एलेक्सा – –ऋता शेखर ‘मधु’

पात्र-

शुभ्रा-घर की बहू

रमेश-शुभ्रा का पति

कल्याणी- शुभ्रा की सास

उमेश बाबू- शुभ्रा के ससुर

आरव- शुभ्रा का पुत्र, उम्र 10 वर्ष

आरुषि- शुभ्रा की पुत्री, उम्र 8 वर्ष

 

एक बैठक का दृश्य। बैठक में दो सेट सोफे हैं,एक बड़ा सेट गद्दा वाला। एक लकड़ी का कुशन वाला। वहीं एक आलमीरा के ऊपर एलेक्सा है। बड़ा सा टेलीविजन है। सामने ही खाने की मेज लगी है। बगल में रसोईघर है। दिन के खाने का समय हो रहा है। रविवार का दिन है इसलिए सारे इकठ्ठे ही खाएँगे।

 

खाने की मेज पर सभी व्यंजन सजे हुए हैं। शुभ्रा सलाद और पापड़ की अंतिम तैयारी कर रही।

 

आरव- एलेक्सा, मैच लगाओ।

आरुषि- नहीं एलेक्सा, कोई कार्टून लगाओ।

रमेश- ओह, एलेक्सा, कोई न्यूज़ चैनल लगाओ।

कल्याणी जी- एलेक्सा, भजन लगाओ।

आरव- यह साइंस का कितना बड़ा आविष्कार है न। हम जो चाहे करवा सकते हैं।



उमेश जी- हाँ बेटे। साइंस ने पूरी दुनिया ही बदल दी है। हम जो सोच भी नहीं सकते , वहाँ तक साइंस जा पहुँचा है। हर क्षेत्र में इसके बड़े बड़े कारनामे हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से पूरी दुनिया मुठ्ठी में लगती है।

कल्याणी जी-किन्तु ईश्वर से बड़ा कोई वैज्ञानिक नहीं।

आरव- वह कैसे दादी।

कल्याणी जी- वह ऐसे कि हमारा शरीर कितने ही सिस्टम को समेटे बिना किसी शोरगुल के काम करता रहता है। ऊपर से चिकना चुपड़ा भी दिखता है।

आरव- वह कौन कौन से सिस्टम हैं दादी।

कल्याणी जी- देखो आरव, सबसे पहले तो कंकाल तंत्र जो शरीर को काया प्रदान करता है। हड्डियाँ खटखट न करें इसके लिए उनके ऊपर मांसपेशी तंत्र सजे हैं। पूरे शरीर को ऊर्जा मिले, इसके लिए पाचन तंत्र और रक्त परिसंचरण तंत्र है। कितना आश्चर्य है कि जिस भोजन को हम ठोस रूप में लेते वह तरल रूप में हमारे रक्त के साथ मिलकर ऊर्जा देता है।

आरव- हाँ, और जो फालतू चीजें होतीं उन्हें शरीर से बाहर निकालने का अलग तंत्र होता है। तभी तो हम सुबह सुबह टॉयलेट भागते हैं।

 

सभी ठठाकर हँस पड़े।

 

उमेश बाबू- इतना ही नहीं, ईश्वर ने हमें नर्वस सिस्टम भी दिया है। जिससे हम सब कुछ देखते हैं, समझते हैं और उसी अनुसार काम भी करते हैं। 

आरुषि- बाबा रे, भगवान जी तो बहुत बड़े साइंटिस्ट हैं।

रमेश – देखो,भगवान जी ने हमें सोचने समझने की शक्ति दी है तभी एलेक्सा का आविष्कार हुआ है। उस मशीन को हम अपने अनुसार चलाते हैं। 

रमेश आवाज लगाते हुए- शुभ्रा, कितनी देर लगेगी खाना परोसने में। हम सभी इंतेज़ार कर रहे। भूख से जान निकली जा रही।

शुभ्रा किचन से- सब कुछ तो मेज पर रखा है न।

रमेश- हाँ तो, इसका मतलब है कि हम खुद परोसें ?

शुभ्रा – परोसती हूँ।

आरव- मम्मी, आपने पानी नहीं रखा।



शुभ्रा- रखती हूँ।

आरुषि – मम्मा, आप खिलाओ मुझे।

शुभ्रा- ठीक है।

कल्याणी जी- बहू, अचार वाली शीशी तो तुमने रखी ही नहीं।

शुभ्रा- जी, रखती हूँ।

उमेश जी- तुम भी सबके साथ ही खा लो शुभ्रा।

शुभ्रा- जी, आती हूँ।

रमेश- एलेक्सा, कठपुतली पर कविता सुनाओ।

एलेक्सा- सबकी बातें माने जो, ना कहना ना जाने जो, उसकी कोई मर्जी नहीं, देती कोई अर्जी नहीं।

आरव- एलेक्सा, किसी कठपुतली का नाम बताओ।

एलेक्सा- शुभ्रा

रमेश- ओह्ह, मशीनों के पास भी दिमाग होने लगे हैं।कितना बोलती है।

शुभ्रा-वह शुभ्रा नहीं कि सही बात भी न बोल सके।

 

रमेश जल्दी से उठकर खाना परोसने लगते हैं। कल्याणी जी जाकर अचार की शीशी लाती हैं। आरव पानी लाने उठ खड़ा होता है और छुटकी आरुषि खुद खाने लगती है। उमेश जी मुस्कुरा उठते हैं।

इसके साथ ही पर्दा गिर जाता है।

–ऋता शेखर ‘मधु’

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