चार साल की उम्र की बहुत सी बातें अब मस्तिष्क से धूमिल हो गई हैं किन्तु वो पल हमेशा याद रहा जब मेहमानों के छोटे से समूह के सामने मुझ छोटे से बालक को अजीब से असमंजस में ड़ाल दिया गया था।
बारह सितंबर की सुहानी शाम थी। मीठी मीठी पुरवायी चल रही थी। पिताजी के सरकारी आवास के लॉन की हर झाड़ी की हर डाली को बिजली की झालरों से सजाया गया था। बीच के घास के छोटे से मैदान पर गुलाबी आवरण ओढ़े कुर्सियों के बीच सात आठ राउंड टेबल लगे थे जिन पर ताजे फूलों के खूबसूरत फूलदान सजे हुए थे। सामिष और निरामिष भोजनों की सौंधी महक, मेकअप में लदी फदी रमणियों के विदेशी सैंट की खुशबू, पसीने की बदबू को दबाने के लिए झोंके गए डीओ के भभूके और हमारे लॉन में गमक रही राजनीगन्धा की मनमोहक सुगंधि से मिलकर बनी हुई एक नई संक्रमित उबाऊ सी गंध धीमे सुरम्य संगीत के आनंद को भी बाधित कर रही थे। और हाँ। एक वास या सुवास को तो मैं बताना ही भूल गया। वो थी एल्कोहल की तीखी झलास जो फूलों के पराग पर मंडराने वाले भँवरों की तरह सुरा के साथ शाम बिताने वाले आभिजात्य मेहमानों को अपनी ओर खींच रही थी।
गप्पों के बीच टहाके गूंज रहे थे। लगभग सारा पुरुष वर्ग और आधी से अधिक महिलाएं अलग अलग रंगों के पेय के ग्लास हाथों में लेकर मानो दुनिया के सारे तनवों और विसंगतियों को खुद से परे धकेल कर पार्टी के आनंद में डूब जाना चाहते थे। वैसे भी आर्मी के लोगों का जीवन जीने का एक अलग मनोविज्ञान होता है। वे अनिश्चित से जीवन में ‘आज’ को भरपूर जीना जानते हैं।
तभी वो क्षण आया जब मुझे अपने जन्मदिन का केक काटना था। सारी भीड़ टेबल पर सजी केक के चारों तरफ एकत्रित होकर तालियाँ बजाने लगी। मेरे हाथ में एक खूबसूरत रिबिन में लिपटा हुआ चाकू थमा दिया गया। पापा के इशारे पर मैंने मोमबत्तियों पर फूँक मारी। एक पतली धूँए की लकीर ऊपर उठकर शून्य में विलीन हो गई। वातावरण तालियों और हैप्पी बड्डे से समूहिक स्वरों से गूंज उठा।
“केक काटो मेरे प्यारे बच्चे” आप ने ममता भरे शब्दों में कहा था मॉम। भले ही मेरी उम्र चार साल की थी मगर अबतक न जाने कितनी बर्थडे पार्टियों में ये परंपरा दुहराई जाते देख चुका था। मैंने चाकू से केक काटकर एक टुकड़ा अलग किया और उँगलियों में टुकड़ा लेकर प्रश्नवाचक निगाहों से एक ओर खड़ी आप और दूसरी तरफ खड़े पापा की ओर देखने लगा।
तभी भीड़ से आगे निकलकर आई एक चंचल सी महिला ने जुमला उछाला जिसने मुझे अजीब से असमंजस में ड़ाल दिया था। “आज देखे ‘पुरू’ किसको ज्यादा लव करता है। मम्मी को या पापा को। जिसको ज्यादा प्यार करता है उसे ही पहला केक खिलाएगा।”
आज जब मेरी उम्र सौलह साल हो गई है तो आज भी मैं तय नहीं कर पाता हूँ कि उस उम्र में, मैं किसे अधिक प्यार करता था मगर आज उसके माइने बदल गए हैं। समय बादल गया है। हालात बदल गए हैं। अब मेरे जीवन में न पापा हैं और …।
