कभी-कभी रिश्तों की अहमियत व्यक्ति को देरी से समझ में आती है।जिन्दगी में परिस्थितियाँ बदलती हैं,उन्हीं के अनुसार व्यक्ति को भी बदलने में ही भलाई है।यह बात अब आशा जी की समझ में आ चुकी थी।
आशाजी ,जो अपने गाँव के बड़े मकान में अपने पति के साथ सुखपूर्वक रहती थीं।साल में एक-दो बार छुट्टियों में बच्चे गाँव आ जाते थे,उन्हीं यादों के सहारे जिन्दगी आराम से गुजर रही थी।बेटी अंकिता शादी के बाद विदेश चली गई थी,बेटा आलोक दिल्ली के किसी इंटरनेशनल कंपनी में नौकरी कर रहा था।उसके दो छोटे-छोटे बच्चे थे।कभी-कभी आशाजी पति-पत्नी बेटे -बहू के पास आ जाते,परन्तु कुछ ही दिनों में शहर से ऊबकर गाँव लौट जाते।उन्हें शहर की जिन्दगी रास नहीं आती।
समय की चाल को आजतक तक कोई नहीं समझ पाया है!एक दिन अचानक हृदयाघात से उनके पति की मृत्यु हो जाती है।पति की मौत से आशाजी बिल्कुल टूट जाती हैं।पिता के क्रिया-कर्म समाप्त होने पर बेटे आलोक ने कहा -” माँ!आप गाँव में अकेली कैसे रहेंगी,हमारे साथ चलिए। “
आशाजी ने कहा -” बेटा!कुछ दिन मुझे पति की यादों के सहारे रहने दो।इस घर में उनकी खुशबू रची-बसी है।एकाएक छोड़कर नहीं जा सकती हूँ।”
आलोक-” माँ !ठीक है।मैं फिर पन्द्रह दिन बाद आऊँगा।तबतक आप सोच लेना।”
बेटे के जाने के बाद दिनभर तो लोगों का आना-जाना लगा रहता था,परन्तु रात के सन्नाटे में घड़ी की हल्की -सी टिक-टिक भी भय उत्पन्न करती ।वे पसीने-पसीने होकर बिस्तर पर उठकर बैठ जातीं।पति के जाने से उनकी दुनियाँ वीरान हो गई थी।पन्द्रह दिनों में ही घर का सन्नाटा उन्हें काट खाने को दौड़ता।भला यादों के सहारे जिन्दगी का अकेलापन कहाँ कटता है! रात के सन्नाटे में सूनी दीवारें भी मानों उन्हीं के साथ सिसक उठती।पन्द्रह दिनों का इंतजार उन्हें युग के समान प्रतीत होने लगा।
अकेलेपन से ऊबकर आशाजी बेटे के साथ दिल्ली आ गईं।दिल्ली में एक सोसायटी में बेटे ने छोटा-सा फ्लैट ले रखा था।आशाजी को छोटे से फ्लैट से कोई दिक्कत नहीं थी,परन्तु जिस अकेलेपन से ऊबकर गाँव से शहर आईं थी,वह यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रहा था।एक तो पति का वियोग, दूसरा उन्हें फ्लैट की संस्कृति रास नहीं आ रही थी।बेटे-बहू सुबह काम पर निकल जाते,बच्चे स्कूल।एक घंटे के लिए कामवाली आती तो उससे ही बातें करना चाहतीं,परन्तु बड़े शहरों की बाइयों को भी फुर्सत नहीं होती। उन्हें एक घर का काम निबटाकर दूसरे घर भागना पड़ता है।बाई काम करते-करते आशाजी से एक-दो बातें कर लेती।उसे आशाजी की मनःस्थिति से क्या मतलब?
बेटे ने हिदायतें देते हुए कहा था -” माँ!गाँव की तरह अनजान आदमियों के लिए आप दरवाजा नहीं खोलेंगी,यहाँ आए दिन बुजुर्गों के साथ घटनाएँ घटती रहती हैं!”
