अधूरा रिश्ता पूरा हुआ – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

 मेरे चाचा दिल्ली में डाॅक्टर थे।उनकी बेटी रंजू मेरी हमउम्र बहन थी और सहेली भी।स्वभाव से वह बहुत चंचल थी, मिज़ाज भी गरम रहता था लेकिन किसी की आँख में आँसू देखकर वह तुरंत पिघल भी जाती थी।

       आठवीं कक्षा में ॠचा नाम की लड़की से उसकी दोस्ती हुई थी।जब भी वो मुझे फ़ोन करती या पत्र लिखती तो उसमें ऋचा की ही बातें होतीं थीं।उसने एक पत्र में ऋचा के बारे में लिखा था कि घर में माता-पिता और एक छोटा भाई है।पिता ट्रक चलाते हैं और माँ भी किसी ऑफ़िस में काम करती हैं।

      इंटर का दूसरा साल था।एक दिन रंजू ने फ़ोन करके मुझसे पूछा,” तेरा कोई चक्कर है तो बता…।” मैंने हँसते हुए कहा,” क्यों..तेरा है क्या?” बोलने में वो बेबाक तो थी ही..झट-से बोली,” है ना…प्रकाश जी को देखेगी ना.. तो तू भी…।” 

    ” अच्छा…बात इतनी बढ़ गई और मुझे अब बता रही है।”

  ” नहीं रे..वो पापा के अंडर में इंटर्नशिप कर रहें हैं तो कभी-कभी घर आते हैं।मैं ही देखकर घायल होती हूँ…वो तो…।” कहते हुए उसकी आवाज़ थोड़ी मध्यम हो गई थी।उस दिन के बाद से उसकी बातों में और पत्र के शब्दों में ऋचा का नाम कम और प्रकाश जी का ज़्यादा आने लगा था।उसकी बातों से मैं इतना तो समझ गयी थी कि प्यार इकतरफ़ा है..प्रकाश जी ने उससे कभी कुछ कहा नहीं था।

      रंजू के बड़े भाई साकेत की शादी में हमारा मिलना हुआ।तब मैंने पहली बार ऋचा को देखा था…काले लंबे बाल, रंग गेहूँआ और बात में शालीनता…एक बार जो उसे देख ले तो फिर नज़र नहीं हटा सकेगा।शाम की चाय पीते समय रंजू ने मुझे एक नवयुवक से मिलवाते हुए कहा

,” ये हैं डाॅक्टर प्रकाश जो कुछ महीनों बाद पापा का हाॅस्पीटल ज्वाइन करने वाले हैं।” सचमुच, प्रकाश जी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे।तीन दिनों तक मैं वहाँ रही।विवाह की गहमा-गहमी में मैंने कई बार प्रकाश जी को ऋचा के एक साथ देखा।सोचा कि शायद दोनों के बीच… लेकिन फिर झटक दिया।

        मेरे और रंजू के बीच पढ़ाई की बातों के साथ-साथ ऋचा और प्रकाश जी के बारे में बातें होने लगी थी।फिर एकाएक उसने ऋचा का नाम लेना छोड़ दिया।महीनों बीत गये तब एक दिन मैंने ही पूछ लिया कि ऋचा कैसी है? उसके एग्ज़ाम की तैयारी…..।

     ” नाम मत ले उस दगाबाज़ का…वो तो सहेली के नाम पर एक कलंक है।” वह फट पड़ी थी।

  ” क्यों…क्या हुआ।”

” ये पूछ कि क्या नहीं हुआ…उसने मुझसे प्रकाश जी को छीनना चाहा।बेगैरत कहीं की..कितनी ही बार मैंने उसकी फ़ीस भरी थी..उसकी हर समस्या को मैंने अपना समझकर सुलझाया है और उसी ने…।” उसकी ज़बान में इतनी कड़वाहट देखकर मैं दंग रह गई थी।मैंने पूछा,

