“क्या ऊंट की तरह हुड़दंगी सी कूदती रहती हो!धीरे चला करो”दादी जब-तब आठ साल की सुमी को टोकती रहतीं,और सुमी के उठते कदम दादी के टोकने के साथ एक पल में रूक जाते।
थोड़ी बड़ी हुई तो माँ ने टोका ताड़ सी लंबी हो रही हो स्कर्ट मत पहना करो,खुली टांगें अच्छी नहीं लगती, ढक के रहा करो।तो फ्राॅक और स्कर्ट की जगह सूट आ गए।
तेरह- चौदह साल की हुई तो पिता और भाई ने टोका “देर शाम तक सहेलियों के साथ बाहर मत रहा करो,सूरज छुपने से पहले घर में घुस जाया करो”।
बाहर निकलती तो दादी या ताई टोकतीं “दुपट्टा फैला कर लिया करो,क्या गले में फंदा सा लपेट लेती हो”।
फिर जैसे जैसे साल बीते बड़ी होने के साथ साथ टोकना- रोकना भी बढ़ने लगा ।लड़कों के साथ मत बैठो,सहेली के घर नाइट आउट बंद ।
मोबाइल पर किससे घंटों बातें करती रहती हो?
छुट्टी के दिन एक्सट्रा क्लास क्यों है।
काॅलेज तो एक बजे खत्म हो जाता है फिर इतनी देर कहाँ लगी।
मूवी जाना है तो कौन कौन साथ जाएगा?
गर्मी की छुट्टियों में बुआ आईं तो अपने लाडले भाई से बोलीं”बस बहुत हो गई इसकी पढाई! और पढ़ाने की जरूरत नहीं, कलेक्टर ना हो जाऐगी पढ़ लिखकर, अच्छा सा लड़का देखो और शादी करके निपटाओ,जाके अपनी गृहस्थी संभाले!अरे! इतनी उमर में तो मेरे बेटा भी हो गया था।
जरा सा कभी टीवी देखने बैठती तो माँ कोई ना कोई काम बताकर चौके में भेज देतीं”क्या बेफजूल के सीरीयल देखती हो ,थोड़ा चौके-चूल्हे में हाथ बंटाया करो तो कम से कम दाल-चावल तो बनाना सीख ही लोगी”।
काॅलेज में किसी की तरफ़ थोड़ा आकर्षण बढ़ा,सुमी ने माँ को बताया! जाति- धर्म पूछने पर फौरन टोका गया “कोई जरूरत नहीं है उससे मिलने- जुलने की”उसी दिन से भाई को सुमी की दरोगाई में लगा दिया गया।
सुमी सोचती ये भी कोई जिन्दगी है हर वक्त ये मत करो-वो मत करो,यहाँ मत जाओ,उससे मत बोलो!
कभी कभी उसका तो मन ऊब जाता, कब इस रोका-टोकी से निजात मिलेगी?
खैर! पढाई खत्म हो गई कलेक्टर तो नहीं बनी शादी जरूर हो गई ।
सोचा चलो अब अपने घर में अपनी मर्जी से जैसे चाहे वैसे रहूंगी।
पर कहते हैं ना”हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता “
सुमी के साथ भी वैसा ही हुआ ,पति तो माँ पिता और भाई से भी दो कदम आगे निकले।
छोटी छोटी बातों जैसे चप्पल यहाँ क्यों रखी,कपड़े वहां क्यों टांगे!ये क्या पहन लिया, किसी के सामने ये क्यों कह दिया जैसी बातों पर टोका-टाकी देख सुन कर सुमी सोचती कुऐं में से निकली खाई में जा गिरी” ।
थोड़े दिन बाद सासू मां आई रोकने- टोकने की रही- सही कसर उन्होंने पूरी कर दी।
“कोई जरूरत नहीं है ये सूट-फूट पहनने की, हमारे यहाँ बहुऐं साड़ी पहनती हैं से लेकर, सब्जी घी में क्यों छौंक दी, दाल इतनी ज्यादा क्यों बना ली,इतनी मंहगे फल क्यों मंगा लिए।
खाना बाहर क्यों खाओगे,देखभाल कर खर्चा करो,नौकर- महरी पर घर ना छोड़ो और भी जाने कितनी अनगिनत बातें हैं जिन पर दिन रात टोका करतीं ।
आधी जिन्दगी तो रोक- टोक से जूझते ही बीत गई।
फिर बच्चे बड़े होकर टोकने लगे “मम्मी!स्कूल आओगी तो ढंग से तैयार हो कर आना”।
टीचर के सामने अपनी टूटी- फूटी इंगलिश में मत बोलने लगना,हमारे फ्रेंड्स के पास ज्यादा देर को मत बैठ जाना “
कभी कभी सुमी को लगता कि वह पढ़ी- लिखी टैलेंटेड है कहीं जाॅब कर ले या कोई बिजनेस ही शुरू कर ले तो सारे घर वाले एक सुर में शुरू हो जाते”क्या रोज-रोज का फितूर चढ़ा लेती हो,क्या कमी है? अब इस उम्र में यह कौन सा भूत सवार हो गया है, चुपचाप बैठकर अपना घर और बच्चे संभालो।
सुमी बहुत खुश थी कि चलो भले ही बिजनेस या नौकरी ना कर पायी हो भले ही कलेक्टर ना बन सकी हो सोचा घर बैठे अपना लिखने का शौक ही पूरा कर लूं!इसमें तो शायद किसी को कोई ऐतराज ना हो!
फिर एक दिन जब दोपहर को लैपटाॅप लेकर बैठी ही थी कि पतिदेव ने टोका “आंखें खराब करोगी क्या? क्यूँ हर वक्त लैपटाॅप में घुसी रहती हो!
सुमी ने पहली बार ज़बान खोली”बस अब और नहीं!जिन्दगी भर रोकना- टोकना बर्दाश्त करती आई हूँ, कभी कुछ नहीं कहा “क्या मेरी ज़िन्दगी का कोई पल ऐसा नहीं जिसे मैं अपनी मर्ज़ी से गुजार सकूं!सबका ख्याल रखकर,सबकी फरमाइशें पूरी करके जिस चीज़ में मुझे थोड़ी सी खुशी मिलती है उसमें बेवजह का दखल या रोका-टोकी नहीं सहूंगी।
समझ नहीं आता कि हम महिलाओं के साथ यह “रोका-टोकी “शब्द पैदा होते ही क्यूँ चिपक जाता है,जो शायद जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ता।
दोस्तों
सुमी के माध्यम से आज बहुत दिनों बाद दिल में जो रोका-टोकी का कांटा बरसों से चुभ रहा था उसे निकाल फेंका है ।बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ ।
शायद हम सब कम-ज्यादा इन हादसों से दो-चार होते ही रहते हैं ।पर “
कब तक चुप बैठे- अब तो कुछ है बोलना”
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कुमुद मोहन