने मुजरिम भाई के प्रति सहानुभूति से भर उठा,’काश!माँ के साथ वह भी आ जाता’
पर दूसरी सुबह कोर्ट जाते समय उसका मन बहुत शांत था।
उसने पक्के सबूत और गवाहों के आधार पर अपने फैसले में यह लिखकर कि “दिनेश द्वारा किसी नाबालिग की अस्मत बचाने के प्रयास में अभियुक्त से हुई हाथापाई के दौरान अभियुक्त के हाथ में पकड़ी हुई खुकरी उसी के पेट में लग जाने से उसकी मृत्यु हुई ,क्यूंकि खुकरी पर उंगलियों के निशान केवल मृतक के थे दिनेश के नहीं”,दिनेश को मृत्यु दंड से बरी कर दिया।
पर कोर्ट से निकलने के पहले उसने ठाकुर सा’ब से अपने चैम्बर में मिलने की पेशकश की थी जिसे स्वीकार कर वह तुरंत ही उससे मिलने पहुँच गए।
“अब तो आप बहुत खुश होंगे कि आपका बेटा बरी हो गया।पर हर बार ऐसा नहीं होगा”,मनीष ने उन्हें कुर्सी पर बैठने का संकेत करते हुए तौलिए से भीगे हाथ पोंछते हुए कहा,
“क्योंकि हर बार न्याय की कुर्सी पर बैठा जज उसका छोटा भाई नहीं होगा”,
“क्या…”,मैं..समझा नहीं.. आप…”,ठाकुर सा’ब की बड़ी बड़ी आँखें हैरानी से जैसे निकल पड़ने को तैयार थीं।
“हाँ,मैं दिन्नू भईया का छोटा भाई हूँ..मनीष।आपका बेटा नहीं कहूँगा क्योंकि मैंने जबसे होश सम्भाला माँ को विधवा
के रूप में देखा।और अपने देवतातुल्य पिता की जो सुंदर छवि मेरे हर पथ पर सदैव से मेरी प्रेरणा रही उसमें आपका कहीं स्थान नहीं है।”
“बस,अब आप जा सकते हैं। बेहतर होगा कि दिन्नू भईया से भी आप यह राज़ उजागर न करें वरना मुझे डर है कि कहीं सच्चाई जान कर उनके मन में आपके प्रति नफ़रत न फूट पड़े और आप अपना इकलौता बेटा भी न खो दें।”
“और हाँ..उम्मीद है अब आप अपनी और अपनी पत्नी की परवरिश में अंतर समझ गए होंगे,”कहते ही उसने मेज़ पर रखी घंटी दबा दी।
मंजू सक्सेना
लखनऊ
VM