मेरे पाँच साल का होने से पहले दुनिया छोड़कर चले गए पापा की कई अलग अलग छवियाँ मेरे मस्तिष्क में अंकित है। वे एक ही दिन में विपरीत आयामों वाले कई व्यक्तित्वों को जीते थे।
शाम को जब मैं खेलकर घर लौटता तो सेना की वर्दी बदल कर हल्के हो चुके पापा मुझे दोनों बाहों से ऊंचा उठा लेते। खुद से भी ऊंचा और किचन में काम कर रही आप से कहते “देखना, एक दिन मेरा बेटा कर्नल बनेगा और हमारे सेना की हिश्ट्री वाले खानदान का नाम रौशन करेगा।”
जब तक मैं हाथ मुंह धोकर कपड़े कपड़े बदलता तब तक पापा लिविंग रूम में बोतल खोलकर ग्लास में छोटे छोटे बर्फ के टुकड़े ड़ाल रहे होते। तब मुझे उनकी लाल लाल आंखों से डर सा लगाने लगता। तब मौम, आप मुझे उधर न जाने का निर्देश देकर दूसरे कमरे में पढ़ने बैठा देतीं। तब न जाने क्यूँ मुझे लगता कि ये वो वाले पापा नहीं हैं जिन्होने थोड़ी ही देर पहले मुझे गोद में उठाया था। ये तो कोई डरावना सा गुस्सैल आदमी है जिसके पास जाने की भी मनाई है। पर मैंने उनका गुस्सा कभी देखा तो नहीं। न मेरे लिए और न आप के लिए मॉम। मेरे कोमल हृदय पर तो केवल उनकी सरल मुस्कान अंकित है। आज भी।
सुबह पापा खूब मूड में होते। रेडियो पर तेज आवाज में मन्ना डे और हेमंत कुमार के गाने सुनते हुए अखबार पढ़ते। मैं उनके पास जाता तो गोद में उठा लेते और खूब प्यार करते थे मगर नाश्ते के बाद सेना की कलफ लगी रुआबदार वर्दी पहनते, बूट्स के फीते बांधते हुए और वर्दी पर मैडल टाँकते हुए एकबार फिर उनका व्यक्तित्व बदल जाता। चाल ढाल बदल जाती। वे बार बार आईने में अपनी मूछों पर ताव देते हुए अपने मैडल देखते और कोई मैडल धुंधला दिखाई देता तो तुरंत जेब से रुमाल निकालकर उसे चमका देते। बोलने की शैली बदल जाती। अब न वे मेरे पापा थे न आप के पति। अब वे सेना के एक अफसर थे। जब अर्दली और ड्राइवर आकर सेल्यूट करते तो वे बूटों को फर्श पर खटखटाते हुए सेना की चाल से अपनी जीप की ओर बढ़ जाते थे। मुझे आज भी याद है माँ, तुम कई बार कहतीं थीं “तुम्हारी पहली बीवी इंडियन आर्मी है।”
मगर मॉम… नहीं … माँ। तुम तो माँ थीं न। खलिस माँ। सुबह से रात तक और रात से अगले दिन सुबह तक केवल मामता, वात्सल्य और प्रेम की वर्षा करती माँ। मुझे दुनिया के किसी तराजू में भी तौलने का अवसर मिलता तो भला तुम्हारे समकक्ष कोई खड़ा हो सकता था क्या मां। तुम्हारे आंचल की छाँह में लेटते ही मैं गहरे सपनों की दुनिया में खो जाता। तुम्हारी गोद ही मेरे लिए दुनिया का स्वर्ग था। हालांकि पापा के आलिंगन की वो गर्माहट मुझे आज भी ऊर्जा देती है मगर माँ तो माँ है न। ‘सदा प्रेम दर्शाती माँ, जीवन राह दिखाती माँ’।
