अम्मा जी रुआंसे मन से कार में बैठीं। उनके सीट पर बैठते ही उनकी बेटी भी कार में उनके संग बैठ गई। उसने अम्मा जी की लातों पर कंबल ओढ़ाया और उनके सिर का स्कार्फ माथे की ओर आगे करते हुए पुनः एक बार उनका शॉल ठीक किया,
लेकिन इस दौरान अम्माजी का सारा ध्यान बाहर डिक्की में उनका सामान रख रहे अपने पुत्र की ओर ही लगा रहा और सामान रखने के पश्चात् बेटे द्वारा ड्राइविंग सीट पर बैठते ही उन्होंने थोड़ा सा आगे झुक कर उसके सिर पर अपना हाथ फिराते हुए उसे दुलराया। उनके बेटे ने कार स्टार्ट की।
कार चल पड़ी और कार के साथ-साथ अम्माजी के मन ने भी अतीत की ओर गति पकड़ ली। किसी चलचित्र के फ्लैशबैक की भांति अपना समस्त जीवन उनकी आँखों के समक्ष घूमने लगा।
इस तीसरी बेटी के जन्म पर उनकी ददिया सास और सास का गुस्सा कैसे फूट पड़ा था, ‘इसकी कोख का ही कसूर है, बेटी पर बेटी जन रही है। पता नहीं इस वंश को चलाने वाला हमारे भाग में है भी या नहीं ‘ और फिर, इस बेटे के जन्म ने समय-असमय मिलने वाले उलाहनों से छलनी उनकी छाती पर मरहम लगा दी थी।
दादी और पड़दादी के तो पांव ही जमीन पर न पड़ते थे। अपनी इसी तीसरी पोती के जन्म पर तिलमिलाकर ढेर-ढेर आँसू बहाने वाली दादी और पड़दादी ने इस पोते के जन्म पर इसे अपना कुलदीपक मानकर गांव भर में लड्डू बंटवाए थे।
खुश तो वे भी बहुत हुईं थीं, किंतु इस खुशी में सास और ददिया सास के उलाहनों और तिरस्कार से मुक्ति मिलने का अंश अधिक था। फिर, तीन पीढ़ियों के दुलार तथा अपनी तीन बहनों के लाड़-प्यार में धीरे-धीरे यह बड़ा होने लगा । बेटियां पढ़ाई में अवल्ल थीं, किंतु दसवीं के बाद आर्थिक सीमाओं का हवाला देते हुए उनके हिस्से सिर्फ सिलाई-कढ़ाई और गृहकार्यों में कुशलता ही आई। तब यही तो मापदंड हुआ करता था न लड़कियों की योग्यता का ! अपने पति तथा सास-ससुर के समक्ष तब वे कितना गिड़गिड़ाईं थीं कि आजकल लड़कियों की पढ़ाई भी बहुत जरूरी है।
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अत: उन्हें आगे पढ़ने का मौका दें, किंतु ‘हमें कौन सी नौकरी करवानी है इनसे ? तीन-तीन लड़कियों का दान-दहेज जोड़ना क्या कोई आसान बात है ?’ की तर्ज पर उनकी एक न चल पाई थी। पति खुद सरकारी क्लर्क की नौकरी करते थे और पति से उन्हें अपनी बात मनवाने की पूरी उम्मीद थी, किंतु घर के बुजुर्गों के आगे वे कुछ बोलने का साहस ही नहीं कर पाए थे,अलबत्ता उन्हें ही ‘जिद्दी’ कहकर चुप करा दिया गया था। अपने कमरे में आकर वे कितना रोई थीं तब।
बेटा शरारती था। पढ़ाई में भी औसत था, लेकिन सबका लाड़ला था। सो, इसे पढ़ने के अवसर दिलाने के सभी यत्न किए गए, ट्यूशन भी रखी गईं और यह उच्च शिक्षा पा गया। इसके लिए की गई भागदौड़ और जुगाड़ से इसे नौकरी भी अच्छी मिल गई। बहनें बड़ी थीं। अतः पहले उनका विवाह किया गया । फिर, इसका ब्याह हुआ। शिक्षित था, सो उसे पत्नी भी पढ़ी-लिखी मिल गई।
फिर भी, बेटियों को आगे न पढ़ा सकने की फांस उन्हें सदैव चुभती रही। हां, एक दृष्टि से वे अपने आपको सदैव भाग्यशाली मानती रहीं कि अपने दादा-दादी एवं पड़दादी के अत्यधिक लाड़ के बावजूद उनका बेटा अनुशासित रहते हुए सदैव अपनी मां के प्रति पूर्ण समर्पित रहा। मां के अपनी बेटियों को मिली कम शिक्षा के दर्द को भी खूब समझता रहा और उसकी इस ग्लानि को उसने अपनी दोनों बेटियों की उच्च शिक्षा द्वारा दूर करने का संकल्प कर लिया।
अपने बहू-बेटे तथा उनकी दो पोतियों तथा एक पोते से युक्त भरे-पूरे परिवार संग उनके जीवन की गाड़ी अब पटरी पर ठीक-ठाक दौड़ रही थी। दूसरे नगरों में रहने वाली उनकी तीनों पुत्रियों और उनके बच्चों के आने-जाने से इस घर में सदैव मेलों जैसी रौनक रहा करती थी।
