आज अमृता बहुत दिनों बाद मायके रहने आई थी। उसकी भाभी कविता ने बहुत ही प्यार से उसका स्वागत किया। कविता, उसके भाई सुमित की पत्नी थी जोकि अमृता से आयु में छोटा था।
अमृता सुबह ही पहुंची थी। सुमित के दोनों बच्चे नेहा और प्रतीक विद्यालय जा चुके थे और मां पिताजी चाय पी रहे थे। कविता और अमृता भी उनके साथ बैठकर बातें करने लगी।
थोड़ी देर में कविता ने पूछा-“दीदी, नाश्ते में क्या खाना पसंद करोगी?”
अमृता कुछ बोलती, इससे पहले उसकी मां शीला जी बोल पड़ी-“कविता बहू, अब कल है या नहीं, क्या तुझे अपनी ननद की पसंद नहीं पता? कैसे सवाल पूछ रही है।”
अमृता ने गौर किया कि कविता कुछ उदास हो कर नाश्ता बनाने चली गई। नाश्ता बनाने के बाद उसने कपड़े धोने के लिए मशीन लगाई, मशीन में पानी का पाइप लगाते समय थोड़ा पानी नीचे गिर गया, तब उसकी सास ने उसे बुरी तरह डांट दिया, पर कविता ने मुस्कुरा कर बात आई गई कर दी।
दोपहर को बच्चे आए, बुआ को देख कर खुशी से उछल पड़े और दौड़ कर उनके कलेजे से लग गए। कविता ने कहा-“दीदी, क्यों ना शाम को कहीं घूमने चलें, बच्चे भी बहुत खुश हो जाएंगे।”
मां फिर शुरू हो गई। बस इन्हें तो हर पल घूमने की इच्छा रहती है। भई वाह! काम से बचने का अच्छा बहाना है। बच्चों के बहाने घूमने जाएगी कामचोर कहीं की। कविता एकदम रूआंसी हो गई।
3 दिन से अमृता अपनी मां का अपनी भाभी के प्रति व्यवहार और बिना किसी कारण मीन मेख निकालने की आदत को देख रही थी। उनकी पहले से ही यह आदत थी जो कि अब बहुत चिंता का विषय बन चुकी थी।
चौथे दिन रविवार था। शनिवार की दोपहर को कविता काम करने के बाद कमर सीधी करने को लेटी थी और शाम की चाय का समय होने तक बाहर नहीं आई थी। अमृता उसे देखने उसके कमरे में गई तो उसने देखा कि कविता को बहुत तेज बुखार है। अमृता ने उसे दवाई दी और लेटे रहने को कहा। अमृता बाहर आ गई।
शीला देवी ने बुखार का नाम सुनते ही पूरा घर सिर पर उठा लिया और बड़बड़ाने लगी।”ननद को देखकर महारानी के नाटक शुरू हो गए, अब ननद से खाना बनवाएगी।”
अमृता ने कहा-“मां, कविता ने जानबूझकर तो अपनी तबीयत खराब नहीं की है। क्यों इतना बोल रही हो? कल रविवार है बच्चे देर तक सोते हैं। मैं आराम से कुछ ना कुछ बना लूंगी। जब से मैं आई हूं तब से कविता मेरी कितनी सेवा कर रही है।”
मां बोली-“तू रहने दे, उसका पक्ष मत ले। तुझे उसके नाटक नहीं पता। तेरे सामने सीधी बन रही है और वैसे मुझे उल्टा जवाब देती है।”
जब दोनों मां बेटी बातें कर रही थी तो वहां कविता ना जाने कब आ गई और उनकी बातें सुन ली। वह रो कर कहने लगी-“मां जी, मैं जानबूझकर बीमार नहीं हुई हूं और मुझे भी अच्छा नहीं लगता कि यहां आकर दीदी को रसोई में काम करना पड़े।”ऐसा कहकर मैं रसोई में खाना बनाने चली गई।
शीला देवी बोली-“देखा तूने, कैसे जबान लड़ा रही है।”
खाना खाकर जब सब लोग सो गए, अमृता मां के पास गई और बोली-“मां, तुम कविता को बार-बार अपमानित मत किया करो। वह बहुत अच्छी और समझदार है। आपका, पिताजी का और मेरा सब का बहुत सम्मान करती है। सारे घर का काम खुद करती है। आपको किसी भी काम को हाथ लगाने नहीं देती।”
शीला देवी-“तो कौन सा एहसान करती है हम पर, हम भी तो अपनी सास के ताने सुनते थे और डांट खाते थे।”
अमृता-“मां, दादी जब तुम्हें अपमानित करती थी और बिना किसी गलती के डांट देती थी, तब आप कितनी उदास हो जाती थी। मैंने आपको कई बार अकेले में रोते देखा था। और जब आपको आज उनकी याद आती है तो आपका मन कड़वा हो जाता है और दुख से भर जाता है। क्या आप भी यह चाहती हो कि जब कविता आपको याद करें तो उसका मन भी कड़वा हो जाए और तुम से भर जाए। या फिर आपकी याद आते ही उसका मन आदर और प्रेम से भर जाए। समझो मां, अब तो समझो। ताली एक हाथ से नहीं बजती है। आप कविता को हर पल अपमानित करोगी, तो वह कभी ना कभी तो बोलेगी। वह अभी तक चुप है क्योंकि वह संस्कारी और समझदार है। उसे स्नेह और अपनापन दो। वह भी तुम्हें बहुत स्नेह देगी और आपके जाने के बाद जब कभी उसे आपकी याद आएगी तो प्यार से उसकी आंखें छलक उठेंगे और दिल मिठास से भर जाएगा।”
शीला जी मन ही मन अमृता की बातों पर मंथन कर रही थी। अगली सुबह, खिलखिलाती सुबह थी। हंसी खुशी में 4 दिन और बीत गए। अमृता आज वापस जा रही थी और कविता उसे आंखों ही आंखों में धन्यवाद दे रही थी क्योंकि उसे पता था कि उसकी प्यारी अमृता दीदी ने ही सब कुछ ठीक किया है।
स्वरचित, मौलिक
गीता वाधवानी शालीमार बाग दिल्ली