मैंने झट से केक का टुकड़ा तुम्हारे मुंह में ड़ाल दिया था। पापा आसमान की ओर मुंह करके ज़ोर से ठहाका मारकर हँसे थे और उन्होने हम दोनों को आलिंगन में भर लिया था।
फिर एक दिन पापा घर आए। कडक वर्दी में अपने सीने पर लगे मैडल चमकाते हुए, बूटों को खटखटाते हुए घर नहीं आए। उस दिन उन्होने मुझे बाहों में लेकर खुद से ऊंचा नहीं उठाया।
आई थी तिरंगे में लिपटी हुई उनकी देह। लोग कहते थे वे मरे नहीं हैं। शहीद हुए हैं। मगर मेरा बचपन भी तो उसी दिन मर गया था न माँ।
मॉम, जब तुम पर बहुत प्यार आता है जो मेरे मुंह से मां ही निकलता है। पापा के जाने के बाद तुम ने मेरे जीवन में उनका रिक्त स्थान भरने का कोई कम प्रयास तो नहीं किया था। दिन में सौ बार मेरी बलैयां लेकर सिसक उठतीं। मेरी पसंद के खिलौने लातीं। आइसक्रीम, चौकलेट और मिठाइयाँ लातीं।
फिर एक दिन हमारे आँगन में एक विषबेल अंकुरित हुई और रेंगते रेंगते ड्रॉइंग रूम से होती हुई बैड रूम तक फ़ैल गई। उसकी गंध से मुझे घुटन होती थी। उबकाई सी आने लगती। उसके कांटे मेरे शरीर को लहूलुहान कर जाते थे माँ।
फिर न जाने कब उस कंटकाकीर्ण विषबेल को तुम ने अंगीकार कर लिया या उसने तुम्हें भी अपने पाश में लपेट लिया था। अब जहरीले कांटे उस आँचल में भी चुभने लगे थे जिसकी छाँह में मेरी दुनिया का स्वर्ग था माँ। एक खट्टी सी महक आने लगी थी अब मुझे वहाँ। जैसे दूध सड़ जाता है। पवित्र पावन वंदनीय और पूजनीय माँ के लिए ऐसे शब्दों के प्रयोग के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ मगर मन के कच्चे मृतभाण्ड पर आज भी उस विषबेल के काँटों के जख्मों से रक्तस्त्राव होता है। एक गहरी टीस हृदय से उठकर मेरे पूरे व्यक्तित्व पर आच्छादित हो जाती है।
खैर छोड़ो। आज भावुकता के झंझावात में बचपन की उन यादों से पर्दा हट गया था। क्षमा प्रार्थी हूँ। आज के बाद उस दौर का जिक्र कभी नहीं करूंगा।
बस एक सवाल मन को हमेशा कचोटता रहेगा कि पापा के जाने के बाद आप के जीवन में आने वाले मिस्टर कपूर मुझ बालक से इतनी नफरत क्यूँ करते थे। मुझे तो ये भी पता नहीं कि आप की और कपूर साहब की शादी से पहले कब आप के बीच ये समझौता हुआ होगा कि उस नवगठित परिवार में मैं एड्जैस्ट नहीं हो पाऊँगा इस लिए मुझे दादा जी के घर भेज दिया जाय। इसके लिए मुझ बालक की राय का तो कोई महत्व था ही नहीं किन्तु अनवरत आँसू बहाते हुए आप ही तो मुझे दादा जी के घर छोड़कर आई थीं। आँसू … मेरे नहीं। आप के। आखिर आप माँ थीं और कलेजे के टुकड़े को खुद से जुदा करते हुए आप के दिल पर क्या गुजरी होगी, इसका अहसास मुझे आज भी है। जीवन का ये क्रूर समझौता आप ने कितने अंगारों पर चलकर किया होगा और पाँव के वो छाले बरसों तक फूट फूट कर आप को असहनीय वेदना देते रहे होंगे, किन्तु तराजू पर दो स्थितियाँ एक साथ तुल रही थीं। नया जीवन। नया