अजनबी – विजया डालमिया

अगर इश्क गुनाह है तो गुनाहगार है खुदा जिसने बनाया दिल किसी और पर आने के लिये।

कुछ हादसे आवाज छीन लेते हैं ।इंसान चाह कर भी उन हादसों से बच नहीं सकता क्योंकि वह जिंदगी में ऐसी छाप छोड़ जाते हैं कि बदलाव आए बिना नहीं रहता। देखने को सब कुछ वही रहता है।पर भीतर में जो चल रहा होता है उससे आप अछूते नहीं रह पाते ।आप भले ही जाहिर करना छोड़ दो, पर महसूस करना कभी नहीं छोड़ सकते।

खुला आसमान। झील का किनारा और सुगंधा एकदम अकेले ।सोच रही थी कि जिस शोर से बचकर वह यहाँ आयी है  वह शोर तो उसके भीतर का है ।भीतर के शोर को कोई कैसे शाँत करे? क्या गलती थी उसकी?सिर्फ यही ना कि वह प्यार कर बैठी ।प्यार करना कोई गुनाह तो नहीं। पर गलत इंसान से अगर प्यार हो जाए तो वह जरूर गुनाह का बोध करा देता है ।

शाँत झील में सुगंधा अपने बीते कल की परछाइयाँ  देखने लगी।मासूम निश्चल सुगंधा ।अपने नाम के ही अनुरुप  अपनी बातों से जहाँ जाती सब को महका देती। बसंत ऋतु में हर तरफ फूलों की बसँती बहार छाई थी। ऐसे में सुगंधा की नजर रमेश से टकरा गई ।उस दिन अपनी सहेली की सालगिरह पर जब उसने रमेश को गाते हुए सुना तब देखते ही रह गयी । गाने की मधुर आवाज जैसे…. कान्हा की मुरलिया। बस वही मीठी तान उसे मदहोश कर गई ।

वह सुध बुध भुला बैठी ।रात दिन उसके कान वही तान सुनने  लगे। फिर एक दिन मार्केट में अचानक से रमेश से उसकी मुलाकात हुई। सुगंधा ने उससे कहा…. “हैलो पहचाना? हम बर्थडे पार्टी में मिले थे”? रमेश ने कहा… “…जी… जी याद आ गया। कैसी हैं आप” ?

सुगंधा के बिन बोले ही रमेश भांप गया कि वह उसकी ओर आकर्षित है। उसने कहा ….”चलिए, यहीं नजदीक मेरा घर है। साथ में कॉफी पिएंगे”। उसकी बातों की कशिश कहो या आकर्षण ,सुगंधा उसके साथ सम्मोहित सी चल पड़ी। साफ सुथरा घर। घर पर माँ से परिचय करवाया और कॉफी के साथ उन  दोनों का भी परस्पर परिचय हो गया। अब सुगंधा काफी नार्मल फील कर रही थी ।

उसने कहा ….”अच्छा चलती हूँ”।…” फिर कब मिलना होगा… “?सुनकर सुगंधा के  चेहरे पर हल्की सी लाली आ गयी ।…”जल्दी ही..”। कह कर वो निकल पड़ी। बाद में वे जल्दी जल्दी मिलने लगे। प्यार हुआ ।इकरार हुआ और सुगंधा ने खुद को बेइंतहा प्यार में खो दिया।


 सबसे दूर उसने अपनी एक खूबसूरत दुनिया बसा ली थी,रमेश के साथ ।प्यार के पल जीते वक्त कुछ और नजर नहीं आता सिवाय महबूब के ।इसीलिए शायद कहते हैं प्यार अंधा होता है। समर्पण हमेशा प्रेम को बहुत आगे तक ले जाता है। पर देह का  समर्पण कभी-कभी प्रेम को चुनौती भी दे देता है ।यही उसके साथ हुआ। कुछ नाजुक पलों में उससे यह गलती हो गई ।रमेश की माँ कुछ दिनों के लिए गाँव गई हुई थी और तब वह कमजोर लम्हे उन्हें कमजोर कर गये ।

 पर इसे प्रेम नहीं कहा जा सकता और ना ही हमारा समाज इसकी मान्यता देता है। वर्जनायें तो टूटी थी। पर क्या गलती  अकेली सुगंधा की थी? नहीं….। सुगंधा तो  अभी भी अपने प्रेम को पवित्र मानकर चल रही थी। उसे क्या पता था कि रमेश का प्रेम सिर्फ देह तक ही सीमित था ।पर जल्दी ही हकीकत उसके सामने आ गई ।

वह समझ गयी कि हमारे समाज की मान्यताएँ हमें सुरक्षित रखने के लिए ही बनी है।वो टूट कर बिखर गयी ।आँसुओं में बह गई उसकी सारी भावनाएँ ।पहला प्यार जितना शिद्दत से किया जाता है,उसकी चोट भी उतनी ही गहरी होती है।

