अब पछताये होत क्या? (दूसरी और अन्तिम किश्त)
पल-भर के लिए पति-पत्नी असमंजस की स्थिति में अपने पुत्र के साथ खड़े रहे दरवाजे की ओट में। फिर बारी-बारी पति-पत्नी और पुत्र ने चन्दर के चरण-स्पर्श की औपचारिकता निभाई।
“कौन?…” फिर चश्मा संभालते हुए उसने कमलेश, माधुरी और वरुण को देखा।
उसके मुंँह से अनायास ही निकल गया, “सुखी रहो!… खुश रहो!…”
चन्दर खुशी से पागल हो उठा। उसने चिल्लाते हुए कहा, “बड़ी बहू!… देखो!… कमलेश आया है, छोटी बहू भी आई हुई है… कितना बदल गया है… अचानक तो हम पहचान ही नहीं पाये… किस गाड़ी से आये बबुआ!”
तब तक कमलेश की भाभी यशोदा और उसके बच्चे भी आ गये।
कमलेश, माधुरी और वरुण ने यशोदा को प्रणाम किया। यशोदा ने सभी को सुखी रहने का आशीर्वाद दिया।
उसके बड़े भाई सूरज के बच्चों ने भी चाचा-चाची को प्रणाम किया। कमलेश और माधुरी ने भी उनको आशीष दिया।
यशोदा ने हंँसते हुए उलाहना के स्वर में कमलेश से कहा, “देवरजी तो इस घर को भूल ही गये… पहले तो चिट्ठी-पत्री भी आती थी, वह भी अब आना बन्द हो गया।”
झेंपते हुए कमलेश ने कहा, “नहीं भौजी!… ऐसी बात नहीं है… ऑफ़िस में काम से ही फुर्सत नहीं मिलती है। इस बार बहुत मुश्किल से समय मिला तो सोचा, चलूंँ राजगीर भी घूम लेंगे… घर भी हो लेंगे। “
” आ गये तो ठीक ही हुआ… इसी बहाने भेंट-मुलाकात तो हो गई “कहती हुई यशोदा रसोई-घर की ओर चली गई।
माधुरी ने कमलेश के इशारा करने पर बैग से मिठाइयों का एक पैकेट निकाल कर सूरज के बड़े लड़के मोहन के हाथ में थमा दिया। मोहन ने सहमते हुए पैकेट ले लिया।
फिर माधुरी वरुण के साथ अटैची और बैग लेकर कोठरी के अन्दर चली गई।
कमलेश वहीं ओशारे में बापू की खाट पर बैठ गया।
उसने अपने बापू से अपने बड़े भाई सूरज का हाल-समाचार पूछा तो चंदर ने बताया कि वह उसी कस्बे के एक साहूकार की दुकान में नौकरी करता है कि उसको बहुत कम वेतन मिलता है कि उसके परिवार का खर्च बहुत मुश्किल से चलता है कि काम पर से रात में घर लौटता है… आदि।
कमलेश ने सूरज के बारे में जानकारी हासिल करने के बाद, उसने उस कस्बे का हाल-समाचार पूछा तो चन्दर कस्बे और मोहल्ले में घटने वाली घटनाओं की चर्चा विस्तार से करने लगा। इसी बीच कमलेश की भाभी चाय और नास्ता लेकर आ गई तो उसका बापू चुप हो गया।
तब कमलेश ने बेबाकी से अपनी भाभी की ओर देखते हुए कहा, “इसी का इंतजार था… भौजी के हाथ की चाय पीये वर्षों हो गये थे… पूरी चीनी चाय में डाली है न भौजी…”
“दो चम्मच और डाल देती हूँ” उसकी भाभी ने हंँसते हुए कहा।
“नहीं भौजी मैं तो मजाक कर रहा था…”
“लाला!… मैं भी तो मजाक में ही कह रही
थी।”
दोनों देवर और भाभी हंँसने लगे थे। कुछ पल के लिए उस घर के माहौल में आनन्द की बारिश होने लगी थी। चन्दर भी अपने को नहीं रोक सका था, लेकिन क्षण-भर बाद ही उसकी हंँसी खांसी में बदल गई थी, जिसपर उसने बहुत मुश्किल से काबू पाया था।