” आखिर हुआ क्या?” तब वह थोड़ी नरम हुई और बोली,” केमिस्ट्री के नोट्स लेने मैं उसके घर गई थी।वह मेज़ पर बैठी कुछ लिख रही थी… मुझे देखकर एक काॅपी से उसे छुपा दिया और मुझे बैठने के लिये कहकर पानी लेने चली गई।मैंने काॅपी हटाकर देखा…

सादे कागज़ पर प्रिय प्रकाश जी…आप” पढ़ते ही मेरे तो तन-बदन में आग लग गई।वो पानी लेकर तो मैंने फेंक दिया और कागज़ दिखाते हुए उस पर बरस पड़ी।उस वक्त जितनी गालियाँ याद आई…सब उसपर उगल दिया और अपने घर चली आई।अब वो मरे-जिये..मेरी बला से…।”

   ” उसने कुछ कहा नहीं…।”

 ” मैंने बोलने ही नहीं दिया..।” कहकर उसने फ़ोन पटकते हुए अपना गुस्सा निकाला।जब इंसान गुस्से में होता है तो उसे अच्छी बात भी बुरी ही लगती है।यही सोचकर मैंने कुछ कहा नहीं और ना ही उसे दुबारा फ़ोन किया।बस स्थिति बदलने का इंतज़ार करने लगी।

       गुस्सा शांत होने पर रंजू ने मुझे फ़ोन किया…एग्ज़ाम की बातें होती थीं… प्रकाश जी के बारे में भी बताया कि उन्होंने हाॅस्पीटल ज्वाइन कर लिया है लेकिन ऋचा की चर्चा उसने नहीं की।मैं भी चुप रही।

      मेरी शादी में रंजू आई थी..बहुत बुझी-बुझी दिखाई दे रही थी…होंठों पर भी फ़ीकी मुस्कुराहट ही थी।उसने कहा तो कुछ नहीं लेकिन ऋचा से विछोह का दर्द उसके चेहरे पर दिखाई दे रहा था।कुछ महीनों के बाद डाॅक्टर प्रकाश के साथ उसका विवाह हो गया।प्रेग्नेंसी में काॅम्प्लीकेशन होने के कारण मैं नहीं जा सकी थी।

      फिर हम दोनों अपनी- अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गये।मेरे पति का तबादला होता..पते बदल जाते थें लेकिन हमारे बीच चिट्ठियों का आदान-प्रदान नियमवत होता रहा।मैं दो बेटों की माँ बनी और उसने पहले बेटा और फिर प्यारी-सी बेटी को जनम दिया।

पत्रों में हम बच्चों की तस्वीरें भेजते…समय मिलता तो फ़ोन पर भी बातें कर लेते थें लेकिन इतने वर्षों में उसने एक बार भी ऋचा का ज़िक्र नहीं किया।न जाने उसके अंदर इतनी कड़वाहट कैसे आ गई थी।

       समय अपनी गति से चलता रहा… हमारे बच्चे बड़े हो गये…हाथ में मोबाइल फ़ोन आ गया तो चिट्ठियों का काम मोबाइल करने लगा।

        उसके पति ने अपना नर्सिग होम खोल लिया।बेटा ईशान ‘आई स्पेशलिस्ट’ बनकर नर्सिग होम में मरीजों का इलाज़ करने लगा।बेटी आयशा फ़ैशन डिज़ाइनिंग का कोर्स कर रही थी।

        एक दिन अचानक रंजू का फ़ोन आया, बोली,” सुन.. अगले महीने ईशान की शादी है…कोई बहाना मत बनाना।” उसकी आवाज़ में एक अलग ही खुशी झलक रही थी।उस दिन वह मुझे पुरानी वाली रंजू नज़र आ रही थी।मैंने बधाई देते हुए लड़की का नाम-पता-परिवार पूछा तो हँसकर कहने लगी,” मैडम…वाट्सअप चेक कर लेना

