सुमन जी की बूढ़ी आँखों में आँसुओं का सैलाब उमड़ने को था, पर उन्होंने अपने आप को रोक लिया।
उनके बेटे, विशाल और बहू, काव्या, जो कभी उनकी आँखों के तारे थे, अब उनके जीवन का सबसे बड़ा दर्द बन चुके थे।
सुमन जी का जीवन पहले कितना सरल था, जब उनके पति जीवित थे। तब यही बेटा-बहू उनकी हर बात को सिर-आँखों पर रखते थे।
लेकिन अब, पति के निधन के बाद, सब बदल गया था।
बार-बार सुमन जी के मन में विचार घूमते: “जब तक पिता थे, तब तक इनकी इज़्ज़त करने की मजबूरी थी। पर अब, जब उसे किसी का डर नहीं रहा, तो असली रंग दिखाने से बाज़ नहीं आ रहा। बेटा जिसे मेरा सहारा बनना चाहिए, आज वही मुझे बोझ समझ रहा है।”
हर दिन नए-नए बहानों से विशाल और काव्या उन्हें पैसों के लिए परेशान करते।
उन्होंने चाहा कि घर और ज़मीन भी उनके नाम कर दी जाए।
पर सुमन जी जानती थीं कि एक बार ऐसा हुआ, तो वो शायद उसी दिन बेघर हो जाएंगी।
एक दिन, जब ये सब सुमन जी के लिए असहनीय हो गया, उन्होंने अपनी ननद, मीरा जी से मदद मांगी। मीरा और सुमन जी का रिश्ता बहनों से बढ़ कर था। एक वही थी जो उन्हें इन हालातों में हिम्मत भी बँधवाती थी और हमेशा सही सलाह देती थीं।
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आज फिर जब अपने मन की असहनीय पीड़ा को जब सुमन जी ने मेरा जी से बाँटा तो मीरा जी ने सुमन से कहा: “सुमन, ज़िंदगी बहुत लंबी होती है, और आत्मसम्मान उससे भी बड़ा होता है। तुम्हारे पास अभी भी वक्त है, कुछ ऐसा करने का जिससे तुम्हारा आत्मसम्मान बचा रहे। बेटा हो या बेटी, किसी के अत्याचार को सहना तुम्हारी मजबूरी नहीं है। मैं तुम्हारे द्वारा लिए हर फ़ैसले में तुम्हारे साथ हूँ, सुमन। निर्णय तो लेना पड़ेगा कब तक आत्मसम्मान खो कर जियोगी।”
सुमन जी ने मीरा की बातों को गहराई से सोचा और आख़िर एक ठोस निर्णय लिया। ये फ़ैसला आसान नहीं था, लेकिन यह उनके आत्मसम्मान के लिए ज़रूरी था।
उन्होंने अपने घर को किराए पर देने का फ़ैसला कर लिया था। किराए से होने वाली आमदनी से उनकी गुजर बसर भी हो जाएगी और आत्मसम्मान की रक्षा भी।
उन्होंने विशाल और काव्या को अपना निर्णय सुनाने के लिए बुलाया, और आने वाले १५ दिन के भीतर ही घर ख़ाली करने को कह दिया।
सासु माँ के मुँह से ऐसी बात सुन काव्या के पैरों तले ज़मीन खिसक गई पर जब विशाल ने माँ को किराए पर घर देने की बात सुन कर धमका दिया तो काव्या की भी जान में जान आयी “आप मेरी माँ हो इसलिए मैंने आपकी बात केवल सुन ली है, नहीं तो जितना अधिकार आपका इस घर पर है, उतना मेरा भी है। आख़िर मैं आपका इकलोता बेटा हूँ। अपनी बची-खुची उमर गुज़ारो और इज़्ज़त से हमारा पीछा छोड़ दो, नहीं तो वृद्धाश्रम का एक कमरा मैंने आपके लिए देख लिया है।” विशाल ने माँ से ऊँची आवाज़ में कहा तो काव्या ने भी पति की हाँ में हाँ मिलायी।
“इज़्ज़त, वो तो तुमने मुझे दी ही नहीं बेटा। माँ को माँ नहीं बोझ समझा। हाँ, और जहां तक इस घर की बात है, वो मेरे पति की खून पसीने की कमाई है जिस पर मेरे पति के बाद केवल मेरा हक़ है। इस घर में कौन रहेगा इसका निर्णय पूरी तरह मेरा है।” सुमन जी ने आराम से केवल इतना ही कहा और अपने कमरे की और बढ़ गई।