यशोदा ने एक कप चाय चन्दर को भी लाकर दिया।
कमलेश अपनी भाभी के साथ बात-चीत करते हुए चाय पीने लगा।
चाय-नास्ता के बाद यशोदा खाली प्यालियों और तश्तरियों को लेकर अन्दर चली गई और कमलेश पुनः अपने बापू से बतियाने लगा।
बातचीत के दौरान उसने अपने बापू से पूछा कि उसके पैर की हड्डी टूटने के बाद गत वर्ष जो मनिआर्डर इलाज के लिए भेजा था वह मिला था या नहीं। उस पर चन्दर ने कहा कि मनिआर्डर मिल गया था । उसने यह भी कहा था कि उस रुपये से सूरज को इलाज कराने में बहुत सहूलियत हुई थी
हलांकि प्लास्टर कटने के बाद भी पैर पूरा दुरुस्त नहीं हुआ, इतना ही हुआ कि लाठी के सहारे किसी तरह चल फिर लेता वह। सुबह का क्रिया-कर्म कर लेता था वह।
जब कमलेश ने पूछा कि अब उसकी तबीयत कैसी रहती है। खांसी की स्थिति कैसी है, कुछ सुधार हुआ है या पहले जैसी ही है।
तब चन्दर उदास होकर निराशा भरे स्वर में कहा, “मेरी खांसी और मेरी तबीयत का अब क्या मतलब है बबुआ!…अब तो कब्र में पैर लटके हुए हैं… पके हुए आम का क्या भरोसा कब डाल से टूट कर नीचे धरती पर गिर जाएगा… जितना जल्द ईश्वर उठा ले वही अच्छा है… इस दुख और गिंजन से मुक्ति मिल जाए।”
चन्दर की आंँखें आई थी। उसके अंतस में कुछ उमड़ने घुमड़ने लगा था।
अपने बापू की वेदना भरी बातें सुनकर कमलेश का दिल मर्माहत हो गया।
उसने धीरज बंधाते हुए कहा,” चिन्ता मत कीजिए बाबूजी!… हमलोग हैं न!… आपकी सेवा के लिए… कोई तकलीफ नहीं होने देंगे… शहर में अपना मकान है, किस बात की कमी है उसमें… गर्मी से राहत पाने के लिए पंखा, कूलर, फ्रिज और जाड़ा से बचने के लिए हीटर, रूम हीटर, गीजर… मन बहलाने के लिए टीवी… क्या नहीं है बाबूजी!… आपको जरा भी कष्ट नहीं होने देंगे, खाना बनाने के लिए किचन में गैस चूल्हा है ही, जिससे धुंँआ-धक्कड़ का सवाल ही पैदा नहीं होता है… खांसी भी आपकी दबी रहेगी। “
जब कमलेश अपने बापू को शहर ले जाने के बाबतअपने घर में उपलब्ध सुख- सुविधाओं का बखान कर रहा था तब चन्दर अपने पुत्र के चेहरे की ओर एक टक देखने लगा था मानो वह समझने की कोशिश कर रहा था कि क्या वह जो कह रहा है, वह सच साबित होगा।
फिर भी कमलेश की बातों से कुछ पल के लिए उसके झुर्रीदार चेहरे पर हर्ष की लकीरें उभर आई थी। उसकी आंँखों में चमकने लगी थी खुशी।
कमलेश का दिल अपने बापूकी दयनीय स्थिति देखकर पिघल गया था। अनायास ही उसने भावावेश में अपने बापू को अपने साथ शहर ले जाने का आश्वासन तो दे दिया था किन्तु उसके बाद ही उसे शंका सताने लगी थी कि क्या उसकी बातों से उसका बड़ा पुत्र विक्रम, पुत्री रीतु और उसकी पत्नी सहमत होगी भी या नहीं। अगर उसकी पत्नी सहमत नहीं हुई तो घर में कलह का वातावरण छा जाएगा।
ऐसा सोचते ही उसका अंतःकरण अपराध बोध की भावना से भर गया। वह मायूस हो गया।
