अनमोल – भगवती : Moral Stories in Hindi

अनिल घर लौटते समय सब्जी, फल और मां बाबूजी की दवाईयां लेते हुए आए थे।

घर पहुंचे तो काफ़ी थके हुए थे।

सुजाता ने उनको देखते ही उनके हाथ से सारे थैले ले लिए और जल्दी से उनके लिए पानी लाई।

अपने आंचल से उनके माथे का पसीना पोंछते हुए बोली, “अभी राजीव आता तो सबकुछ ले आता, आप पहले

ही ऑफिस में इतना थक जाते हैं, आप सीधे घर आया कीजिए”

“वो पहले क्या कम मेहनत कर रहा है, अपनी पढ़ाई कर रहा है तो उसका खर्चा भी खुद ही ट्यूशनस करके

निकाल रहा है, और कल मुझसे कह रहा था कि अगले महीने रमा के स्कूल की फीस भी वही जमा करा दिया

करेगा”

“बात तो सही है, राजीव के कोर्स का आखिरी साल है फिर तो जल्दी ही उसे अच्छी नौकरी मिल जाएगी,

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आपका बोझ उतर जाएगा पर फिर सोचती हूं कि रमा की बारहवीं की पढ़ाई खत्म होते ही फिर उसके कॉलेज

की फीस भरनी होगी, वो भी एक बड़ा खर्चा है, ये जिंदगी तो किसी करवट चैन नहीं लेने दे रही, हम

मध्यमवर्गीय परिवार तो जीवनचक्र की चक्की के पाटो में पिस कर रह गए हैं” सुजाता के स्वर में भरपूर

निराशा थी।

“मां, ये आप लोगों की दवाईयां” अनिल ने अपनी मां कमला को दवाएं देते हुए कहा।

“पैसे तो सारे विनोद ही दे रहा है,तुम तो सिर्फ़ दुकान से घर ही लाते हो, उसी में थक गए” कमला कुछ व्यंग

से बोली।

बाहर सुजाता के कानों में अपनी सास की ये बात पड़ी तो गुस्से से बिलबिला पड़ी वो।

“अगर अपने छोटे बेटे के पैसों का इतना ही घमंड है तो कभी उनके पास भी जाकर रह लें पर नहीं पता है ना

कि विनोद की आवाज़ तो उसकी पत्नी सपना के आगे निकलती नहीं है और वो तो कभी भी अपने सास ससुर

को अपने पास रखने को राजी नहीं होगी, उनकी सेवा करना उस परिवार में किसी के बस की बात नहीं थी,

विनोद के दोनों बेटे अभी आठवीं नौवी क्लास में ही थे पर इस छोटी उमर में ही मां बाप के उन पर ध्यान ना

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दिए जाने की वजह से और पैसे वाले होने की वजह से अनाप शनाप खर्चे करते रहते थे। ना पढ़ाई में उनका

दिल लगता था और ना ही वे दादा दादी को कुछ समझते थे। सपना अमीर बाप की बेटी थी, विनोद से उसकी

लव मैरिज थी और वो शादी के बाद ससुराल में भी नहीं रहना चाहती थी इसलिए इस शादी के बाद विनोद ने

ही घर छोड़ दिया था ।

 

सपना ने अपने पापा के ऊंचे संबंधों की वजह से विनोद की ऊंची पोस्ट पर नियुक्ति करवा दी थी और खुद

भी शौकिया तौर पर नौकरी करती थी जिसमें उसकी महीने की तनख्वाह काफी अच्छी थी। उसने विनोद से

साफ साफ कह रखा था कि अपने माता पिता का खर्चा उठाना चाहते तो बेशक उठाओ पर मैं उनके साथ नहीं

रह सकती, अपनी भी कोई प्राइवेसी होती है, विनोद भी बड़ा घर, अपनी नौकरी ये सब खोना नहीं चाहता था

इसलिए उसने कभी अपने मां बाबूजी को अपने घर ले जाने की बात भी नहीं कि पर पैसे से वो उनकी मदद

करता रहता था पर सुजाता समझती थी कि किसी भी व्यक्ति के किसी भी हालात में सिर्फ और सिर्फ पैसा ही

काम नहीं आता है और बुढ़ापे में तो अपनों की सेवा, परिवार वालों का साथ, बहुत धीरज और अपनेपन की

ज़रूरत होती है। अगर मां बाबूजी को सिर्फ पैसा मिलता रहे तो क्या वे अपनी जिन्दगी गुज़ार

लेंगे…नहीं…गुज़ार पाएंगे.. यदि नौकर भी रख दिया जाए, तब भी नहीं और अनिल तो ऐसे थे भी नहीं, वे

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तो बहुत अच्छे बेटे थे, जितना हो सकता था, उतना वे खुद से करते थे सबके लिए, पर कुछ दवाएं बहुत

महंगी थी और विनोद पैसा भी मां के हाथ में रखता था इसलिए कमला ही वो पैसे अनिल को देती थी, इस

वजह से अनिल कुछ नहीं बोलते थे पर मन ही मन क्या मां बाबूजी सारी परिस्थियां नहीं समझते थे…फिर

क्यूं वे हमेशा विनोद को ही ऊपर रखते हैं..?”