परिवार या … या मैं। मैं भला इतना नीच और स्वार्थी कैसे हो सकता हूँ कि बचपन के एक टुकड़े पर आप की ममता की छाँह पाने के स्वार्थ में आप का पूरा जीवन मांग लूँ। जब पापा आप को जीवन के मध्य भंवर में छोड़कर चले गए थे तो आप की उम्र ही क्या थी और सामने था एक मरुथलीय विकराल अंतहीन सा लंबा पथ। आप जीवन में कभी ये मत सोचना कि आप के के उस निर्णय पर मुझे तनिक सा भी क्रोध या ऐतराज है। आप का चयन सही और समयानुकूल था माँ।
शुरू में तो नई जमीन में जड़ें जमाने में मुझे भी बार बार लगता था कि दम घुट जाएगा। शाखें सूख जाएंगी। किन्तु धीरे धीरे मुझे दादा जी में पापा नजर आने लगे।
वैसे भी मेरे लिए पापा की रक्तरंजित देह देखने से तो कहीं सरल अहसास था आप से बिछोह।
दादा भी आर्मी बैकग्राउंड से थे इसलिए उनके साथ मेरी खूब मस्ती से छनती थी। वे बच्चों में बच्चा बनना जानते थे। दादी मेरे खाने पीने और आप की तरह ममता की थपकी देकर सुलाने का प्रयास करतीं। माँ, उन दोनों ने आप के रिक्त स्थान को भरने का प्रयास करने में तो कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु तुम्हारे आँचल की दूध में नहाई सी महक कभी दोबारा नसीब नहीं हो पायी।
मुझे हफ्ते भर रवीवर के उस दिन का इंतजार रहता जब तुम मुझ से मिलने आती थीं। मेरे लिए ढेर सारे चौकलेट और खिलौने लातीं। किन्तु जब तक तुम दादा जी के घर में रहतीं मैं अपनी झोली तुम्हारे लाये उपहारों से नहीं तुम्हारी ममता से भर लेना चाहता था।
शुरू के दिनों में जब तुम आतीं तो मुझे सीने से लगाकर बिलख उठती थीं। एक बिछोह का दर्द और एक … एक अपराध बोध सा तुम्हारे चेहरे पर होता। उस पल तुम माँ होती थीं। खालिस माँ। धीरे धीरे तुम्हारे आने के समय का अंतर बढ़ता गया। अब तुम कभी पंद्रह दिन और कभी कभी महीनों में मुझ से मिलने आने लगीं थीं।
माँ, एकदम शुरू के कुछ महीनों को छोड़कर, दादा दादी के घर आने के बाद, समय से कुछ पहले ही जीवन की तपिश में तपकर परिपक्व हो चुका मैं कभी अपनी स्थिति से असंतुष्ट नहीं था। अपने दायरों से जल्दी ही समझौता कर लिया था मैंने। मगर कभी कभी स्कूल जाते समय बच्चों से लदी फंदी मेरी रिक्शा की बगल से मेरी छोटी बहन टीनू को स्कूल छोड़ने जाती तुम्हारी बीएमडब्ल्यू सर्र से गुजर जाती तो मेरे बाल मन में एक कुंठा सी पनप जाना सहज ही था ना माँ। पर वो बचपन था। अब नहीं। अब मुझे अपनी स्थिति का ठीक से एहसास हो गया है कि मैं कैलाश नगर की पौष कोठी में रहने वाला आभिजात्य बालक नहीं हूँ बल्कि शहर के पुराने काजीपुरा के मध्यम वर्गीय परिवार का वंशज हूँ। खाकी पेंट और सफेद कमीज पहनकर रिक्शे में जाने वाला सरकारी स्कूल का छात्र हूँ। अब मैंने अपने रास्ते चुन लिए हैं। समय ने मुझे समय से पहले ही मजबूत बना दिया है।
