आत्मलाप – डाॅ उर्मिला सिन्हा  : Moral Stories in Hindi

नियति कैसा कैसा खेल खेलाता है…जिसे इंसान का दंभी मन समझ नहीं पाता। जब अपना कर्म सामने आता है तो सिर्फ पछतावे के कुछ भी हासिल नहीं होता।

  अपने कमरे के बेड पर छटपटाते…एक घूंट पानी के लिए तरसते… अपनों की मीठी बोली की  आस लिये रमेश बाबू तड़प रहे थे।

“क्यों आज कैसा दिल पर बीत रहा है… याद करो तुम्हारे वृद्ध माता-पिता कैसे खून का आंसू रो-रोकर स्वर्ग सिधार गए थे। चूंकि तुम उनके कमाऊ पूत थे अतः अपने खर्चे के लिये कुछ रुपए की ही आस थी उन्हें तुमसे…ताकि उनकी बुढ़ापे की जरुरतें पूरी हो सके… और तुम अपनी फैशनेबल मगरुर बीबी के कपटजाल में ऐसा फंसे हुये थे कि अपने ही जन्मदाता को लोभी लालची कह उन्हें जलील कर उनसे किनारा कर लिया।”उनके आंखों के समक्ष पुरानी यादें झिलमिल करने लगी।

” बेटा कुछ रुपए भेज देना … तुम्हारे बाबूजी की दवाई फल और अपने लिये कुछ जरूरी सामान मंगवाना था… मोतियाबिंद के कारण मुझे और तुम्हारे पिता को देखने में दिक्कत हो रही है…सुना है शहर में मोतियाबिंद का आपरेशन सहजता पूर्वक हो जाता है…  अगर हम-दोनों के आंखों का आपरेशन करवा देते तब हमारा बाकी जीवन आराम से कट जाता ” मां  ने कुशल-क्षेम के पश्चात लिखा था…

पत्र पढ़कर रमेश बाबू कुछ सोच पाते निर्णय लेते कि पत्नी ने हाथ से चिट्ठी खींचकर पढ़ना शुरू किया…प्रत्येक वाक्य जैसे उनपर बिजली गिराती। अपने कटु व्यंग्य वाणी से छेदने लगी ” यहां जैसे पैसे का पेड़ लगा है…मोतियाबिंद का आपरेशन करवा दो…जैसे  यहां उनकी सेवा करने के लिये मैं खाली बैठी हूं…अपने दुसरे बेटे से क्यों नहीं कहती…दुनिया में इतने लोग देखे हैं लेकिन तुम्हारे मां-बाप जैसा लालची …अपस्वार्थी कहीं नहीं देखा ” बोलते बोलते पत्नी का गोरा चेहरा लाल हो गया। सुंदरता विकृति में बदल गई। और  बेगैरत रमेश बाबू पत्नी की कुटिल चालों में फंसते गये माता-पिता से किनारा कर लिया और मगरुर बीबी के हां में हां मिलाते रहे।

  चूंकि रमेश बाबू मेधावी छात्र थे टेक्निकल पढ़ाई के लिये पिता ने जमीन गिरवी रख दी थी…इस उम्मीद में कि बेटा पढ़-लिख जायेगा तब जमीन छुड़वा लेगा। जमीन छुड़वाना तो दूर रमेश बाबू ने कोई भी घर की जिम्मेदारी नहीं ली…अपनी बीबी के ठाकुर सुहाती में लगे रहे…रमेश बाबू के बड़े भाई पढ़ाई में साधारण थे अतः उनकी पढ़ाई छुड़वाकर छोटे-मोटे कामों में लगा दिया ताकि कुछ मदद हो सके। बड़े भाई की पत्नी बहुत धैर्यवान और सुघड़ थी… उसने आजीवन सास-ससुर की सेवा की…पति के दुख-सुख में साथ दिया… परिणाम उनके दोनों बेटा-बेटी आज प्रशासनिक सेवा में हैं… पैतृक घर को भी बनवा दिया…सब सुख-समृद्धि लौट आया… जिसे रमेश जी के बड़े भाई माता-पिता का आशीर्वाद मानते हैं।

” भाई पिता जी नहीं रहे… मां रो-रोकर बेहाल है… अंतिम संस्कार में सपरिवार आ जाओ” बड़े भाई ने रोते हुए पिता जी की मृत्यु का दुखद समाचार दिया था। रमेश बाबू रो पड़े… आखिर बेटा थे… माता-पिता की ममता… बचपन से लेकर पढ़ाई तक की घटनाएं क्रमशः याद आने लगी, 