अगले तीन-चार दिन जब इस विषय पर कोई बात नहीं हुई तो विशाल ने भी इसे नज़रअंदाज़ कर दिया।
१५ दिन का समय बीत गया।
विशाल और काव्या सुबह की अपनी दिनचर्या में आम दिनों की तरह ही व्यस्त थे।
बाहर घंटी की आवाज़ आयी।
“मीरा बुआ, आप आइये ना।” काव्या ने जैसे ही दरवाज़े की तरफ़ नज़र दौड़ाई तो सकपका गई।
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मेरा बुआ के साथ पुलिस की वर्दी में दो अनजान लोगों को देख पहले तो विशाल गुर्राने को हुआ पर काव्या के इशारे पर चुप हो गया।
१५ दिन पहले की माँ की धमकी जो उसको शायद माँ की एक खोखली अकड़ सी लगी थी, अब सच लगने लगी।
मीरा बुआ और सुमन जी आपस में बातें करने लगी, जिन्हें पानी देते हुए काव्या चुप-चाप सुन चुकी थी।
“सुमन भाभी, ये घर के काग़ज़ तयार हो गये हैं। भइया ने वसीयत में घर तो आपके नाम लिख दिया था। बाक़ी की काग़ज़ी कारवाही पूरी करवा दी है। ये आप सम्भाल लो।” मीरा जी ने काग़ज़ सुमन जी की और बढ़ा दिये।
“धन्यवाद मीरा” कहते हुए सुमन जी ने काग़ज़ चेक किए और फाइल को अपने पास सम्भाल लिया।
“क्या अब कुछ और भी कहना बाक़ी है?” मीरा जी ने विशाल और काव्या की और देखते हुए कहा।
“हमें माफ़ कर दो बुआ, माँ हम दोनों को माफ़ कर दो। हम से बहुत बड़ी गलती हो गई। मैं भटक गया था माँ।” विशाल गिड़गिड़ाने लगा।
पर सुमन जी निर्णय ले चुकी थी। उन्होंने मीरा जी को आँखों में ही अपना फ़ैसला सुना दिया।
मीरा जी के इशारे पर दोनों पुलिस वाले उठने ही लगे की विशाल और काव्या चुपचाप अपने कमरे से अपना बोरिया बिस्तर बांधने भागे।
किरायेदारों का इंतज़ाम हो चुका था और सुमन जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ इस नए सफर की शुरुआत की।
सुमन जी ने अपने बेटे को बिना किसी नाराज़गी के कहा: “विशाल, मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे क्या चाहते हो। पर मैं इस घर को तुम्हारे नाम नहीं कर सकती। मैंने तुम्हें जन्म दिया है, पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपना आत्मसम्मान खो दूँ। मेरी ज़िंदगी का जो समय है उसे मैं घुट-घुट कर नहीं, सम्मान के साथ जीना चाहती हूँ, और यही मेरे पति की भी इच्छा थी।”
विशाल और काव्या को अब अपनी भूल का एहसास हो रहा था, पर अब कुछ भी बदलना उनके हाथ में नहीं था।
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विशाल और काव्या को बाहर जाते देख सुमन जी ने मीरा जी से कहा : “सब कुछ होते हुए भी, अगर आत्मसम्मान नहीं है, तो वह जीवन नहीं, बस एक बोझ है। बेहतर यही है कि इन्सान अपने आत्मसम्मान के साथ अकेले जिए, बजाय हर दिन मर-मर के जीने के।”
दोस्तों, सुमन जी के फ़ैसले ने साबित कर दिया कि इंसान की सबसे बड़ी पूंजी उसका आत्मसम्मान होता है, और उसे किसी के भी लिए और किसी भी कीमत पर खोने नहीं देना चाहिए।
आपकी सखी
पूनम बगाई
“निर्णय तो लेना पड़ेगा कब तक आत्मसम्मान खो कर जियोगी।” वाक्य पर प्रतियोगिता के लिए कहानी