बेटे के मना करने के बावजूद कभी-कभार आशाजी दरवाजा खोलकर देखने की कोशिश करतीं कि पड़ोस में कौन-कौन हैं?बाहर देखने पर कोई नजर नहीं आता,अगर कोई दिखता भी तो हाय!हैलो!कहकर निकल जाता।उन्हें यहाँ सभी भागते-दौड़ते नजर आते ।उनके मुँह के बोल मुँह में ही रह जाते।
दिनभर टेलीविजन देखकर आशाजी परेशान हो जातीं।कभी कोई पत्रिका पढ़तीं,कभी मायूस होकर बिस्तर पर लेट जातीं।समय काटे नहीं कटता।बिस्तर पर लेटे-लेटे आँखों में गाँव का दृश्य घूमने लगता।सुबह-सुबह उनके गाँव के बगीचे में मकरंद भरी प्यारी हवाएँ चला करती थीं।वृक्षों की हरियाली से तन-मन सराबोर हो जाते थे।प्राची के क्षितिज पर भगवान भास्कर मुस्कराते हुए दिख जाते थे।यहाँ तो सूर्योदय देखना भी नसीब नहीं होता है।
सुबह-सुबह आँगन में दाना डालने पर पक्षियों का कलरव मचा रहता था।दिनभर लोगों का आना-जाना लगा रहता था।देर रात तक आँगन का दरवाजा नहीं बन्द होता था।अचानक से काॅल बेल की आवाज से उनकी तन्द्रा भंग होती है।बच्चे स्कूल से आते ही दादी-दादी कहकर उनसे लिपट जाते हैं।उन्हें एहसास होता है कि गाँव में भी पति के रहने पर ही सारी परिस्थितियाँ अनुकूल थीं,वर्ना पन्द्रह दिनों में ही प्रत्येक काम के लिए दूसरों का मुँह देखना पड़ता था।यहाँ तो कुछ देर का अकेलापन है,फिर तो बच्चे साथ ही रहते हैं।धीरे-धीरे उन्हें शहर और बच्चों की अहमियत का एहसास होने लगा था।अब वे गाँव जाने की बात कम करने लगीं।
बेटा-बहू आशाजी की मनःस्थिति को भली-भाॅति समझ रहे थे।उनलोगों ने आशाजी को शहर में मन लगाने की तरकीब खोजी।एक दिन बेटे आलोक ने बालकनी में चिड़ियों के लिए दाना-पानी रख दिया।उनका पोता जोर से चिल्लाया -“दादी माँ!देखो,यहाँ भी ढ़ेर सारी चिड़ियाँ आ गईं हैं!”
अब अगले दिन से आशाजी रोज चिड़ियाँ को दाना-पानी डालते समय मुस्कराकर सोचतीं -“यहाँ बाल्कनी छोटी है,तो क्या हुआ?चिड़ियाँ तो यहाँ भी आती हैं!”
अब बहू उनसे कहने लगी -” माँ!सुबह-शाम पार्क में घूम आइए।”
आशाजी कहतीं -” बहू!मैं गाँव की हूँ।लोगों से क्या बात करूँगी?”
उनकी झिझक दूर करने के लिए एक दिन उनकी बहू उन्हें तैयार कर सोसायटी की महिलाओं की किट्टी कीर्तन में ले गई।
आशाजी किट्टी कीर्तन में जाते हुए मन-ही-मन सोच रहीं थीं-” वहाँ तो सभी आधुनिक ड्रेस में होंगी,मैं वहाँ साड़ी में गँवार लगूँगी।”
परन्तु वहाँ जाकर आशाजी ने देखा कि अधिकांश महिलाओं ने साड़ी पहन रखी थीं तथा अधिकांश उन्हीं की हमउम्र थीं।यह सब देखकर उनके दिल को तसल्ली हो गई। भजन-कीर्तन का कार्यक्रम आरंभ हो गया।आशाजी ने भी दो प्यारे भजन गाए।सभी महिलाओ ने ताली बजाकर आशाजी का स्वागत किया और सुबह-शाम पार्क में आने का आमंत्रण भी दिया।अब धीरे-धीरे उन्हें शहर और शहरी जीवन की अहमियत समझ में आने लगी।
अब आशाजी सुबह-शाम खुश होकर पार्क में टहलतीं।सभी के साथ फोन पर आचार,बड़ियाँबनाने की विधि का आदान-प्रदान करतीं।कभी-कभार उनलोगों के साथ बाजार और मंदिर भी घूम आतीं।तबीयत खराब होने पर बेटा तुरंत डाॅक्टर से दिखा लाता।यहाँ उन्हें किसी काम के लिए किसी की खुशामद भी नहीं करनी पड़ती।अब उन्हें एहसास होने लगा था कि जहाँ परिवार का अपनापन हो,वही जगह प्यारा है।अब उनके ने दोस्त बन गए थे।अब वे खुश रहने लगीं थी।बेटा-बहू को उनका यह बदलाव अच्छा लग रहा था।एक दिन बेटे आलोक ने मजाक करते हुए कहा -” माँ!आपका गाँव का टिकट कटा दूँ?”
आशाजी को परिवार के सानिध्य की अहमियत समझ आ गई थी।उन्होंने मुस्कराकर कहा-“नहीं बेटा!अकेले गाँव जाकर क्या करुँगी?तुमलोग सभी तो यहीं हो!”
बेटा-बहू ने भी मुस्कराते हुए कहा-माँ!और आपके किट्टी -कीर्तन के दोस्त भी!”
आशाजी ने झेंपते हुए मुँह घुमा लिया।
समाप्त।
लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)
nice story