” सुनो गांव जाने की तैयारी करो… पिताजी नहीं रहे… मैं मां का लाड़ला हूं… श्राद्ध कर्म के पश्चात मां को यहां लेकर आऊंगा।”

 ” क्या कहा… अपने बाप का अंतिम संस्कार करने जाओगे…बुढिया को यहां लाओगे…खबरदार” पत्नी शेरनी सी दहाड़ उठी। रमेश बाबू की एक न चली। पिताजी की अर्थी छोटे काबिल बेटे का इंतजार करती चिता के हवाले हो गई।

 छोटे  बेटे बहू की इस बेदर्दी ने वृद्धा माता का दिल तोड़ दिया ….वह भी कुछ दिनों के पश्चात चल बसी। बड़े बेटे बहू और उनके दोनों बच्चों ने जी-जान से माता-पिता की सेवा की… अभाव में भी उन्हें कोई कमी नहीं होने दिया। कभी छोटे भाई और उसकी पत्नी को भला-बुरा नहीं कहा…बस उनकी बेरुखी का मलाल था। अपनी सामर्थ्य के अनुसार श्राद्ध कर्म भी किया।

    इधर रमेश बाबू की पत्नी सास-ससुर के निधन के पश्चात अपने पति को उनकी अंतिम यात्रा और श्राद्ध में  अपने कुचक्रों से जाने से रोककर… और अधिक उच्छृंखल हो चली थी।

मुंहफट तो थी ही अब दौलत के नशे में  अपनी अवारा सहेलियों के साथ गुलछर्रे उड़ाने लगी दोनों हाथों से दौलत लुटाने लगी।। परिवार का असर बच्चों के परवरिश पर पड़ने लगा।दोनों बेटे   पढ़ाई में कम और इधर उधर में ज्यादा रहने लगे। परिणाम गलत संगत में पड़ गये। रमेश बाबू दौलत कमाने की मशीन बन गये थे।न पत्नी वश में थी न औलाद… पत्नी और बच्चों की कारगुजारियों से समाज में उनकी बदनामी होने लगी। 

एक दिन पत्नी और बच्चों से बोले ” तुम लोगों को किस चीज की कमी है… अच्छा इंसान बनो पढ़ो लिखो…न कि गुंडे मवालियों का संगत करो… तुम्हारी मां अपने तो बर्बाद है ही… तुम लोगों को भी ग़लत रास्ते पर डाल कर कहीं का नहीं छोड़ेगी !”

   इतना सुनते ही रमेश बाबू की पत्नी और बेटे उनपर चील के समान झपट पड़े और उनकी लानत-सलामत कर डाली।बेटे  और पत्नी पास पड़े डंडे से मारने दौड़े…”बहादुर बनते हो… हमें उल्टा सीधा कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई।”

रमेश बाबू ने भागकर अपनी जान बचाई। जबतक माता-पिता जिंदा थे… रमेश बाबू भले उनके किसी काम नहीं आये लेकिन उनका आशीर्वाद सदैव उनके साथ था।

उनके स्वर्गवास के पश्चात धीरे-धीरे कर्मों का दुष्परिणाम सामने आने लगा।

उनकी   पत्नी और दोनों बेटे अपनी  दुष्ट मंडली में शामिल हो धन और शक्ति का दुरुपयोग करने लगे… एक कांड में तीनों जेल चले गये…छूटने पर पत्नी पागल होकर कहीं गलियों में भटक रही है  और दोनों बैटों का कोई अता-पता नहीं है…सूत्र बताते हैं वे असामाजिक तत्वों के चंगुल में फंसे हुए हैं जिससे निकलना असंभव है “रमेश बाबू की भी सारी धन-संपत्ति इज्जत एक झटके में धूल में मिल गयी।

   अब मृत माता-पिता से माफी मांगने से क्या फायदा… जीते जी  मां बाप को खून के आंसू रुलाई और आज आत्मलाप कर रहे हैं।

माता पिता के कर्म अच्छे थे सामर्थ्यवान बेटे-बहु ने दूध से मक्खी की तरह निकाल दिया लेकिन कम सामर्थ्य वाला बेटा बहू ने पूरे आदर-सम्मान और प्यार से उन्हें रखा।

   ऐसे ही आत्मलाप करते रमेश बाबू होश खो बैठे। घिसट घिसट कर जिंदगी बीतने लगा।

 सोने की लंका राख में तब्दील होते देर नहीं लगी।

लोग कहने,” जो  अपने मां-बाप का दिल दुखाते हैं ईश्वर उन्हें जरूर सजा देते हैं।”

मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा 

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