किन्तु… किन्तु तुम्हारे आगमन से मेरे शांत सरोवर से हृदय में लहरें सी उठने लगती हैं। मैं अपने बरसों से गढ़े गए व्यक्तित्व का पुनर्मूल्यांकन सा करने लगता हूँ। एक संक्रामण आ जाता है सोच में।
दादा के जाने के बाद हम दोनों यानी मैं और दादी और भी अधिक स्वावलंबी और स्वाभिमानी हो गए हैं या परिस्थितियों ने बना दिया है। जैसे सौना तप तपकर और भी निखर जाता है। इस किशोर वय में एक ‘घर’ के सारे पुरुषोचित दायित्वों को पूर्ण करने की क्षमता आ गई है मुझ में। बिजली का बिल भरना। सस्ते राशन की दुकान से क्यू में लगाकर समान लाना और स्कूल। आखिर मेरी रगों में एक जुझारू, कर्मठ और गौरवपूर्ण इतिहास वाले खानदान का रक्त बहता है। दादा की अब आधी पेंशन आती है जिस में हमारा काम चल जाता है।
अब मैं वो बात लिख रहा हूँ … ओफ़्फ़। अपनी माँ को ये लिखते हुए मेरे हाथ क्यूँ नहीं टूट गए। मेरी कलम ने लिखने से बगावत क्यूँ नहीं कर दी। किन्तु … किन्तु मुझे लगता है कि आज अपनी बात कहने से मैं भार मुक्त हो जाऊंगा। एक बहुत बड़ा बोझ मेरे ह्रदय से उतर जाएगा और शायद तुम भी स्वयं में बंधन मुक्ति का अनुभव करो। क्या पता ये मेरी बढ़ती उम्र और परिपक्वता के साथ बदलता दृष्टिकौण ही हो किन्तु मुझे लगता है कि बदलते समय के साथ धीरे धीरे मेरी माँ पर मिसेज कपूर का व्यक्तित्व हावी होता गया है। तुम्हारे फैशन, चाल ढाल, बोलने का ढंग और … और तुम्हारे शरीर पर महंगे आभूषण व लंबी गाड़ी ने मेरे और तुम्हारे बीच एक अदृश्य सी दीवार खड़ी कर दी थी। हर बार मुझे और दादी को पूरे मुहल्ले की अजीब अजीब सी शंकाओं का, व्यंगों का और सवालों का जवाब देना पड़ता। वे एक माँ और बेटे के इस जीवन स्तर के अंतर को सवालिया निगाह से देखते है। मैं समझ सकता हूँ कि वो वर्गभेद तुम्हें भी असहज कर जाता होगा। कहीं न कहीं तुम्हारी भी तो आत्मा तुम्हें भीतर से कचोटती होगी। शायद इसी लिए तुम ने कई बार मुझे कुछ रुपये भी देने का प्रयास भी किया किन्तु स्वाभिमानी दादी ने सख्ती से इंकार कर दिया था। एक और बात भी है जिसे कहकर भारमुक्त होना चाहता हूँ। इंसान हूँ न माँ। हर बार एक अहसासे कमतरी… एक हीन भावना की कुंठा की हल्की सी परत मेरे दिल पर जम जाती है माँ।
अपने लिए भी और मेरे लिए भी असह्य कष्टकारक एक क्रूर शल्य आप ने तब किया था जब पाँच साल के बेटे को माँ से विलग कर दिया था। अब इतने बरसों बाद एक दूसरी सर्जरी करने का मैं आप से करबद्ध निवेदन कर रहा हूँ। जीवन में दोहरे मापदण्डों को झेलने वाली, सर्कस के कलाकार जैसे रस्सी पर स्वयं को साधते रहने वाली थकान भरी दुरूह कवायद छोड़कर एक बंधनमुक्त जीवन जीने के लिए आप स्वतंत्र हों और फिर मैं भी अपनी जमीन पर अपनी जड़ें और मजबूती से जमा सकूँगा। इसलिए आज आप से अनुरोध कर रहा हूँ कि “अब मत आना माँ।”