गर्मियों में सुबह-शाम की ठंडी हवा तथा सर्दियों की धूप के लिए वे बहुधा अपने घर के सामने दो कुर्सियां डलवा लेतीं और आने-जाने वाले लोगों से भी खूब बतियाया करतीं। दूसरी कुर्सी पर वहीं समीप उनके अल्पभाषी रिटायर्ड पति बैठे रहते।
फिर,सहसा समय ने उनके सुखी जीवन पर तुषाराघात किया और पिछले सात वर्षों में क्रमश: पहले पति और इसके बाद अकस्मात् एक दिन एक दर्दनाक स्कूटर दुर्घटना में अपनी पुत्र वधू के अकस्मात् देहांत ने उन्हें दुःखों के सागर में डुबो दिया, लेकिन अपनी वृद्धावस्था में मिले इन बड़े-बड़े आघातों को भी उन्होंने बड़ी जीवटता से सहन किया और अपने पुत्र तथा पोते-पोतियों के लालन-पालन को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान लिया।
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अब उनके हाथ-पांव पहले जैसी तेज गति से तो नहीं चलते, किंतु अपनी धीमी गति से ही वे अपने बेटे और पोते-पोतियों के लिए खाना आदि बनाने का काम खुद करती थीं। सभी बच्चे अपने-अपने स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई तथा ट्यूशन में व्यस्त रहते और वे उनकी देखभाल में लगी रहतीं।
समय ने एक बार फिर करवट ली और बारी-बारी उनकी दोनों पोतियों तथा पोते ने पढ़ाई के लिए विदेश का रुख कर लिया। अब घर में केवल वे एवं उनका पुत्र ही रह गए। अच्छे-खासे हँसते-खेलते भरे-पूरे परिवार की सारी रौनक को मानो सूनेपन और मनहूसी ने निगल लिया।
परिणामस्वरूप उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे बिगड़ता गया और तीन माह पूर्व वे हार्ट अटैक का शिकार होकर चलने-फिरने को भी मोहताज हो गईं। उनकी इस अवस्था में उनका बेटा उन्हें अकेला संभाल नहीं पा रहा था। सो, उनकी यह पुत्री उनकी सेवा-शुश्रुषा के लिए उनके पास आई हुई थी। अब समस्या यह थी कि आखिर कितने दिन तक अपनी घर गृहस्थी को छोड़ कर वह यहां रह पाएगी ? अत: उसने सुृृझाव दिया,
‘ अम्मा ! अब परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं। हमारा भरा-पूरा घर-परिवार खाली हो गया है।भाभी के बिना भाई तुम्हें अकेला कैसे संभाल पाएगा ? अतः तुम्हें अपनी जिद छोड़कर मेरे साथ मेरे घर चलने के लिए मान जाना चाहिए। भाई बीच-बीच में तुम्हें मिलने के लिए आता रहेगा।’
सोचते-सोचते उनके नेत्रों से बरबस जल बहने लगा। क्या सरल था उनके लिए इस निर्णय को स्वीकार करना ? कल रात तक वे कितनी ऊहापोह में थीं, ‘विधाता ने मेरे भाग्य में बेटी के घर का पानी पीने की विवशता क्यों लिखी ? मैं तो इसे ठीक से लिखा-पढ़ा भी नहीं पाई ।
यदि वहीं मेरी मृत्यु हो गई तो क्या मैं कभी मुक्त हो पाऊँगी ? मेरे बिना मेरा पुत्र यहाँ अकेला कैसे रहेगा ? इस घर का अकेलापन तो उसे लील ही जाएगा।’ किंतु, बेटी की दुविधा के समक्ष अपनी पीड़ा को भीतर ही भीतर पीकर उन्हें बेटी-बेटे द्वारा सुझाए गए इस विकल्प को स्वीकार करना ही पड़ा था।
और आज अपने घर की जिम्मेदारियों को समझते हुए अपनी बेटी द्वारा उन्हें अपने साथ ले जाना उन्हें ‘बेटियों पर गर्व’ महसूस तो करवा रहा था,किंतु अपने बेटे के मन की पीड़ा को महसूस करते हुए उनकी आँखें बार-बार भर रही थीं, ‘रात को उनकी लातें दबाते हुए उनके पैरों के पास बैठकर बिना कुछ बोले ही कैसे झर-झर रो रहा था ?’
उनके मन में एक विचार रह-रहकर कौंध रहा था कि हमारे समाज में ‘बुढ़ापे का असली सहारा तो बेटा ही बनेगा’ जैसी सोच रखते हुए मन्नतें मांग-मांगकर इन पुत्रों को पाने की चाह रखी जाती है,जबकि स्त्री के बिना,(चाहे वह बेटी,पत्नी,बहन,माँ किसी भी रूप में हो) ये पुत्र अपनी जिम्मेदारियां निभाने में कितने विवश हो जाते हैं?
तभी सहसा उनकी बेटी का उनके झरते आंसुओं की तरफ ध्यान गया और उसने उन्हें पोंछते हुए मां को अपने आंचल में समेट लिया। अम्माजी पुनः वात्सल्य भाव से भीग गईं।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।