कंपनी की मीटिंग खत्म कर शैव्या ऑटो लेकर मेट्रो की ओर बढ़ी जा रही थी।
ऑटो वाले ने ऑटो के अंदर म्यूजिक सिस्टम लगा रखा था, जिसमें से जिंदगी को परिभाषित करता गीत पूरे ऑटो में गूॅंज रहा था
ज़िन्दगी का सफ़र है ये कैसा सफ़र
कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं
सच ही जिंदगी चाहे जिस गति से दौड़े, चाहे हमें कितना भी लगे कि हमने लगाम अपने हाथों में ले रखा है। लेकिन कभी कभी जिंदगी ऐसे घूमती है कि इंसान फटी फटी ऑंखों से देखता रह जाता है और जिंदगी मुस्कुराती वक्त से मित्रता कर आगे बढ़ जाती है, भले ही इंसान वही का वही खड़ा रह गया हो।
गाने सुनती ऐसे ही दो चार विचारों को आत्मसात करती शैव्या ऑटो के एक कोने पर सिर टिकाए ऑंखें बंद किए हुए साथ साथ गाना गुनगुना भी रही थी। अचानक झटके से ऑटो रुका और शैव्या गुनगुनाना बंद कर सिर टिकाए ही ऑंखें खोल कर देखने लगी, सामने लाल बत्ती चमकती देख शैव्या इधर उधर देखने लगी। इधर उधर देखती शैव्या की दृष्टि सामने पगडंडी पर बैठी एक लड़की पर पड़ी, जिसके सामने एक कटोरे में कुछ सिक्के भी रखे हुए थे और एक चादर पर छोटा सा गोल मटोल बच्चा हाथ पैर चलाता खेल रहा था, साथ ही उस लड़की को देख मुस्कुरा भी रहा था और लड़की के होंठों पर एक छोटी बेबस सी मुस्कान आकर तुरंत चली जाती थी।
उस लड़की को देख शैव्या अभी उसकी उम्र और परिस्थिति का अंदाजा लगा ही रही थी कि बत्ती हरी होकर आगे बढ़ने का संकेत देने लगी। ऑटो तो आगे बढ़ गया लेकिन शैव्या की चेतना वही रह गई। घर पहुॅंच कर सब काम करते, हॅंसती बोलती शैव्या का सारा ध्यान उस लड़की की ही तरफ था।
दूसरे दिन रविवार होने के बाद भी शैव्या पति से सारी बातों की चर्चा कर फिर से गुड़गांव के लिए निकल गई। वो खुद भी नहीं समझ पा रही थी कि कौन सी अदृश्य डोर उसे उस लड़की की ओर खींच रही है। लेकिन उस सड़क पर जाकर वो मन मसोस कर रह गई क्योंकि वो लड़की उस समय शैव्या को नजर नहीं आई। यहाॅं से वहाॅं तक सड़क बिल्कुल खाली थी। शैव्या उदास मन से मॉल में जाकर बैठ गई। काफी देर बैठे रहने के बाद घर जाने का सोच निकलती शैव्या के कदम एक बार फिर से उस सड़क की ओर बढ़ गए। शैव्या को दूर से ही वो लड़की नजर आने लगी थी। शीघ्रता से कदम बढ़ाती शैव्या वहाॅं पहुॅंचते पहुॅंचते हाॅंफने लगी थी।
ठीक है, जब भी तुम्हें मेरी जरूरत लगे बेधड़क मेरे पास आ सकती हो। ये मेरा कार्ड है, लड़की के ये कहने पर वो थोड़ा बहुत पढ़ लेती है, शैव्या उसे खुद का कार्ड देती विचलित मन लिए अपने घर की ओर बढ़ चली।
“उम्र ही क्या है उसकी, चंद्रलेखा कितना खुबसूरत नाम है। बंजारे हैं वो लोग। जहाॅं जाते हैं, हाथ से बनाए सामानों की दुकानें लगाते हैं और अपनी बेटियों से, मुझे तो कहते भी शर्म आती है। अगर ऐसे में बच्चा हो गया और वो लड़का हुआ तो पालने की जिम्मेदारी उसी लड़की पर डाल देते हैं और अगर लड़की हुई तो सारी जिम्मेदारी सभी उठाते हैं। क्या समाज है हमारा, नहीं पुलिस में भी नहीं जा सकते। उस लड़की का कहना है कि पहले से ही पुलिस से सांठ गांठ करके रखते हैं, जिससे बाद में कोई बखेड़ा ना हो। वो हमारे साथ भी नहीं रह सकती है। उसके चेहरे पर फैली उदासी भरी मासूमियत मुझे विचलित करती है पार्थ।” पति पार्थ के पूछने पर शैव्या आज की सारी घटना बता रही थी।
“दीदी”, लगभग एक महीने के अंतराल पर सड़क पर खड़ी कैब में बैठने जा रही शैव्या इस आवाज पर पीछे मुड़ कर देखती है तो दुप्पटे से आधा चेहरा छुपाए चंद्रलेखा बच्चे को लिए खड़ी थी।
“तुम यहाॅं”, बोलती शैव्या चंद्रलेखा और उसके बच्चे को लिए कैब में बैठ गई।