जब रात में उसने अपनी पत्नी के सामने बापू को अपने साथ शहर ले जाने का प्रस्ताव रखा तो पल-भर के लिए माधुरी मौन रही पर दूसरे ही पल उसने कहा, “तुम्हारा दिमाग उम्र बढ़ने के साथ-साथ फिर गया है… खराब हो गया है… बिना सोचे समझे किसी को क्यों आश्वासन दे देते हो… बाबूजी पूरे भिखारी जैसे दिखते हैं… उनका रहन-सहन, चाल-चलन ऐसा है कि हमारे परिवार के साथ ऐडजस्ट नहीं कर पाएंगे।”
क्षण-भर के लिए चुप्पी छाई रही। उसके बाद फिर माधुरी ने आगे कहा,” अगर इस बात को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दी जाए तो क्या कालोनी के लोग इनकी शक्ल-सूरत देखकर खिल्ली नहीं उड़ायेंगे।… तब तुम्हारी ही नाक कटेगी मेरी नहीं… पास-पड़ोस के लोग कहेंगे कि इसका बाप कंगाल है… फकीर ऐसा दिखता है… जरूर दरिद्र खांदान का है इसका परिवार… “
” चुप रहो!… क्या ऊलजलूल बक रही हो”तल्ख किन्तु धीमी आवाज में उसने कहा ताकि घर के अन्य लोग, उनकी बातें नहीं सुन सके।
कमलेश का चेहरा तमतमा आया था। पल-भर सन्नाटा छाया रहा।
पर दूसरे ही पल उसने कठोर शब्दों में कहा,” तब मुझसे राय क्यों लेते हो… जो मन में आवे सो करो… हम तो गुलाम हैं ही सबकी सेवा करने के लिए, सुबह से रात तक खटने के लिए… पिसती रहने के लिए।”
तब कमलेश ने अपनी पत्नी को ठंडे दिमाग से समझाते हुए कहा, “तुम तो हर बात पर उबल पड़ती हो… जरा सोचो!… बाबूजी ने कितना दुख तकलीफ सहकर, फटेहाल स्थिति में स्वयं रहकर पढ़ाया लिखाया, जिसकी बदौलत सर्विस मिली… क्या हमलोगों का फर्ज नहीं बनता है कि उनकी ऐसी स्थिति में उन्हें सहूलियत दी जाए… आराम दिया जाए इस बुढ़ापे में, आखिर कोई मांँ-बाप क्यों अपने बेटा को पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाता है… अगर हमलोग नहीं सोचेंगे तो आखिर कौन सोचेगा… अगर हमलोग ध्यान नहीं देंगे तो कोई गरीब माँ-बाप अपने बच्चे को पढ़ाने की क्या हिम्मत करेगा?… कभी?… “
” तुम ऐसा बोल रहे हो जैसे तुम्हारे बापू ने तुमको पढ़ाकर कोई अजूबा काम किया है… कौन मांँ-बाप अपने बेटा-बेटी को नहीं पढ़ाता है… ऊंँह!… तुमको दूसरे की परेशानी अपने मत्थे लेने की आदत पड़ गई है।… क्या जरूरत पड़ने पर हमलोग रुपये नहीं भेजते हैं, बराबर तो मदद करते ही रहते हैं, और कोई कितना करेगा… यही सब लेकर मैं इस घर में पैर नहीं रखना चाहती हूँ, और फिर शहर में ले आने पर तुम्हारा बापू जवान तो नहीं हो जाएगा… कौन नहीं जानता है कि बुढ़ापा में तो कष्ट होता ही
है”
माधुरी की बातों से कमलेश का दिल डूबने लगा था। वह निरूत्तर होकर अपनी पत्नी को याचना भरी निगाहों से देखने लगा था।
उसने हर तरह से माधुरी को समझाने का प्रयास किया था लेकिन आधुनिक, शिक्षित कहलाने वाली उसकी पत्नी ने अपने धारदार तर्क से उसके प्रस्ताव को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया था, यह जवाब देकर कि अगर उनके पैर सही-सलामत रहते तो कुछ सोचा भी जा सकता था लेकिन एक तो लंगड़े ऊपर से बुढ़ापा और आंँखों में रोशनी की कमी, ऐसी अवस्था में लाठी के सहारे चलना-फिरना, अगर संयोग से चिकने फर्श पर फिसलकर गिर गये या शौच वगैरह करने के क्रम में बाथरूम में गिर गये तो भारी फजीहत उठानी पङेगी हो सकता है उनके दूसरे पैर की भी हड्डी टूट जाए जिन्दगी भर के लिए कलंक का टीका लग जाएगा हमलोगों पर।
