अभागन – सीमा प्रियदर्शिनी सहाय : Moral Stories in Hindi

“निशा…निशा…तुमने कुछ सुना…?”हडबड़ाती हुई कुसुम की आवाज सुन कर मैं थोडा़ घबरा गई।

अभी चंद हफ्ते ही गुजरे थे मुझे यहां आए हुए, मैं न तो किसी को जानती ही थी न ही ऐसा मौका भी मिला था।

“क्या हुआ कुसुम?”मैं संदेहात्मक रवैये से पूछा तो उसने बहुत ही दुख भरे लफ्जों में कहा

“वो मंदिर वाली आंटी मर गई?”

“मंदिर वाली…!!अच्छा वो .!ओह…!मैंने अपने दिमाग पर जोर दिया फिर याद आया, साईं बाबा के मंदिर की सीढियों पर किनारे की ओर एक वृद्धा बैठा करती थी।

मंदिर से मिले भिक्षावृत्ति पर ही गुजारा करती थी।

“अरे कुसुम यह कब हुआ?क्या हुआ था उन्हें?”मैंने हैरानी से पूछा।

“बुखार था फिर शायद हार्ट अटैक!पुलिस आई हुई है!”

“ओह बहुत ही दुखद।भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।”

“हां निशा, पता नहीं कौन थी !हमेशा वही रहती थी। रात में पीछे बने हुए शेड में सो जाया करती थी। 

न जाने उनका क्या इतिहास है? अब पुलिस क्या ढूंढ पाती है देखते हैं।”

“थोड़ी देर बैठकर कुसुम वहां से चली गई थी।

मेरे दिमाग में कई बातें घूमने लगे। कुसुम और मैं पहले एक ही ऑफिस में काम किया करते थे।दो साल पहले उसका ट्रांसफर हो गया।

किस्मत से उसके कुछ साल बाद मेरा भी इसी शहर में स्थानांतरण कर दिया गया।

 पहले तो मैं बहुत ही ज्यादा नर्वस थी क्योंकि यह शहर मेरे लिए बिल्कुल ही नया था लेकिन फिर मुझे कुसुम की याद आई।

उसने मेरी पूरी मदद की थी ।

अपने नीचे वाले फ्लोर में घर दिलवा दिया था।

अपने घर से पहली बार मैं दूर हुई थी। मुझे तो यहां एडजस्ट करने में ही दिक्कत हो रही थी।

खाली समय में मैं अक्सर यहां साईं बाबा वाले मंदिर में चली जाती थी। 

वहां बैठकर मुझे बड़ी तसल्ली मिलती थी। वही मंदिर के किनारे एक बुढ़िया आंटी बैठा करती थी। 

बिल्कुल ही सफेद बाल, चेहरे पर झुर्रियां। कुछ दिनों के बाद धीरे-धीरे हमारी जान पहचान होने लगी थी ।

वैसे तो वह कभी कुछ नहीं कहा करती थी लेकिन धीरे-धीरे हमारी पहचान होने लगी थी तो मैं ऑफिस जाते समय उनके लिए भी अक्सर टिफिन ले जाया करती थी। उसके बदले में मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया करती थी।

पर कभी मैंने उनसे उनके बारे में पूछा नहीं और न ही उन्होंने मुझे अपने बारे में बताया।

उनकी उम्र हो ही गई थी अगर मौत आ ही गई तो वह कोई बड़ी बात नहीं थी।

थोड़ी देर मैं अनमनी सी रही फिर तैयार होकर मैंने कुसुम को फोन किया।

“ कुसुम एक बार मंदिर चलें क्या? आंटी को एक बार देख लें?”

“ बिल्कुल ठीक कहा तुमने निशा! चलो चलते हैं।”

मंदिर में काफी भीड़ थी। कुछ देर बाद आंटी को दाह संस्कार के लिए ले जाया गया।

यह कार्य भी मंदिर ट्रस्ट के लोगों और आसपास के सोसायटी के लोगों ने ही अपनी तरफ से पैसे खर्च कर आंटी के दाह संस्कार और श्राद्ध का इंतजाम किया था।

वहां लोग कह रहे थे 

“दो-दो बेटे हैं आंटी के, दोनों अमेरिका में सेटल है ।

बुड्ढे बुढ़िया अकेले रहते थे। पहले उनके पति की मृत्यु हुई। रिश्तेदारों ने धोखे से घर हथिया लिया ।बेटे पूछते नहीं ।मजबूरी में  आंटी इसी मंदिर में आ गई थी। यहां के पुजारी से उनकी जान पहचान पुरानी थी। …यहां से 2 घंटे दूर कमला नगर सोसाइटी में ही उनका एक शानदार फ्लैट है मगर कोई कहेगा क्या इतने बड़े आदमी की पत्नी रही होगी या दो कामयाब बच्चों की मां!!! बड़ी अभागन थी बेचारी! ऐसी किस्मत भगवान किसी को ना दे !!!”

कुछ लोग कह रहे थे “बड़ी अच्छी किस्मत थी।

सुबह बाबा का दर्शन करने आई तभी कह रही थी की छाती में दर्द उठ रहा है। जब तक लोग समझते ,वह वहीं गिरी और ढेर हो गई। कितनी किस्मत वाली थी कि बाबा के चरणों में उसके प्राण निकले !”

“ किस्मत और बदकिस्मती मेरे दिमाग से ऊपर चला गया परंतु मैं वाकई हैरान थी पूरी तरह से और स्तब्ध!

क्या ऐसा भी होता है किसी औरत के पास सब कुछ है मगर उससे अनाथों की तरह रहना पड़े!

कम से कम उनके दोनों बच्चे वृद्धाश्रम तक से पहुंचा देते। न जाने क्या मजबूरी रही होगी उनके दोनों बेटों के पास!” 

तभी “राम नाम सत्य है !राम नाम सत्य है!” की आवाज मेरे कानों से टकराई आंटी को कफन में लपेटकर ले जाया जा रहा था धीरे-धीरे यह आवाज और यह दृश्य धीरे-धीरे धूमिल होती चला गया। 

मैं  स्तब्ध वहां खड़ी रही।

“तीन दिनों बाद प्रसाद बंटेगा। सब लोग आकर प्रसाद ले लेना और उस अभागन को आशीर्वाद दे देना। उसकी आत्मा को शांति मिले।”

पंडित जी वहां खड़ी उसी भीड़ से कह रहे थे उसी भीड़ का हिस्सा आंटी  कभी रहीं  थीं।

“अभागन!!”मैं  मन ही मन बुदबुदाई।

फिर कुसुम के साथ अपने घर की तरफ लौट आई।

प्रेषिका–सीमा प्रियदर्शिनी सहाय

नई दिल्ली

#अभागन

पूर्णतः मौलिक एवं अप्रकाशित रचना

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