“दीदी वो लोग इसे बेचना चाहते हैं। बचा लो दीदी, इसे।” पार्क में बेंच पर बैठी अपने बच्चे की ओर इशारा करती हुई चंद्रलेखा कहती है।
“पर क्यूॅं”
“दीदी बहुत सारी बातें हैं, मैं ज्यादा देर रुक नहीं सकती। तुम बस इसे रख लो। इसे पुलिस में मत देना दीदी।” शैव्या के गोद में बच्चे को रखती हुई चंद्रलेखा उसे विश्वास भरी नजर से हाथ जोड़ती हुई कहती है।
“पर मैं इसे, इस तरह।” शैव्या अचानक हड़बड़ा गई थी।
“दीदी, बाद में इसे पढ़ लेना। कुछ खबर सुनो तो भी बस इसका सोचना दीदी।” बोलती हुई चंद्रलेखा शैव्या की गोद में ही बच्चे को चूमती पार्क के गेट की ओर भागती चली गई।
“नहीं नहीं पार्थ, इसे पुलिस में नहीं देना है। चंद्रलेखा बहुत विश्वास से इसे दे कर गई है।” पार्थ की बात पर शैव्या तड़प कर बच्चे को गले से लगाती हुई कहती है।
“लोगों को क्या कहेंगे शैव्या, यहाॅं तो सबको पता है कि हमारे कोई बच्चा नहीं है।” पार्थ शैव्या की भावुकता देख परेशान सा होता हुआ कहता है।
“कह देंगे मेरी सहेली का बेबी है, वो कहीं गई है इसलिए कुछ दिनों के लिए हमें ही इसकी देखभाल करनी है। फिर आगे का आगे देखेंगे।” शैव्या बच्चे को प्यार भरी नजर से देखती कहती है।
“अच्छा ठीक है और उस कागज में क्या था।”
“ओह मैं तो भूल ही गई थी।” पार्थ के पूछने पर शैव्या पर्स से कागज निकाल कर पढ़ने लगी।
इसमें क्या लिखा है, बहुत ही टूटे शब्दों में लिखा गया है। कुछ समझ नहीं आ रहा है पार्थ। कहकर शैव्या कागज पार्थ की ओर बढ़ा देती है।
“दीदी, अगर मेरे बारे में कुछ भी खराब सुनो तो भी मत आना। मैं अपनी ममता तुम्हें दिए जा रही हूॅं। बस उसका ध्यान रखना। जानती हूॅं कि ये जबरदस्ती की थोपी हुई ममता है, लेकिन तुम्हारे अलावा किसी को जानती भी तो नहीं। अगर तुम्हें नहीं देती तो वो लोग इसे बेच देते। लड़की तो है नहीं जो आगे सूद समेत वसूलते। इसलिए अभी ही इसके मार्फत पैसे कमाना चाह रहे हैं। बस अब किसी बच्चे को अपने जरिए दुनिया में नहीं आने देना है दीदी। विनती है दीदी अपनी ममता की थोड़ी सी बूंद से ही सही इसे भी नहला देना।” पार्थ अटक अटक कर बिखरे हुए शब्दों को जोड़ता पढ़ता गया।
“क्या मतलब है इसका पार्थ। जिस उम्र में लोग अपनी माॅं के ऑंचल तले ममता का म सीख रहे होते हैं। इस लड़की के अंदर इतना प्रेम, इतनी ममता। हे ईश्वर रक्षा करना उसकी।” बच्चा जब तब अपनी माॅं को खोजता जार जार रोने लगता, उसे थपकी देती चुप कराती शैव्या बोलती है।
दो दिन से बच्चे के साथ सोती जागती शैव्या की आज सुबह ऑंख लगी ही थी की पार्थ की चीख सुन वो भागती हुई बाहर आई।
शैव्या, ये देखो, लिखा है सड़क पर लावारिस लाश मिली है, जो कोई जानता हो, आकर शिनाख्त करें।
“चंद्रलेखा”…कहती हुई शैव्या बाहर की ओर दौड़ी और बाहर लगे कैक्टस में उसकी साड़ी का पल्लू उलझ जाने से लड़खड़ा कर गिरने वाली थी कि पार्थ ने उसे पकड़ लिया, साथ ही बच्चे की रोने की आवाज भी आने लगी।
पार्थ, चंद्रलेखा, क्या ऐसी भी माॅं होती है, हमें उसकी शिनाख्त के लिए चलना चाहिए पार्थ।” बोलती शैव्या फूट फूट कर रोने लगी।
“नहीं शैव्या, दिल पर पत्थर रख लो। उसकी ममता को जाया नहीं होने देना है। कहीं ऐसा ना हो कि हम ऐसे में बच्चे को खुद से छिनता हुआ देखते रह जाएं। बस इतना ही सौगंध लेना है हम दोनों को।” पार्थ कांपती हुई आवाज में कहता है।
“माॅं बनते ही क्या ममता का दरिया यूॅं प्रस्फुटित होता है पार्थ कि अपने प्राण का मोह भी खत्म हो जाता है।” दौड़ कर रोते बच्चे को उठा अपने सीने से लगाती शैव्या जोर जोर से रोने लगी।
“शायद ममता, उस दिन ममता की यही अदृश्य डोर मुझे खींच कर फिर से चंद्रलेखा के समक्ष ले गई थी।” हिचकियाॅं लेकर रोती शैव्या बार बार दुहरा रही थी।
आरती झा आद्या
दिल्ली