कमलेश परास्त होकर अपनी पत्नी के मुखड़े की ओर ताकता रह गया था।
चन्दर को शहर ले जाने का प्रस्ताव रद्द हो गया था।
अपने बापू को खुश रखने के लिए उसने उनको कुछ रुपये देने की भी बातें की तो माधुरी ने कहा कि हम लोग यात्रा में हैं, कब कहांँ कितने रुपये की जरूरत पङेगी कौन जानता है। रुपये घट जाएंगे तो रास्ते में बहुत मुश्किल होगी।। यहाँ से जाते ही मनिआर्डर कर देंगे। इसके साथ ही व्यंग्य में उसने कहा, “तुम तो अपने घर में कदम रखते ही सत्य हरिश्चंद्र बनने लगते हो… और वहाँ तो एक-एक पैसे का हिसाब लेते हो… एक-एक पैसे को दांँत से पकड़ते हो… खर्च नहीं करने देते हो”
दूसरे दिन अंधेरे मुंँह कमलेश, माधुरी और अपने पुत्र वरुण के साथ शहर जाने के लिए घर से निकल गया अपने बापू से मिले बिना।
उस वक्त उसका बापू भजन गा रहा था,
” रामा भजो रे भाई सुंदर तन
रामा भजो रे भाई…..
ई देहिया है माटी के बरतन
ठोकर लगत टूट जाई रे भाई
रामा भजो रे भाई…….”
कमलेश अपनी पत्नी के साथ सुबह घर पहुंँच गया था।
चारों ओर मातम छाया हुआ था। उसकी भाभी और भाई उनको देखते ही फूट-फूटकर रोने लगे। माधुरी भी अपने को नहीं रोक सकी उसकी आंँखों से भी आंँसू बहने लगे। रूदन और क्रंदन से वातावरण उद्वेलित हो रहा था। चतुर्दिक मानो कुहराम मच गया था। पास-पड़ोस के लोगों की आंँखों में भी आंँसू भर आये थे। वे लोग चन्दर द्वारा किये गये कार्यों का उल्लेख कर रहे थे। सराहना कर रहे थे उसके नेक कामों की।
कुछ लोग अर्थी तैयार कर रहे थे तो कुछ लोग दाह-संस्कार में प्रयुक्त होने वाली सामग्री के इंतजाम में लगे हुए थे।
कमलेश भी अपने बापू के शव के चरणों के पास बैठकर खूब रोया यह कहते हुए, “मैं पापी हूँ… मैंने कुछ नहीं किया आपके लिए… अंतिम समय में सेवा करने का जो अवसर मिला था, उसको भी मैंने गंवा दिया… अंतिम समय में मेरा पानी भी पैठ नहीं हुआ …”
कमलेश सिर धुन-धुनकर पछता रहा था लेकिन क्या हो सकता था, अब तो उसका बापू परलोक का नागरिक बन चुका था। उसने अपनी गलती सुधारने का मौका खो दिया था।
हलांकि अंत्येष्टि हेतु कीमती रेशमी कफन का इंतजाम किया उसने। इसके साथ ही चिता में उसने चंदन की लकड़ी भी विशेष तौर परअपने तरफ से दी। श्राद्ध में बढ़-चढकर खर्च किया। श्राद्ध कराने वाले को कीमती वस्त्र, खाट, बिछावन, जूता, छाता एवं हजारों रुपये नगद इस आशा में दिये कि ये सभी सामग्री स्वर्ग में उसके बापू को मिल जाएंगे। फिर भी उसके दिल के एक कोने में पछतावा जड़ जमाये बैठा हुआ था।
समाप्त
#पछतावा
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)
Absolutely
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