अभिसारिका – विनोद सिन्हा “सुदामा”

 कहते हैं ज़िन्दगी में सुख़ की अपेक्षा दुःख की मात्रा कहीं ज़्यादा है परंतु जीवनपथ पर इन दोनों को एक-दूसरे से अलग कर रखा भी नहीं जा सकता,कारण सुख़ के क्षण सदा दुःख को साथ लिये हुए आते हैं और दुःख के क्षण सुख को, फिर नर हो या नारी उम्र भर न चाहकर भी इन्हीं मधु-विष-मिश्रित प्यालों को पीता चला जाता है..लेकिन एक सच यह भी है कि हर किसी के लिए दर्द विष पी लेना या बिना कष्ट सह जाना इतना आसान भी नहीं होता…मेरे लिए तो बिल्कुल भी नहीं..

“अभिसारिका”  मैं सुंदर हूँ या नहीं पर…नाम बहुत सुंदर और आकर्षक रखा था मेरे माता पिता ने मेरा…लेकिन क्या सोचकर रखा नहीं जानती…..बाद मुझे जब मेरे नाम  अभिसारिका का अर्थ “प्रिय” होता है जाना तो हँसी भी आती मुझे….और खुद की नियति पर रोना भी…..कभी किसी की प्रिय रही या हो सकी इसका आभास ही नहीं हुआ या फिर माता पिता की गलती..जो अभिशापिका रखना चाहते हों शायद और रख अभिसारिका दिया…क्योंकि एक अभिशाप से कम नहीं थी मैं….

भले ही मनुष्य – एक औरत के रूप में जन्म लिया था मैने लेकिन बावजूद इसके अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर रही सदा…

कितनी ऐसी पिड़ाएँ साथ चली जिनका कोई नाम नहीं…,हर सुख़ के पास होकर भी हर सुख़ से दूर रही …सबके होते हुए भी सामाजिक भेदभाव का शिकार रही हरदम..ताउम्र लांक्षण का दंश सहती रही मैं..

शायद ही कोई ऐसा क्षण बीता हो…जो होंठों से आह..न निकली हो मेरे..पलकें अश्रुपूरित न रही हो मेरी..शुरू शुरू में तो बहुतों को पता तक नहीं चला… आखिर क्यूँ गमगीन रहती मैं अक्सर,क्यूँ दूर रहती सबसे..क्या तकलीफ़ है मुझे..क्योंकि मेरा हर दर्द,मेरी हर तकलीफ़ मेरी माँ ने अपनी ममता के आँचल तले छुपा रखा था..माँ की हिम्मत की भी कायल रही मैं…पर कहते हैं..जितना मुश्किल दर्द की सीमा पार करना है उतना ही मुश्किल दर्द को मापना…फिर दर्द की सीमा क्या है किसे पता….

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जीवन में इतने जख़्म इतने दर्द सहे मैंने कि जख़्मों से सीना छलनी रहा हरदम…शायद वो भी मेरे जख्मों का हिसाब न दे सकें कभी जिनके जख्मों पर मरहम लगाया किया हरदम..शायद ही कभी किसी के दिल से कोई दुआ निकली हो मेरे लिए..जिनके दामन दुआओं से भर दिया मैंने..सच कहूँ तो मेरे दर्द को कोई माप भी  नहीं सकता….कोई समझ भी नहीं सकता मेरा दर्द और मेरे दर्द की तपिश को…कितना जलती हूँ मैं…कितना तड़पती हूँ..क्यूँ अंदर ही अंदर दिन रात गलती हूँ…मुझे नहीं मालूम क्या गलती रही होगी मेरी पूर्व…कभी गलती की भी या नहीं…परंतु हर पल ऊपर वाले से यही प्रार्थना रहती है कि कभी किसी को ऐसी सजा नहीं दे जैसी मुझे मिली है…

इक ऐसी सज़ा कि खुद से ही घिन्न आती है मुझे..जब झांक देखती हूँ खुद में..मन श्मशान बन चुका हो जैसे….जिसमें हरपल जाने कैसा गुबार उठता रहता है धुँओं का सरांध लिए…मानों जल रहा हो अंदर मेरे सड़ा गला मुर्दा कोई..जिसकी धमनियों में लहू की जगह मवाद भरा हो सिर्फ़.. और जिसकी गमक भर से उबकाई सी आती हो……हाँ अघोषित मुर्दा ही तो करार कर दी गयी हूँ मैं..जिसे जो भी आता है जलाकार ही जाता है..