खिलखिलाती सुगंधा खामोशी से अपना यह दर्द पी तो गयी। पर वह खामोश हो गयी।सारा दर्द उसकी आँखों में सिमट कर रह गया। सबके लिए यह बहुत अचरज की बात थी। पर यह भी एक सच्चाई ही है कि सुख के सब साथी दुख में ना कोई ।

अपने अपने हिस्से का दर्द चाहे शारीरिक हो या मानसिक, खुद को ही सहना पड़ता है ।कुछ दिनों से सुगंधा को उसकी मौसी बुला रही थी ।उनकी जिद की वजह से वह नैनीताल चली आयी।परँतु जब हमारी मनोदशा सही नहीं होती तो हम किसी भी दिशा में चले जायें मन नहीं लगता ।

खामोश झील के किनारे बैठे-बैठे सुगंधा अपना अतीत जी गयी ।डूबते सूरज की तरह डूबे  दिल को तसल्ली भी नहीं दी कि ,कल फिर सूरज उगेगा। थके कदमों से धीरे-धीरे नजरें झुकाये वह बढी  जा रही थी कि एक जगह उसे ठोकर लगी ।वह गिरती ,उसके पहले ही किसी के मजबूत हाथों ने उसे थाम लिया ।जैसे ही उसकी नजर उठी वह जड़वत  हो गई। अपनी आँखों पर उसे भरोसा नहीं आया ।….रमेश… उसने धीरे से अपने आप से  कहा ।



“…आपने कुछ कहा “?वह अपलक ,अविश्वसनीय नजरों से उसे देख रही थी और उस शख्स के चेहरे पर एक प्यारी-सी  मुस्कान तैर रही थी।” आप ठीक तो है?” सुगंधा की जुबान मानो सिल  सी गई थी। पर आँखों में एक सवाल तैर रहा था ,जो उस शख्स ने पढ़ लिया और कहा …

“मेरा नाम जीवन है। मैं यहाँ घूमने आया हूँ “। और आप …?उससे कोई जवाब न पाकर गहरी नजरों से उसे देखा और आगे बढ़ गया। दिल में जब किसी की सूरत बसी होती है और वही सूरत सामने आ जाए तो भले ही हम उससे आहत  हो फिर भी नफरत नहीं कर पाते ।प्रेम को नफरत में बदलना नहीं आता।

 प्रेम का वास्तविक रूप तो प्रेम में ही निहित है ।इतना तो सुगंधा समझ ही चुकी थी कि यह रमेश नहीं। पर दो लोगों में इतनी समानता कैसे हो सकती है, यह वह समझ नहीं पा रही थी । उसके शाँत दिल में फिर से हलचल सी मचने लगी। दूसरे दिन वही झील का किनारा। खुला आसमान और तन्हा सुगंधा ।तभी एक चिर परिचित आवाज ने उसे चौंका दिया… “अरे ,आप”? उसने नजरें उठाई और धीरे से कहा…” जी मैं सुगंधा “।सुनते ही वह कह  उठा…” थैंक गॉड ।

आप  जबान भी रखती हैं। मैं तो समझा था कि आप…..”। सुगंधा ने कुछ नहीं कहा। वह भी वहीं बैठ गया। शायद वह सुगंधा की खामोशी को सुन रहा था। कितनी ही देर दोनों चुपचाप बैठे रहे ।फिर उसने कहा….” एक गज़ल मेरी बहुत फेवरेट है ।अगर आपको आपत्ति ना हो तो क्या मैं उसे गुनगुना सकता हूँ?सुगंधा की आँखों में मौन स्वीकृति पाकर  वह  गुनगुना उठा…..” हम तेरे शहर में आए हैं, मुसाफिर की तरह ।

सिर्फ एक बार मुलाकात का मौका दे दे।

सुगंधा ने अपनी सूनी आँखों से उसे देखा। जीवन ने उन्हें पढ़ा ।शायद किसी शायर ने सही कहाहै कि .. सारे अल्फाज भी उतना बयाँ नहीं कर सकते।

बयान जितने हैं नजरों की बेबयानी में।

जैसे ही शाम ढली, वह बोल पड़ा ….”ढलता सूरज ये उम्मीद देता है कि वह सुबह कभी तो आयेगी” ।शायद उसने सुगंधा की आँखों में बेइंतहा प्यार की बेबसी, तनहाई देख ली थी। उसने सुगंधा की तरफ अपना हाथ बढ़ाया और एक मुस्कुराहट के साथ दोनों में एक नया रिश्ता ,जो देह से परे था पर आत्मा के शायद बेहद करीब कायम होने  चला।

मुझे पतझड़ की कहानियाँ सुनाकर उदास ना कर ए जिंदगी।

नये मौसम का पता बता जो गुजर गया सो गुजर गया।

विजया डालमिया

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