..बाकी मिलने पर…।” मैं कुछ कहती..उसने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।वाट्सअप पर उसने लड़की की तस्वीर भेजी और नाम ईशा लिखा था।लड़की अपने नाम के अनुरूप बहुत सुंदर थी लेकिन घर-परिवार नदारद..।मैंने चाची(रंजू की माँ) को फ़ोन लगाकर अपनी जिज्ञासा शांत करनी चाही तो उन्होंने कहा,” उसने नहीं बताया..मैं बता दूँगी तो मेरे से लड़ेगी..शादी में आ ही रही हो तो देख लेना।

        विवाह के अवसर पर उसके घर गई।दोनों बहनें गले मिले और फिर उसने हल्के गुलाबी रंग की साड़ी पहने एक संभ्रांत महिला से परिचय कराते हुए बोली,” मेरी समधन से मिल..।” मैंने हाथ जोड़कर नमस्ते किया और गौर-से देखा तो चौंक पड़ी,” ऋचा..तुम!” वह हल्के-से मुस्कुराई।

बालों में सफ़ेदी और चेहरे पर उम्र की झुर्रियाँ आ जाने के बावज़ूद भी ऋचा मुझे पहले जैसी ही आकर्षक दिखाई दी।मैंने आँखों के इशारे-से रंजू से पूछा कि ये सब..क्या..।उसने भी वैसे ही जवाब दिया कि रात में बात करते हैं।

       काम से फ़ुरसत पाकर रंजू काॅफ़ी के दो मग लेकर कमरे में आई तो मैं उतावली हो गई,” अब बता..ये चमत्कार कब- कैसे हुआ?”

  ” बताती हूँ..पहले काॅफ़ी तो पी ले..।” मुझे काॅफ़ी का मग थमाते हुए बोली,” तुझे तो मालूम ही है कि हमलोग ईशान के लिये लड़की देख रहें थे।एक दिन खरीदारी करके मैं ‘ ओरिएंटल माॅल’ से निकल रही थी तो मैंने ऋचा के छोटे भाई निशांत को देखा।बरसों बाद देखा तो बात करने का मन किया लेकिन मुझ से नज़र मिलते ही वह लगभग दौड़ने-से लगा।मुझे कुछ ठीक नहीं लगा और मैं उसके पीछे जाने लगी।माॅल से उसका घर ज़्यादा दूर तो था नहीं….

मैं अंदर जाने ही वाली थी कि आंटी की आवाज़ सुनाई दी,” रंजू ने कुछ पूछा तो नहीं…फिर मिले तो मत बताना वरना उसे बहुत दुख होगा।” फिर तो मुझसे रहा नहीं गया।दरवाज़े को धकेलकर भीतर गई…आंटी को नमस्ते करके उनका हाथ अपने सिर पर रखते हुए मैंने कहा,” आपको मेरी सौगंध…सच बताइये..क्या सुनकर मुझे दुख होगा?” 

    ” वो…निशांत, रंजू के लिये पानी तो ला..।” उन्होंने मुझे टालने की कोशिश की।मैंने कहा,” कुछ नहीं..पहले मुझे बताइये..।”

    ” बेटी…मैंने ऋचा और तुझमें कभी फ़र्क नहीं समझा।यह सच है कि प्रकाश जी ऋचा को पसंद करते थें..उसे पत्र भी लिखते थें लेकिन ऋचा ने कभी जवाब नहीं दिया।वो तुम्हारी चाहत को अच्छी तरह से जानती थी।उस दिन जब तुम आई थी तब वह पहली बार पत्र लिखकर प्रकाश जी से कह रही थी कि आप हमें पत्र न लिखे,

साथ ही तुम्हारे मन की बात भी लिखने वाली थी।लेकिन तुम पहली लाइन पढ़ते ही अपनी सहेली को गलत समझ बैठी और…।मैं आई तो वह बहुत रोई।मैं तुमसे मिलना चाहती थी लेकिन उसने मना कर दिया।बोली कि उसके मन में मेरे लिये इतनी कड़वाहट भर गई है

