अधिकार – डाॅ उर्मिला सिन्हा : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :कठोर यथार्थ की दलदली धरती  पर   माही के दुर्बल पांव धंसने लगे हैं। क्रूर नियति ने उसके सुख-सौभाग्य पर बेदर्दी से कुठाराघात किया है। माही के कानों में सीटियां सी बज रही है  ,सिर चकरा रहा है  आंखों के सामने अंधेरा छा गया है। वह धड़ाम से गिर पड़ती है। पता नहीं कितनी देर तक वह अचेत पड़ी रहती है। 

    “मम्मा, मम्मा “कर  दोनों अबोध बच्चे उसका आंचल थामे सिसक रहे हैं। 

 “पानी, पानी “माही का गला सुख रहा है। 

  बेटा दौड़कर नन्हें हाथों से पानी पिलाता है ,”मम्मा पानी। “

   “भूख लगी है “एक साथ  छः वर्ष का बेटा हर्ष और चार वर्षीय बेटी खुशी  मचल उठते हैं।

   उन्हें क्या मालूम मां किस मजबूरी से गुज़र रही है। उसकी क्या विवशताएं हैं।  बच्चों को बिस्कुट पकड़ा बहलाने का प्रयास करती है। 

“मम्मा दूध”खुशी मचल उठती है। 

 माही क्या जबाव दे ।एक अनिश्चित  अंधकारमय भविष्य उसका मुंह चिढा रहा है। 

   हे भगवान मैंने या मेरे दूधमुंहे बच्चों ने तुम्हारा क्या बिगाडा़ था कि उनके पिता को उनसे छीन उन्हें दर-दर का भिखारी बना दिया। 

 भाभी ठीक ही कहती हैं, “माही किसी काम की नहीं, उसमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। “

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पांच भाइयों के बीच सबके आंखों की पुतली इकलौती  बहन माही इस मुसीबत में भाई भाभियों के लिए गले की हड्डी बनी हुई है। 

माता-पिता हैं नहीं… ससुराल में वैसे भी कौन पूछता है। 

   मौका मिलते ही भाभियां जली-कटी सुनाने लगती हैं। मेरुदंड विहीन पांचों भाई आंखें चुराने लगते हैं। 

  अपने ही पिता के घर दाने-दाने को तरसती माही उन्मादिनी सी चीख उठी, “क्या करुं कहाँ जाऊं… बच्चों के साथ डूब मरुं।” 

“तुम्हारी मर्जी, बच्चे तुम्हारे हैं जो चाहो करो… “बडी़ भाभी होंठ बिचकाती और अन्य भाभियां व्यंग्य पूर्ण खिलखिल। 

  क्रोध आवेश से थर-थर कांपती माही बच्चों को घसीटती कमरे में भागकर दरवाजा बंद कर लिया। 

   रोते-रोते सो गई। आंखें खुली तब सवेरा हो चुका था। मासूम बच्चे सो रहे थे। उनके मुरझाये चेहरा देख कलेजा फटने लगा। 

    ना अब बहुत हो चुका ।रोना-धोना याचना  …उसने अपनेआप को  समझाने का प्रयास  किया। भूख से अंतड़ियां ऐंठ रही थी। वह नहा-धो  सहज भाव से चौके में घुसी। 

   बासी रोटियां पड़ी थी। उसने प्लेट में निकाला, चाय बनाई, बच्चों के लिए दूध लिया…कोई रोक-टोक करे इससे पहले अपने कमरे में चली गई। 

  पति के  असामयिक निधन के पश्चात पहली बार उसने भरपेट खाना खाया… बच्चों को खिलाया। 

    भूखे पेट कुछ सोचना मुश्किल था। पेट में अन्न गया …मन थोड़ा शांत हुआ। भरपेट भोजन कर दूध पी बच्चे संतुष्ट हो गये। 

 माही का दिल दहल उठा। कितना अन्याय  कर रही हूं अपने पितृविहीन मासूम बच्चों पर। 

    इस जालिम संसार में कहने को पांच-पांच बड़े भाई हैं  … भाभियां हैं  लेकिन उसके बिपति का संगी कोई नहीं। 

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      कुछ न कुछ करना होगा… सिर पीटने, रोने-धोने या मर जाने से भी पति वापस आने वाला नहीं।  बच्चों को पालने पढाने की जिम्मेदारी अब उसी की है। 

    एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल  पति  अपना अंत निकट देख उसका हाथ पकड़ मुश्किल से  बोले थे,” बच्चों का ख्याल रखना” धीरे धीरे माही ने मन को मजबूत करना शुरू किया। बच्चों के खाने पीने पर ध्यान देना  आरंभ ही किया था कि एक साथ पांचों भाभियां आंख दिखाने लगी, “इतना लाड़प्यार तो हम भी अपने बच्चों को नहीं दिखाती। दूध फल ,साग-सब्जी के दाम आसमान छू रहे हैं, मंहगाई इतनी बढ़ गई है… हमारे बच्चों को पूरा नहीं पड़ता… इन्हें पौष्टिक आहार की पड़ी है। “

    माही ने जी कडा़ किया, “क्यों पहले भी पापा के  दूकान कारोबार से खर्चा चलता था  …आज भी चल रहा है। “

   “तुम्हें मालूम है इसके लिये तुम्हारे भाइयों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है. ..अब पहले वाली बात नहीं रही”!

   एक साथ सभी भाभियां कमान से  तीर छोड़ने लगी। 

    सीधी सादी खुद्दार माही ने वहाँ से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी। 

    कोई नौकरी करे… कहाँ अपने जिगर के टुकड़ों के लेकर चली जाये… इसी उहापोह में सुबह से शाम हो चली। बच्चे खुली हवा में सांस लेने के लिए तड़प रह थे। 

     वह अनमने भाव से  बच्चों  को ले स्थानीय पार्क में पहुंची। वह बेंच पर बैठ गई… बच्चे खेलने  लगे। ठंढी हवा लोगों की चहल-पहल क्षण भर के लिए सुकून मिला। 

  “अरे माही, कैसी हो… बडा़ दुख हुआ”बचपन की सहेली उमा ने कहा। 

 माही रुआंसी हो उठी। सहानुभूति के दो शब्द ने उसके कष्टों को जुबान दे दी। 

     धीरे-धीरे अपनी व्यथा सहेली से बांटने लगी। 

  “अच्छा एक बात बताओ, यह सारी संपत्ति तुम्हारे पिताजी की है  ,उसीपर तुम्हारे भाई और उनका परिवार ऐश कर रहा है… फिर उन्हें तुमसे और तुम्हारे बच्चों से क्या समस्या है। पिता की संपत्ति में पुत्री का भी बराबर का हक है… मैं तुम्हें अपने जान-पहचान  के वकील से मिलवाती हूं। रहने खाने की व्यवस्था हो जाये फिर तुम पढीलिखी हो  …कोई नौकरी कर लेना!”

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    जब इस बाबत माही ने भाइयों भाभियों से बात की कि, “मैं भी इस घर का हिस्सा हूँ ऐसे मुझे और मेरे बच्चों को आपलोग  जलील कर दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश नहीं कर सकते।”

   पहले उनलोगों ने खूब हाय-तौबा मचाई …फिर कानून का डर सामाजिक दबाव… माही को उसका वाजिब हक देना ही पडा़। अपना अधिकार पा माही अपने बच्चों के उचित परवरिश में  लग गयी। 

कहते हैं सीधी उंगली से घी न निकले तब उंगली टेंढी करनी पड़ती है।

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा ©®

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