क्या कहूँ कैसा महसूस करती हूँ मैं..जब तानों का बाण सहती हूँ…घृणास्पद नज़रों से देखी जाती हूँ…उसपल सोचती हूँ ईश्वर मेरा प्राण क्यूँ नहीं हर लेता..अब और नहीं सहा जाता मुझसे..सच कहूँ तो मेरा जीवन मुझे ही श्राप लगता है..

कभी तड़प भरी उदासी भीतर भरती जाती है तो कभी मेरी चीख़ मेरे ही अंदर कौंधती रहती है, मेरी हर भावनाएँ मुझे ही उद्वेलित करती रहती है हर क्षण…मेरी हर इच्छा जन्म लेने से पहले मृत्यु का ग्रास बन जाती है…परिणय मिलन की टीस बिना विवाह वेदी के होम हो गयी..हर क्षण दर्द की परिणिती… अपने वृत से बाहर आने को आतुर रहती है..लेकिन मौन धारण किए क्योंकि कुछ दर्द ऐसे भी होते हैं जिनकी आवाज नहीं होती..

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मेरा दर्द भी कुछ ऐसा ही है.मेरे जज़्बात मैं किसको बतलाऊँ जाकर,… मैं तो खुद सबसे यहाँ तक ख़ुद से भी छिप छिपाकर कर बैठी रहती हूँ…मैं मेरे दुख दर्द, उदासियों को, मेरे खुद में लिपटाकर बैठी रहती हूँ…किसे सुनाऊँ ग़म अपना..कौन सुनेगा…और फायदा भी क्या..पीड़ा तो मुझे ही पहुँचनी हैं..सीना तो मेरा ही छलनी होना है…किसी और को कोई फर्क तो पड़ना नहीं..

सोचती हूँ मैं मेरे “मैं” होने का दोष आखिर किसे दूँ..? अपने माता पिता को..? समाज को..? उस भीड़ को..? जो छिन लायी मुझे मेरे बचपन की बाँहों से..मेरी माँ की ममतामयी  आँचल से.. या मैं मेरे स्वयं को….? या फिर उस ईश्वर को..? जिसने नर नारी में अंतर न रहे  अर्धनारीश्वर का रूप लिया .. अर्धनारीश्वर ईश्वर का वह रूप जिसमें हम भगवान शंकर का आधा शरीर स्त्री का तथा आधा शरीर पुरुष का देखते हैं जो नर व नारी दोनों की समानता का संदेश देता है…..जो चाहता हो शायद बाद नर नारी के “अर्धनारीश्वर” बनाना मुझे लेकिन बना डाला  किन्नर….

मैं अभिसारिका…..किन्नर…ईश्वर की एक ऐसी रचना जिसमें ईश्वर ने प्राकृतिक रूप से स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षण भर दिए..न पूरा आदमी बनया न पूरी तरह औरत……….

बैठी रहती हूँ हरदम खुद को सबसे छिप छिपाकर मैं मेरे दुख दर्द,उदासियों को,मेरे खुद से लिपटाकर…मैं अभिसारिका …..न नर,न नारी, न अर्धनारीश्वर …एक किन्नर…ईश्वर की एक अपूर्ण रचना…उसके सृजनक्षमता पर प्रश्न..? हाँ प्रश्न..? क्योंकि कोई भी सृजन कोई भी रचना तभी सुंदर है जब वह पूर्ण है…..संपूर्ण है….?

विनोद सिन्हा “सुदामा”

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