जो शायद इस जनम में दूर न हो पाये।फिर उसने अपनी बुआ के लाये रिश्ते को स्वीकार करके ससुराल चली गई ताकि तुम्हारे मन में थोड़ा भी शक बचा हो तो वो दूर हो जाये।उसके पति को शराब की लत थी..कमाता और दारू में उड़ाता।फिर उसने बेटी को जनम दिया।एक दिन तुम्हें याद करते हुए बोली,” माँ..ये रंजू की बहू है।” और तुम्हें याद करके फूट-फूटकर रोने लगी थी।

        बस..कुछ सालों में ही उसके पति का लीवर खराब हो गया और एक दिन…।पति बिना ससुराल कैसा! बेटी को लेकर वह मेरे पास आ गई और काम करने लगी  ताकि ईशा को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बना सके।लोग बातें न बनाने लगे, इसलिये वह अलग डेरा लेकर रहने लगी।बेटी..सारी तकलीफ़ें उसने हँसकर सह ली लेकिन अपनी सहेली के लगाये हुए इल्ज़ाम से वह बहुत टूट चुकी है।अब तो बस उसे बेटी की ही फ़िक्र है…।” 

     आंटी से सच सुनकर मैं रो पड़ी थी।मैंने उसी वक्त ऋचा का पता लिया और घर आ गई।रात को प्रकाश जी से मैंने बहुत शिकायत की और उनसे कहा कि मैंने और ऋचा ने संबंधी बनने का फ़ैसला किया था..आप क्या कहते हैं…।

सुनकर वो मुस्कुराए और अगले ही दिन हम दोनों उसके घर पहुँच गये।इतने सालों के बाद मिले तो घंटों हमारी आँखें बरसती रहीं।मेरी गलतफ़हमी की शिकार बन गई थी वो।” कहते हुए रंजू रोने लगी।उसके आँसू पोंछते हुए मैंने पूछा,” फिर..?”

  ” फिर क्या… डाॅक्टर साहब ने तुरंत ईशा का हाथ अपने ईशान के लिये माँग लिया।बोले,” हमारी समधन तो आपको बनना ही पड़ेगा।”

   ” और ईशान..।” मैंने पूछा

    हँसकर बोली,” पगली…बच्चे अपने माता-पिता से अलग थोड़े ही होते हैं।शिक्षा उसने विदेश से जरूर ली है लेकिन संस्कार तो उसे अपने घर से ही मिले हैं।आयशा तो पिछले महीने से ही ईशा को भाभी कहने लगी थी।”

       तभी उसकी भतीजी आ गई, ” बुआ..मनु बहुत रो रहा है..थोड़ा दूध..।”

    ” हाँ, है ना..चल, देती हूँ।” वह उठकर चली गई।दोनों ने अपनी दोस्ती बखूबी निभाई…ऋचा ने अपनी सहेली की कड़वाहट को नजरअंदाज कर दिया तो रंजू ने अपनी गल्ती की माफ़ी माँगकर अधूरे रिश्ते को पूरा कर दिया।मैंने मन ही मन उनकी दोस्ती को सैल्यूट किया और दोनों सहेलियों को फिर से मिलाने के लिये ईश्वर को धन्यवाद दिया।

          विवाह- वेदी पर बैठे ईशान-ईशा की जोड़ी बड़ी प्यारी लग रही थी।बेटी के फेरे पड़ते देख ऋचा की आँखों से खुशी के आँसू छलक पड़े थें।अब वो रंजू और प्रकाश जी के साथ एक नये संबंध के बंधन में बँध चुकी थी।

                              विभा गुप्ता 

  # कड़वाहट              स्वरचित

             रंजू ने हम सभी को एक संदेश दिया कि जीवन में कभी भी किसी भी रिश्ते में कड़वाहट आ जाये तो उसमें फिर से मिठास घोली जा सकती है…बिगड़ी हुई बात को फिर से बनाई जा सकती है…टूटे हुए संबंध फिर से जोड़े जा सकते हैं।

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