सुजाता अनिल के शांत और संयमी स्वाभाव की वजह से कभी कभी बहुत दुखी हो जाया करती थी।

कुछ दिनों बाद अनिल के साथ बहुत बुरा हुआ। कंपनी में छंटनी हुई तो अनिल की नौकरी जाती रही।

राजीव का कोर्स किसी भी कीमत पर छुड़वाया नहीं जा सकता था, ना चाहते हुए भी एक दिन अनिल के

बाबूजी ने उनको विनोद से मदद के लिए कहा।

अनिल बहुत मजबूर होकर विनोद के पास पहुंचे तो विनोद ने कहा, “भाई साहब,मेरी कंपनी में एक क्लर्क की

पोस्ट खाली तो है, आप ऐसा कीजिए कि राजीव को वहां लगवा दीजिए क्योंकि आपको सीधे रखा तो

रिश्तेदारों को पहले रखने का इल्ज़ाम मेरे सर लगेगा, राजीव के बारे में कोई जानता नहीं तो कोई प्रॉब्लम नहीं

होगी, उसे तो नाम लेकर बुला सकता हूं…आपको क्या कहकर पुकारूंगा…इमेज खराब होती है ना ऐसे…”

अनिल घर आए तो सुजाता,राजीव और रमा सभी उन्हीं का इंतजार कर रहे थे।

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“पापा, ये क्या किया आपने,हम सबको तो पता भी नहीं चला कि आप कब चाचा जी के यहां चले गए और

किसलिए.. नौकरी के लिए…और ये महान सलाह आपको दादा जी दी है…कमाल है..अरे पापा, वहां नौकरी

करेगें आप…और क्या नौकरी करेंगें…कौन सी बड़ी पोस्ट सौंप देंगें आपको…किसी भी छोटी सी पोस्ट पर

लगा देंगें आपको…जिससे चाची खुश रहे…उन्होनें कभी हमारा हाल चाल भी नहीं पूछा पापा…क्या आपको

नहीं पता कि चाची ने तो अपने नौनिहालों के लिए रमा की राखी भी मंजूर नहीं की थी जबकि अपने भाइयों

की बेटियों के साथ रक्षा बंधन का त्यौहार वो कितने चाव से मनातीं हैं.. जो हमारे सुख के साथी नहीं बन

सके वो हमारे दुख में क्या साथ देगें..?”

 

इस पर अनिल ने वहां हुई पूरी बात बताई। वो सुनकर सुजाता ने अपना सर पकड़ लिया।

“पापा, नौकरी गई है, जिंदगी खत्म नहीं हुई.. मेरे दोस्त के फॉदर की फैक्ट्री में आप पार्ट टाइम काम कर

सकते हैं.. मैंने वहां बात कर ली है.. और ज़रा अपनी लाडली की भी सुनिए…कहती है की छोटी क्लास के

बच्चों को मैं भी पढ़ा सकती हूं ताकि अपनी फीस निकाल सकूं..”

अनिल की आँखें छलक उठी।

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“ऐसे बच्चों की अनमोल दौलत हैं हमारे पास तो हमसे अमीर कोई हो सकता है क्या…पैसा तो आती जाती

चीज है…मेरा परिवार सलामत रहे.. और मुझे कुछ नहीं चाहिए…पैसा तो कमाया जा सकता है पर अपने

आत्मस्वाभिमान को गिरवी रख कर नहीं…और वादा कीजिए आप मुझसे कि आप भी आज से अपने

आत्मस्वाभिमान को ही सबसे बड़ी दौलत समझेंगें..”

“और पापा.. चाचा जी की इमेज अब और अच्छी होगी जब वो अपने माता पिता को अपने पास रख कर

उनकी सेवा करेंगें…है ना…तो कुछ दिनों के लिए मैं दादा दादी को वहां छोड़ने जा रहा हूं…कुछ दिन वहां का

भी आनंद ले लें…ये भी उनका अपना ही घर है.. जब चाहे लौट आएंगे…और आज से आप कोई चिंता नहीं

करेंगें…जैसे तैसे ये वक्त भी गुजर जाएगा…मेरी नौकरी लगने दीजिए…सब ठीक हो जाएगा”

अनिल और सुजाता ने मुस्कुरा कर एक दूजे को देखा…खुश थे वो लोग…बहुत खुश और संतुष्ट भी और

उधर रमा दादा दादी के घर पहुंचने पर अपनी चाची के बारे में सोच कर मुस्कुरा दी थी।

भगवती

( स्वरचित और मौलिक रचना )

#आत्मसम्मान

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